समय विशेष की आवश्यकता को देखकर किन्हीं प्रचलनों का सूत्रपात किया जाता है। कालान्तर में जब वे परिस्थितियाँ नहीं रह जाती तो परम्पराओं का महत्व भी समाप्त हो जाता है और वे रुढ़ियाँ बन जाती है। इन रुढ़ियों के निर्वाह से न व्यक्ति का भला होता है और न समाज का। इसके विपरीत रुढ़ियाँ लोगों का मूल्यवान समय, धन और श्रम तो बर्वाद करती ही है, कई प्रकार की जटिल समस्याएँ भी उत्पन्न करती है। उदाहरण के लिए विवाह संस्कार के समय सम्पन्न किये जाने वाले रीति-रिवाजो को ही लिया जायें। प्रासंगिकता के आधार पर उन्हें कसा जाए तो, वे रिवाज न केवल हानिकारक सिद्ध होते है, वरन् मूढ़ता का भी परिचय देते है।
दहेज, नेग-जोग अलन-चलन और ऐसी ही अनेक रस्मों का प्रचलन किसी समय की आवश्यकता रही होगी। किन्तु आज जब परिस्थितियाँ बदल चुकी है, लोंगों की स्थिति और आवश्यकता बदल चुकी है तो विवेक की कसौटी पर इन परम्पराओं की उपयोगिता सिद्ध होने के स्थन पर निरुपयोगिता ही सिद्ध होती है। इनके अतिरिक्त समाज में विवाह के समय जिन प्रथा- परम्पराओं का पालन किया जाता है, उनको विकसित समाजों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो अपना समाज बेहद पिछड़ा और आदिम ही प्रतीत होगा।
संसार के सभी देशों में विवाह का प्रचलन है, उनके रीति-रिवाजों में कई विभिन्नताएँ पाई जाती है। कुछ रिवाजों का स्वरुप तो इतना विचित्र है कि उन्हें जान पढ़कर हँसी ही छूटती है। इन रिवाजों के अलावा वर-वधु को अपने रहन सहन में जो परिवर्तन करने पड़ते है अर्थात् विवाहित होने का परिचय चिन्ह धारण करना पड़ता है वह भी कम विचित्र नहीं है। उदाहरण के लिए ब्राजील के आदिवासी कबीलों में शादी के वाद पुरुषों को होंठ और कान में छल्ले पहनने पड़ते है। वहाँ किसी भी पुरुष के शादी-शुदा होने की पहचान ही यही है। विवाह न होने तक तो युवक को ऐसे कोई छल्ले, चक्के धारण नहीं करने पड़ते, पर शादी की रस्म पूरी होते ही उन्हें अपने होंठ और कान छिदाने पड़ते है। यह रस्म पूरी होने के बाद ही वधु-पति के घर जाती हैं भारतीय सर्न्दभ में इस परम्परा को क्या स्त्रियों के नाक-कान छिदाने से नहीं जोड़ा जा सकता है कि उन्हें कान में इयररिंग और नाक में लौंग या नथ पहननी पड़ती हैं। यह बात अलग है कि अपने यहाँ यह रस्म विवाह के पूर्व ही सम्पन्न कर ली जाती है।
पूर्वी नाइजीरिया के आदिवासी क्षेत्रो में शादी के बाद तो नहीं पर शादी के पहले अच्छी खासी मुशीबत झेलनी पड़ती है। मुशीबत इसलिए कि दुलहन अपनी सहेलियों के साथ वर की परीक्षा लेती है कि वह पुरुष है या नहीं। इस परख का अपना अनौखा ही अन्दाज है। जिस लड़के की यानी वर की परीक्षा ली जाती है वह अपने सिर पर जानवर का सींग रखकर खड़ा हो जाता है। फिर उसे वधु और उसकी सहेलियाँ चारों ओर से घेर लेती है। वर महाशय कमर पर एक छोटा-सा कपड़ा लपेटे खडे़ रहते है और इसके बाद वधु पक्ष की बालाये उसके नंगे बदन पर कोडे़ बरसाना शुरु कर देती है।
यह पिटाई उस समय तक चलती रहती है जब तक कि सिर पर रखा सींग जमीन पर नहीं गिर जाताँ ऐसा भी नहीं कि कोई जानबूझकर सिर से सींग गिरा दे। वर को दोनों हाथों में उसे थामे रहना पड़ता है। कोड़ों की मार से लड़का जब तक बेदम होकर गिर नहीं पड़ता तब तक यह परीक्षा चलती रहती है। साथ्ज्ञ ही जब तक दुल्हे राजा होशोहवास में रहते है, उन्हें मुस्कराते रहना पड़ता है। माथे पर शिकन आयी कि हो गये परीक्षा में फेल।
विवाह करना कोई हँसी-माजक तो है नहीं उसके साथ पत्नि के निर्वाह का उत्तरदायित्व भी जुड़ा रहता हैं इसलिए फीजीद्वीप के आदिवासी युवकों को कोई भी अपनी लड़की देने के लिए तब तक तैयार नहीं होता जब तक कि वअ अपना खुद का मकान न बना ले। मकान बना लेने के बाद युवक का सम्बन्ध तय होता है और विवाह की तिथि निश्चित होती है।
विवाह की तिथि से तीन दिन पहले वर को अपने शरीर में नारियल का तेल और वधु को हल्दी लगानी पड़ती है। चौथे दिन वर कोई दुर्लभ वस्तु लेकर वधु को उपहार देने जाता है। उपहार पाकर कन्या जोरों से रोना शुरु कर देती है। घर के लोग उसे समझा बुझा कर चुप कराते है और महिलाएँ पास के किसी तालाब में स्नान कराने ले जाती है। स्नान के बाद वर-वधु के परिवार वाले उसी तालाब में मछलियाँ पकड़ते है जिन्हें विवाह के भोज में परोसा जाता है। भोज के समय वर-वधु एक ही पात्र में भोजन करते है और भोजन के बाद समाज उन्हें पति-पत्नी के रुप में मान लेता है।
तिब्बत के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में शादी के लिए आये वर की घर के सभी व्यक्तियों द्वारा परीक्षा ली जाती है। वर जब शादी के लिए कन्या के घर जाता है तो कन्या पक्ष के लोग इधर-उधर छुपकर बैठ जाते है। जैसे ही वर घर में प्रवेश करता है वैसे ही लोग उस पर पिल पड़ते है और घूँसे थप्पड़ों से मारते-पीटते है। किसी प्रकार बचता-बचाता वर आगे बढ़ता है तो स्त्रियों का झुण्ड घेर लेता है। उनसे बचने पर छोटी लड़कियाँ पीछे पड़ जाती है। किसी प्रकार इस चक्र-व्यूह को बेध कर कन्या तक पहुँच जाने के बाद ही मारपीट रुकती है और फिर शाम के समय दोनों को एक साथ एक थाली में भोजन कराकर विदा कर दिया जाता है।
विवाह की इन विचित्र परम्पराओं में वर को ही कड़ी परीक्षा के दौर से गुजरना पड़ता हो ऐसा नहीं है। लड़कियों को भी अपने ढंग से परीक्षा देकर योग्य गृहिणी सिद्ध होने का आश्वसन देना पड़ता है। जैसे मेलेनेशिया द्वीप समूह की जन-जातियों में आठ वर्ष की आयु से ही लड़कियों को पिंजरे में बन्द कर दिया जाता है। यह पिंजरे पेड़ की पत्तियों और लकड़ियों से बनाये जाते है। न इनमें पर्याप्त हवा जा सकती है और न रोशनी। स्थान भी इतना ही रखा जाता है कि लड़की आराम से बैठ सके या सिकुड़ कर लेट भर सके। पिंजरे में बन्द करने की प्रक्रिया को विवाह की तैयारी कहा जाता है।
पोलेनेशियन द्वीप समूह में एक द्वीप है ‘ताहिती’। बहाँ की कबायली जातियों में विवाह के लिए ईश्वर और पूर्वजों की स्वीकृति लेनी पड़ती है। इसके लिए वधु परिवार के घर आँगन में एक वेदी बनायी जाती है। वेदी पर वधु के पूर्वजों की हड्डियाँ तथा खोपड़ियाँ टाँग कर वर-वधु दोनों कुछ दूर खडे़ हो जाते है। पुजारी उनकी ओर से ईश्वर की स्तुति करता है और पूर्वजों की आत्माओं का आहवान करता है। कुछ देर बाद किन्ही संकेतों के आधार पर पुजारी कह देता है कि ईश्वर और पूर्वज सहमत है। पुजारी की इस सूचना के साथ ही विवाह कृत्य सम्पन्न मान लिया जाता है।
सभी परिवारों में कन्याओं के विवाह होते है। इसलिए कबाइली लोग अपने पूर्वजों की हड्डियाँ और खोपड़ियाँ सम्हाल कर रखते है। इस क्षेत्र में विवाह के बाद उपहार की भी विचित्र परम्परा है। जो व्यक्ति नवदम्पत्ति को उपहार देना चाहते हे वे शाक्र मछली के दाँतों से अपने चेहरे को खुरचते है और उससे निकलने वाले खून को एक कपड़े पर इकट्ठा करते है। यह कपड़ा वर-वधु के पैरों पर रख दिया जाता है। जो सबसे ज्यादा खून निकालता है उसी का उपहार सबसे मूल्यवान समझा जाता है।
सामान्यतः छरहरी और सुगठित बदन की लड़कियाँ सुन्दर समझी जाती है, पर इबों जाति में सुन्दरता का मापदण्ड इससे भिन्न है। वहाँ मोटी स्त्रियाँ सुन्दर समझी जाती है और जो लड़की जितनी मोटी होती है उसे उतनी जल्दी युवक पसन्द कर लेते है। विवाह सम्बन्ध निश्चित हो जाने के बाद कन्या को खूब खिलाया पिलाया और आराम कराया जाता है ताकि उसके शरीर की चरबी बढ़ जाय।’
न्यूगिनी के आदिवासी नव-दम्पति विवाह के तुरन्त बाद घर जाने के स्थान पर जंगल में चले जाते है। होता यह है कि युवक जिस कन्या से विवाह करना चाहता है उसके सम्बन्ध में वह अपने पिता से कहता है। युवक के पिता को यदि अपने बेटे की पसन्द अच्छी लगी तो वह अपने कुटुम्बी के साथ कन्या के पिता के पास जाता है और लेन-देन ठहराने के साथ विवाह सम्बन्ध तय किया जाता है। विवाह के एक दिन पहले वर उपहार सामग्रियों के साथ कन्या के यहाँ जाने की बजाय जंगल मं चला जाता हैं। अगले दिन कन्या अपने घर से ससुराल पहुँचती है और वहाँ एक दिन ठहर कर पति की तलाश करने के लिए अकेली ही जंगल में चल देती है। प्रायः नव-वधु अपने पति को जंगल में खोज लेती है। वे दोनों तब तक जंगल में ही रहते है जब तक कि वधु गर्भवती न हो जाय।
सावधानी यह बरतनी पड़ती है कि इसके पहले दोनों में से कोई भी किसी परिचत व्यक्ति को दिखाई नहीं देना चाहिए। वधु के गर्भवती होने से पहले ही दोनों में से कोई किसाी गाँव वाले को दिखाई दे गया तो विवाह टूट गया मान लिया जाता है। नियत मर्यादाओं को पूरा करते हुए, वधु के गर्भवती हो जाने के बाद दोनों वापस गाँव में आ जाते है और विवाहोत्सव मनाया जाता है। इस उत्सव में वधु को वर पक्ष वालों के सामने अपने सीखें हुए तमाम गुणों का नाच-नाच की कुशल गृहिणी होने का सबूत देना पड़ता है।
सूडान में विवाह की रस्म वर और वधु एक साथ नाच कर पूरी करते है। इस नाच में यद्यपि गाँव के अन्य स्त्री-पुरुष भी भाग लेते है, पर उसमें वर-वधु ही मुख्यतः नायक नायिका होते है। वधु के घर जब वर और उसके साथ आये अतिथि पहुँच जाते है तो नगाड़े की धुन पर खले बाल, अर्धनग्न युवतियाँ नृत्य करती है। नृत्य आरम्भ होने के साथ ही वधु का श्रृंगार किया जाने लगता है। श्रृंगार पूरा हो जाने के बाद वधु के नाचने के स्थान पर पर एक लाल चटाई बिछायी जाती है जहाँ वर को अपनी पोशाक बदलनी पड़ती है। पोशाक बदलने के बाद उस स्थान पर लाल रंग के कपडे़ पहने वधु लबादा ओढे़ आती है। वर उस लबादे को हटाया है।
लबादा हटाने के साथ ही वर-वधु नृत्य करती टोलियों में जा मिलते है और स्वयं भी नाचते लगते है। टोलियाँ बदलती हरती है, पर वर-वधु को तब तक नाचते रहना पड़ता है जब तक कि दोनाँ में से कोई एक थक कर गिर नहीं पड़ता। नाचते-नाचते वधु का गिर पड़ना शुभ समझा जाता है और इसे वधु की वर प र विजय माना जाता है। यह नृत्य समाप्त होने के बाद वधु-वर के साथ अपनी ससुराल चली जाती है।
विवाह की इन विचित्र परम्पराओं के सम्बन्ध में जान पढ़ कर आर्श्चय होना स्वाभाविक है। किन्तु यदि इस विषय पर किसी अन्य देश में कही कुछ लिखा जा रहा होगा तो भारतीय समाज की विवाह परम्पराओं को भी कम विचित्र नहीं कहा जाता होगा। चर्चा कुछ इस प्रकार होती होगी कि भारत में आमतौर पर वर माथे पर जानवर के पंखों, काँच के टुकड़ो या मोतियों और फूलों से बना मुकुट पहनकर घोड़ी पर चढ़ कर वघु के घर जाता है। उसके साथ बहुसे लोग नाचते गाते बैड-बाजा बजाते चलते है। वर-वधु के पिता से उपहार माँगता है उपहार न दिये जाने पर ससुराल में भोजन करने से इन्कार कर देता है। इस प उसकी खूब मनुहार की जाती है। यह वर की इच्छा पर निर्भर है कि वह अपनी माँग वापस ले लेता है अथवा मनवा कर ही रहता है।
उपरोक्त समाजों और कबीलों में इन परम्पराओं का प्रचलन किस उद्देश्य को सामने रखकर क्यों किया गया होगा? यह शोध का विषय है। भारत में विचित्र और निरर्थक परम्पराएँ क्यों प्रचलित हुई तथा किस समय उनकी क्या प्रासंगिकता रही? यह अलग विवेचन का विषय हैं। परन्तु इतना तो स्पष्ट है कि आज उनमें से अधिकाँश अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है और उन्हें चलते रहने देना न केवल उन्नत समाजों के सामने अपनी स्थिति विदूषकों जैसी बनाना है, अपितु आत्म-प्रवचना भी है कि एक ओर तो इस अपनी साँस्कृतिक महानता क गीत गाते रहे तथा दूसरी ओर उन प्रथा-परम्पराओं को बन्दरिया के मरे हुए बच्चे की तरह छाती से चिपटायें रहे।