समाज से मनुष्य अनेकानेक अनुदान प्राप्त करता है। जन्म से ही समाज के घटक माता-पिता के बच्चे पालन-पोषण में इतना सहयोग देते है जिसका यदि लेखा-जोखा और मूल्याँकन किया जाय तो एक जन्म क्या अनेक जन्मों तक उनके उपकार का प्रतिदान किया जा सकना कठिन हों। पूर्वजों के संचित ज्ञान कोष से, अभिभावकों एवं शिक्षकों के अमूल्य योगदान से ही मानव आज इतनी ज्ञान-सम्पदा अर्जित कर सका हैं। भोजन, वस्त्र, मकान से लेकर दैनिक उपयोग की वस्तुओं में लाखों-करोड़ों व्यक्तियों का श्रम एवं मनोयोग जुड़ा है।
दूसरों के सहयोग का मूल्य-उदारता, सेवा, दया, करुणा और सद्भावनाओं के रुप में ही चुकाया जा सकता हैं मनुष्येत्तर प्राणी जो प्रायः तुच्छ एवं हेय समझे जाते है वे भी प्रत्युपकार, कृतज्ञता, सहदयता और सहानुभूमि से रक्त नहीं। अपने प्रति किये गये उपकार सहयोग का मूल्य वे समझते है और उसे चुकाने में आत्म गौरव एवं सन्तोष की अनुभूति करते हुए कृतज्ञता प्रकट करते है। बुद्धि की दृष्टि से वे भेल ही न्यन हो, परन्तु सम्वेदना शून्य नहीं।
मध्य प्रदेश के सरगुजा जिले की घटना हैं 1960 के गर्मियों के दिन थें लटोरी ग्राम के निवासी ‘मोहर-साय’ महाशय अपने एक मित्र के साथ जंगल में धुमने गये थे। सुरक्षा की दृष्टि से वे लोग कुल्हाड़ी भी लेते गये।
जंगल में कुछ दूर प्रवेश करने के बाद उन्होंने देखा कि एक काले मुँह वाले बन्द की पूँछ और से आधी चिरी लकड़ी के बीच बुरी तरह फँसी हुई हैं उसके फँस जाने का कारण ज्ञात होने पर पता चला कि पिछले दिन कुछ लोग रात अधिक हो जाने से लकड़ी को अधचिरा ही छोड़ गये थे। बन्दर की स्वाभाविक उछल-कूद की चंचल वृत्ति के कारण लकड़ी के बीच लगा गुटका निकल गया और उसकी लम्बी पूँछ उसी में दब गई। दबाव अधिक होने से वह अपनी पूँछ निकालने में समर्थ न हो सका। जोर लगाने पर उल्टे कष्ट होता अतः बन्दर रात भर उसी स्थिति में चिल्लाता रहा।
मोहरसाय और उसके साथी को देखकर बन्दर सहायता क याचना भरी आवाज में चीखने लगा। उन दोनों व्यक्तियों की रुण उस असहाय के लिए फूट पड़ी। उन्होनें कुल्हाड़ी से लकड़ी के चिरे भाग को फैला दिया जिससे बन्दर की पूँछ निकल गयी।
अपनी पीड़ा से मुक्त होते ही बन्दर ‘मोहर साय’ का अँगोछा लेकर बड़ी तेजी से वहाँ से भाग लियाँ दोनों व्यक्ति उसे खोजते हुए हैरान थे और बन्दर की चपल उच्छखलता के बारे में सोच ही रहे थे कि तब तक बीस मिनट के भीतर ही वह बन्दर उनके अँगोछे में दो-तीन किलो पके मीठे तेन्दू के फल लिए दौड़ता आया और उनके सामने रखकर कुछ दूर हटकर बैइ गया। बन्दर उनकी ओर कृतज्ञता भरी दृष्टि से निहार रहा था और तब तक देखता रहा जब तक कि उन लोगों ने उसके सामने ही कुछ फल खा न लिये। फिर वह उन्हें धन्यवादपूर्ण नेत्रों से देखता, सन्तोष अनुभव करता जंगल में ओझल हो गयाँ
उन लोगों का कहना है कि उन्होंने अपने जीवन में इतने मीठे एवं स्वादिष्ट तेंदू के फल कभी नहीं खाये थें बन्दर की कृतज्ञता की भावना की याद आते ही उनकी आँखें आँसुओं से भर आतीं
बन्दर जैसा तुच्छ, साधनहीन प्राणी अपनी अल्प क्षमताओं में भी प्रत्युपकार, कृतज्ञता, सहृदयता, सम्वेदनाओं से सम्पन्न पाया जाता है। मनुष्य को तो सामाजिक अनुदान एव सहयोग से विशेष साधन, बौद्धिक, क्षमताएँ आदि उपलब्ध हुए हैं यदि वह उनका उपयोग मात्र संकीर्ण स्वार्थपरता तक ही सीमित रखे, अपने पेट-प्रजनन तक ही नियोजित करता रहे तब तो समाज के प्रति उसकी कृतघ्नता ही कही जायेगी। मानव-जीवन की सार्थकता तभी है जब सामाजिक सहयोग एवं अनुदानों को कृतज्ञता और उदारतापूर्वक समाज को श्रेष्ठ, शालीन, सभ्य एवं समुन्नत बनाने के रुप में लौटा दिया जाय।