यह अलभ्य अवसर यों हीन चला जाय

August 1980

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मनुष्य का बचपन खेलने, कूदने, शिक्षा अर्जित करने तथा उज्जवल भविष्य के सपने सजोते में नियोजित रहता है। निर्माण की इस अवधि में आत्म-कल्याण एवं समाज अथवा विश्व-कल्याण की विशेष बात सोचते नहीं बनती। आयु के आरिम्भक बीस वर्ष भावी जीवन की तैयारी में चले जाते है। वृद्धावस्था पचास वर्ष के बाद शुरु होती है। अनुभवों एवं ज्ञान की दृष्टि से इस आयु वाले व्यक्ति अधिक परिपक्व होते है। पर शरीर कमजोर पड़ जाने के कारण न तो उमँग रहती है न ही सत्कार्यों के प्रति विशेष अभिरुचि। आत्म-विकास, लोक-कल्याण की महत्ता समझ में तो आती है, पर शारीरिक असमर्थता, उमंग एवं उत्साह के अभाव में सत्कार्य की इच्छा मात्र कपो कल्पना बनकर रह जाती है और अनुभव अपने स्थान पर रखे रह जाते है। अपवादों को छोड़कर अधिकाँश व्यक्तियों की आयु का उत्तरार्ध पक्ष यो ही बेकार चला जाता है।

जीवन का पूर्व भाग अर्थात् शक्ति तो थी दिशा नहीं थी, सूझ-बूझ नहीं थी, अनुभव नहीं था इसलिए इधर-उधर भटकते रह गये, कोई उल्लेखनीय सफलता किसी ने वाल्यावस्था में प्राप्त की तो ऐसे उदाहरण इतिहास में बहुत ढूँढने से मिलते है, इसी तरह जीवन का उत्तरार्द्ध अर्थात् दिशा थी सूझ-बूझ भी थी, अनुभव भी था किन्तु शक्ति नहीं थी, कल्पनाएँ। असंख्य करते रहे बात एक भी नहीं बनी। साठ सत्तर वर्ष की आयु में किसी ने कोई कार्य प्रारम्भ किया हो और सफलतापूर्वक उसे अपने सामने पूर्ण कर लिया हो ऐसे उदाहरण भी यदा-कदा ढूँढ़ने पर मिल पाये।

आयु का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष होता है-युवावस्थ का। यही वह अवसर होता है जब कि कोई विशिष्ट काय्र किया जात सकता हैं। इस अवधि में जीवनी शक्ति की बहुलता होती है। प्राण तत्व हिलोरें लेता है। भावनाएँ उमँड़ती, घुमड़ती रहती है। उमँगें पर्वत को ठोकर मारने और समुद्र को भी लाँघ जाने का साहस रखती है। सौर्न्दय का प्रस्फुटन होता है। शारीरिक बलिष्ठता एवं मानसिक प्रखरता अपने चरमसीमा पर होती है। शक्ति सामर्थ्य से ओत-प्रोत इस अवधि में ही लोक-मंडल जैसे वे विशिष्ट कार्य किये जा सकते है, जिसके लिए बाल्यावस्था और वृद्धावस्था अक्षम सिद्ध होते है।

पर जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष भी अधिकाँशतः व्यक्तियों का र्व्यथ चला जाता है। युवास्था की सम्पूर्ण शक्ति भौतिक प्रयोजनों की सिद्धि एवं विषय वासनाओं के उपभोग में चली जाती है। अर्थोपार्जन, साधन संचय शरीर एवं शरीर से जुड़ें परिवार के निर्वाह की सीमा तक तो उचित है, पर समस्त क्षमताएँ मात्र इतने के लिए नहीं झोंक देनी चाहिए। युवावस्था का उमंग, उत्साह, शारीरिक वलिष्ठता एवं मानसिक प्रखरता का उपयोग सत्प्रयोजनों, परमार्थ कार्यो के लिए भी अभिष्ट है। सच पूछा जाय तो युवावस्था में ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण आत्म-विकास एवं लोक-कल्याण का कार्य किया जा सकता है। जवानी के जोश को सार्थक करने की बात सोचने वाले युवक उन महापुरुषों से प्रेरणा ले सकते है जिन्होंने अपनी युवावस्था की समस्त सम्पदा को समाज के लिए विश्व-कल्याण के निमित झोंक दिया।

विश्व इतिहास के परदे पर श्रेष्ठतम रोल युवकों का ही रहा है। सामाजिक, राजनैतिक एवं अध्यात्मिक क्रान्तियों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले व्यक्तियों में अधिकाँश की आयु 25 और 50 के बीच ही रही है। भौतिक आकर्षणों से विरत रहने वाले समाज के लिए मानव मात्र के लिए अपना सब कुछ होम देने वाले इन युवकों को कौन भुला सकता? घटना बारह सौ वर्ष पूर्व की है। बौद्ध धर्म के व्यापक प्रसार ने जिस विचारधारा को जन्म दिया उसके प्रभाव से वैदिक संस्कृति का अवसान होने लगा। इस दुःख से पीड़ित कुमारिल भट्ट गंगा तट पर चिता जलाकर आत्माहुति देने की तैयारी कर रहे थे। इतने में एक युवा सन्यासी ने उन्हें इस दारुण कार्य से रोका। वृद्ध का चरण रज मस्तक पर रखकर वेदान्त के पुनर्जागरण का संकल्प लिया। साधन-सुविधाओं के अभाव में भी उसने 32 वर्ष की अल्पायु में ही सम्पूर्ण भारत में वैदिक विचारधारा की धूम मचा दी। 32 वे वर्ष में दिबंगत होने वाले जगतगुरु शंकराचार्य के नाम से विश्व विख्यात उस युवा सन्यासी को कौन नहीं जानता? आज भी भारत के चारों कोनों पर स्थापित चारों धाम उस ऋषि के अनूठे त्याग, बलिदान का बोध कराते है।

40 वर्ष की आयु तक पहुँचते गौतम एक सामान्य राजकुमार से भगवान बुद्धे बन गये थे, स्वा. महावीर द्वारा समाज को महान उपलब्धियाँ पच्चीस और चालीस वर्ष के मध्य ही प्राप्त हो सकीं। तीर्थकर के रुप में विश्व विख्यात होने की आयु युवावस्था ही थी। स्वा. विवेकानन्द मात्र 40 वर्षों तक जीवित रहे। इस अल्पायु में ही भारतीय संस्कृति को उन्होंने विश्व-व्यापी बनायाँ इसके पूर्व तो पाश्चात्य देशों में भारतीय तत्वज्ञान की गौरव गरिमा का बोध भी नहीं था। उनके सहयोगियों में जिन्होंने साँस्कृति पुनरोत्थान में भाग लिया अधिकाँश युवक थे। सिस्टर निवेदिता की महत्वपूर्ण भूमिका भी इसी आयु में आरम्भ हुई थी।

ऋषि दयानन्द के वैदिक अनुदानों को कभी नहीं भुलाया जा सकता। एक समाज सुधारक के रुप में साँस्कृति पुनरोत्थान के रुप में उन्होंने भारतीय समाज को जो दिया उसके समक्ष श्रद्धा से मस्तक झुक जाता है। सभी जानते है कि 55 वर्षों की अल्पायु में दिवंगत हो गये। पर समाज को इतना दे गये जितना कई व्यक्ति जीवन पर्यन्त भी नहीं दे सकते। आर्य समजा आज भी उस ऋषि की ऋचाओं को प्रसारित करने में संलग्न है। अन्ध विश्वासों से जकड़े, धार्मिक भ्रान्तियों में अकड़ें भारतीय समाज के उवारने एवं धर्म के वास्तविक स्वरुप से बोध कराने में ऋषि दयानन्द की असामान्य भूमिका रही है।

महर्षि रमण और योगीराज अरविन्द की कठोर तप अवधि युवाकाल ही रही हैं उनकी उग्र साधनाएँ सूक्ष्ये वातावरण को परिष्कृत करने में असाधारण प्रभावकारी सिद्ध हुई। स्वामी रामतीर्थ युवावस्था में ही अध्यात्म पथ पर उन्मुख हुए। वैदिक धर्म का प्रचार न केवल भारत में वरण अन्य देशों में भी करके अपनी युवा शक्ति को सार्थक किया। भारत ही नहीं विदेशी अध्यात्मवेत्ताओं के महत्वपूर्ण कार्य की अवधि यौवन काल ही रही है। सेन्टपाल, आगस्टाइल, कन्फ्यूशियस, अरस्तू, सुकातल ने धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य आयु के मध्य काल में किए। शरीर, मन की बलिष्ठता एवं प्रखरता अन्तःउमंग एवं उल्लास सतत् समाज सेवा के कार्यों में निरत रहाँ फलतः उनकी श्रद्धामय स्मृति आज भी जन-मानस के पटल पर बनी हुईं

आध्यात्मिक ही नहीं राजनैतिक क्षेत्र में भी सराहनीय और स्मरणीय भूमिका युवकों ने ही निभाई है। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम युवकों के बलबूते ही लड़ा गयाँ क्रान्तिकारियों में भगतसिंह आजाद, बिस्मिल, सुभाष ने अपनी क्षमता को स्वतंत्रता आन्दोंलन में झोंक कर जो उदाहरण प्रस्तुत किया उन्हें स्मरण कर अब भी रोमाँच हो आता है। उनक त्याग, बलिदान के समक्ष नत-मस्तक हो जाना पड़ता है। अहिंसक क्रान्ति में आस्था रखने वाले महात्मा गाँधी समर्थक पटेल, तिलक, नेहरु, मालवीय स्वतन्त्रता सेनानी युवक थे। यह युवा उफान ही था जिससे अंग्रेजों को भारत छोड़कर भागना पड़ा। यदि वे मोहग्रस्त, भौतिक आकर्षणों में लिप्त रहते तो पराधीनता की बेंड़ियाँ टूटनी सम्मव नहीं थी। बाजुओं में फड़कता, सीने में उभरता, चेहरे से प्रस्फुटित होता यौवन व्यक्तिगत स्वार्थों में जकड़ा न रह सका। वह उछल कर बाहर आया और तनकर पराधीनता की बेड़ियों को तोड़ने के लिए खड़ा हो गया। फलतः अभीष्ट सफलता मिली न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम वरन् विश्व की हुई महत्वपूर्ण राजनैतिक एवं आध्यात्मिक क्रान्तियाँ युवा शक्ति की दास्तानें हैं जिसके इतिहास में युवा शक्ति ही उछलती, कूदती एवं अभीष्ट परिवर्तन की भूमिका निभाती दृष्टिगोचर होती हैं।

विश्व के प्रखर वैचारिक अनुदान देने वाले विचारकों, मनीषियों एवं वैाज्ञनिक उपलब्धियों से लाभान्वित कराने वाले वैज्ञानिकों ने युवाकाल में उल्लेखनीय कार्य किये है। प्रजातन्त्र की नींव रखने वाले रुसों एवं साम्यवाद को जन्म देने वाले कार्लमार्क्स की सफलता का रहस्य बीस और पचास वर्ष के मध्य की -वैचारिक साधना ही रही है जो कालान्तर में सशक्त विचारों के रुप में विश्व के सामने प्रस्तुत हुईं भौतिक विज्ञान के मूर्धन्य वैज्ञानिक हक्सले हाइजन वर्ग, वटरवर्थ, परमाणु उर्जा के विशेषज्ञ भाभा ने महत्वपूर्ण शोधें पचास वर्ष की आयु के पूर्व ही पूरी की है। नये जीन का निर्माण करने वाले जीवविज्ञानी डाँ. हरगोविन्द खुराना, इन्सुलिन के आविष्कार बेन्टिग एण्ड बेस्ट, कैंसर पर महत्वपूर्ण शोध करने वाले के. यामा गीवा, फर्स्ट एड के जन्मदाता जे. स्मार्ट की उपलब्धियों की अवधि आयु का यह मध्य काल ही रहा है। ‘हयूमन एनाटामी’ के आविष्कारक हेनरी गे्र ने तो मात्र 25 वर्ष से 31 वर्ष के मध्य में वह कार्य किया जिस पर समस्त एलोपैकिक चिकित्सा विज्ञान आधारित हैं

समाज को अपने महत्वपूर्ण योगदान से लाभान्वित करने वाले अध्यात्मवेत्ताओं, मनीषियों, विचारको एवं मूर्धन्य वैज्ञानिकों का कर्यकाल अविधि युवावस्था ही रही है। शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक शक्ति का सही दिशा में नियोजित करने की यही उपयुक्त आयु होती है। सत्कार्य में लगाया जाय-आत्म-कल्याण, लोक-कल्याण साधा जाय अथवा विषय-भोगों में यो ही गँवा दिया जाय, यह मनुष्य के विवेक उपर निर्भर करता हैं स्वभावतः मानवी प्रवृत्त्यों पतनोन्मुख होती हैं युवावस्था की उमंगों में भावनाओं का व्यतिरेक रहने के कारण सरल मार्ग ही सूझता हैं। कष्टसाध्य परमार्थ का लोक सेवा का मार्ग दुरुह एवं अरुचिकर जान पड़ता हैं लम्बे समय तक आत्म-साधना का मार्ग कष्टसाध्य मालूम पड़ता हैं। इस चिन्तन के फलस्वरुप कोई बड़ा कदम उठाते नहीं बनता। त्याग, बलिदान से भरे लोकसेवा के कार्य में प्रत्यक्ष और तुरन्त का लाभ मिलते देखकर अधिकाँश व्यक्तियों का युवाकाल यों ही पेट और प्रजनन जैसे सामान्य प्रयोजनों को पूरा करने में चला जाता हैं जबकि अधिक महत्वपूर्ण कार्यो के लिए साहस भरे कदम उठाने की यही आयु होती है। यो तो श्रेष्ठ लोक-कल्याण के कार्यों के लिए आयु का कोई बन्धन, नहीं है। न ही यहाँ इसका प्रतिपादन किया जा रहा है, वरन् जीवन का वास्तविक सत्यों का उद्घाटन किया जा रहा है जो सैद्धान्तिक कम व्याहारिक अधिक हैं

पारिवारिक जीवन में रहते हुए दायित्वों का निर्वाह करते हुए इस ओर कदम बढ़ाया जा सकता। परिवार सद्मार्ग का रोड़ा नहीं है। वृद्धावस्था आये-सभी उत्तरदायित्वों में मुक्त हो जाने पर परमार्थ की ओर उन्मुख होगे यह सोचते रहने की अपेक्षा सभी से अपनी क्षमता, प्रतिभा, श्रम एवं समय का एक अंश लोकसेवा के कार्यों में आसानी से नियोजित किया जा सकता है इससे स्वार्थ भी सधेगा और परमार्थ भी। लोक बनेगा। और परलोक भी। आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण का दुहरा प्रयोजन पूरा होगा। शक्ति सामर्थ्य से ओत-प्रोत जीवन की मध्यायु का सदुपयोग इस श्रेष्ठतम प्रयोजनों में होन चाहिए। जिन पर पारिवारिक दायित्व न हो अथवा आरम्भ से ही जिन्होंने नहीं ओढ़ा हो वे तो शरीर निर्वाह के लिए सीमित उपार्जन के अतिरिक्त अपने सम्पूर्ण समय, श्रम एवं प्रतिभा को सत्कार्यों में नियोजित कर सकते है। जीवन का यह अलभ्य अवसर कही यो ही न चला जाय। वृद्धावस्था में असमर्थता का रोना रोना पडे़- आत्म-प्रताड़ना सहनी पडे़ इससे अच्छा यह कि शक्ति से भरपूर अमूल्य अवसर का सदुपयोग हों युवावस्था की सार्थकता भी इसी सत्प्रयोजन को पूरा करने में सन्निहित है।


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