दोष मत दीजिये “कैच” ठीक करिये

August 1980

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सन् 1940 की बात है। अमेरिका की मिनीसोटा यूनिवर्सिटी में दो छात्र अध्ययन के लिए प्रविष्ट हुए। छात्र थे श्री केलर और छात्रा का नाम था कुमारी मेरियन। मनोविज्ञान सम्भवतः सृष्टि का सर्वोपरि जटिल विषय है। फायड की तरह पूर्वाग्रह ग्रस्त हो तब तो प्रतिभा सम्पन्न विद्वान भी लोगों को दिक्भ्रान्त करके छोड़गा, पर तथ्यान्वेषण का गुण किसी में सच्चाई से जागृत हुआ हो, भारतीय संस्कृति के प्रत्येक पक्ष-पहलू को प्रत्येक कसौटी पर सत्य-सिद्ध देखा जा सकता है।

विद्यार्थी जीवन में श्री केलर और कुमारी मेरियन में सिद्धान्त निष्ठ घनिष्ठता बढ़ने लगी। दोनों अनेक गूढ़ मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर परामर्श किया करते दोनों ने कोई बड़ा कार्य करने का निश्चिय किया। इन्द्रियजन्य दुर्बलता ने कई बार उन्हें भी घेरे में लेने का प्रयत्न किया किन्तु उन्होंने मुनष्य जाति को इस शाश्वत दर्शन-मनुष्य न तो भला है न बुरा, वह जैसा भी कुछ है वातावरण की-प्रशिक्षण की देन है, परिचित कराने का संकल्प ले लिया था अतएवं उन्होनें उस पाश से अपने को मुक्त रखा। संकल्प जपी और इन्द्रिय निग्रही व्यक्ति ही कुछ असाधारण करने का श्रेय प्राप्त करते है इस निश्चिय के साथ उन्होंने अमेरिका के अक्रन्सास में 260 एकड़ की एक विलक्षण पाठशाला बनाई। लोकमर्यादा की दृष्टि से उन्होंने परस्पर विवाह भी कर लिया सन्तान भी उत्पन्न की किन्तु इतनी नहीं कि एक बच्चे को माता-पिता के प्यार के लिए दूसरे के प्रति ईर्ष्या का शिकार होना पड़ा हो। उसकी अपेक्षा उन्होने इस फार्म में परीलोक जैसा स्वरुप प्रदान किया। विभिन्न श्रेणी के लगभग 5000 जीव-जन्तुओं की उन्होने पाठशाला स्थापित की और प्रारम्भ से ही उनके शिक्षण का कार्य प्रारम्भ कर यह दिखाया कि मनुष्य और पशु-पक्षियों में जन्म-जात अन्तर कुछ भी नहीं है- दोनों में एक सी चेतना विद्यमान है उसे चाहे जिस वातावरण में गलाया और ढाला जा सकता है। अपने बच्चों पर ही नहीं समूची मनुष्य जाति पर दुर्गणी होने का दोष लगाने वाले से यह पूछा जाना चाहिए कि उसने संस्कारवान् जीवन की संरचना के लिए कुछ प्रयत्न किया क्य? यदि नहीं तो उसे छिद्रान्वेषण का कतई अधिकार नहीं। प्रयत्न और प्रशिक्षण विहीन वातावरण में ढले व्यक्ति भी पशु-प्रवृत्ति में जकड़े रहे तो इसके लिए वही दोषी नहीं अपराधी वह है जिन्होंने उन्हे जन्म दिया, वातावरण दिया।

ब्रेलैझड दम्पति के इस फार्म में लोमड़ी, गिलहरी, बिल्ली, चूहे, चूजे, नेबले, सुअर, बन्दर आदि विभिन्न स्वभाव, आहार बिहार और अभिरुचि वाले जीव-जन्तुओं की भरती प्रारम्भ की। उनकी नियमित कक्षाये चलने लगी। इन दिनों इसने विश्व विद्यालय का सा रुप ले लिया है और उसमें रह गये जीवों की संख्या दस हजार से उपर हो गई है। प्रशिक्षण के विषयों में जहाँ उनकी बौद्धिक प्रतिभा का विकास सम्मिलित है वही उनके प्रकृतिजन्य स्वभाव के ठीक विपरीत उन गुणों का सम्बन्ध भी सम्मिलित है जो जीव विशेष की प्रकृति से बिलकुल भिन्न और विलक्षण हो।

उनके कार्य में आप देखगे कि घरेलू नौकर के सभी कार्य उनके प्रर्शििक्षण पशु करते है जिसकी आप को कल्पना तक न हो। उदाहरणार्थ प्रशिक्षित सुअरिया उनके गन्दे कपड़े इकट्टे करके लान्ड्री के धुलने के लिए डाल आती है। उनकी चौकीदार का काम जो सामन्यतः कुत्ते करते है, वह काम एक भेड़ करती है, उसको ऐसा प्रशिक्षित किया मानो वह कुत्ता ही हो। जैसे कुत्ता मनुष्य के साथ-साथ खाता है, वैसे ही भेड ब्रेलैण्ड दम्पत्ति के साथ खाती है। उन्होंने लोमड़ी को ट्रेन्ड किया जो अंगूरों के लिए उछला करती है। (पीरपोयज) मछलियों को ‘कैच’ करना सिखाया, नेवले को गेंद फेंकना सिखया और खरगोश को बच्चों वाली बैक में पैसे डालना सिखाया। रुस के प्रसिद्ध मनोविज्ञानी ‘पैवलाव’ के ‘कन्डीशन्ड रेंफजैंस’ सिद्धान्त का उपयोग प्राणियों को प्रशिक्षित करने में किया जाता है।

ब्रेलैण्ड ने एक स्वसंचालित ‘फीडर’ बनाया। बटन दबाने से घण्टी बजती है और उसके साथ-साथ कुछ खाने की चीज निकलती है। घण्टी बजते ही खाने की वस्तु मिलना-इन दो चीजों की चूजों के दिमाग में ताल बैठाना पहला काम है। चूजों को बोतल के पास जाकर टक-टक करना सिखाने के लिए उन्होंने पहले घण्टी बजाई खाना निकाला और ‘चिकेन’ भाग कर खाना खाने गया उसके कुछ और चाहिए था इसलिए वह ठहर गया, जैसे ही वापस होने के लिए मुड़ा, बटन दबा दिया और वह दुबारा खाने के लिए दौड़ पड़ा। दूसरी चीज उसने यह सीखी जब तक पीछे नहीं मुडे़गा, तब तक खाना नहीं मिलेगा। फिर उसने धीरे-धीरे चूजे को बोतल की ओर जाना सिखाया पहले बोतल की दिशा में एक पग बढ़ाया तभी बटन दबा दिया, दुबारा कुछ अधिक पग चला तो बटन दबाया और क्रमशः इसी प्रकार बोतल की ओर चलने की बात उसके दिमाग में बैठाई गई। इस प्रयोग से ‘चकेन’ के मस्तिष्क में यह बात जमाई गईं कि खाना अचानक नहीं मिलता, विशेष प्रकार का काम करने से मिलता है। आखिर में वह बोतल तक पहुँचने के बाद जैसा कि उसका स्वभाव होता है बोतल पर एक बार टक करने पर खाना दिया गया, फिर दो बार टक करने पर खाना दिया गया। 15 मिनट तक प्रयास करने के बाद खाली बोतल को देखते ही उसको खाना मिलेगा। यह बात उसके दिमाग में बैठ गई और जब तक बोतल के पास जाकर इच्छित संख्या में टक-टक न कर लेता तब तक उसे चैन नहीं मिलता था।

प्राणियों को प्रशिक्षित करने में सफलता प्राप्त करने का यह मूल सिद्धान्त है। फिर तो चिड़ियाघरों में, मेलों में, प्रदर्शनियों में एवं टेलीविजन पर कार्यक्रम देने के लिए ब्रेलैण्ड दम्पत्ति को बुलाया जाने लगा और अन्ततः उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की।

बे्रलेण्ड दम्पत्ति ने विभिन्न प्राणियों के साथ किये गये विभिन्न परीक्षणों से यह पता लगाया है कि मनुष्य की अपेक्षा अन्य प्राणी बुद्धि तत्व का विकास न होने पर भी चतुरता में पीछे नहीं है। अगर पशुओं के प्रशिक्षित करने से उनकी प्रसुप्त क्षमता उभर सकती है तो मनुष्य की प्रसुप्त शक्तियों की जागरण की कितनी अकल्प्य सम्भावना हो सकती है।

रीडर्स डाइर्जस्ट के नवम्बर 1957 अंक में इस विलक्षण पाठशाला के प्रत्यक्षदर्शी जर्मन विद्वान इरा-बुलफर्ट ने अपनी साक्षी-प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि धरती का हर व्यक्ति न्यूटन, आइन्स्टीन, हम्फ्रीडैबी यूक्लिड मडाम क्यूरी, नील्सवोहर और कूले और वैज्ञानिक, नैपोलियन बोना पार्ट, नेल्सन, राणा प्रताप, शिवाजी और जानआँफ आक्र की तरह का देशभक्त, वीर योदा, सुकरात, नीत्से, सन्त फ्रान्सिस अरस्तू, जरथुस्त्र, कन्फ्युसस इमर्सन स्वाईत्जर, बुद्ध, ईसा और महात्मा गाँधी जैसा विचारक, कालिदास, शेक्सपियर और बैंजामिन फ्रैंकलिन जैसा साहित्कार बन सकता है तथ्य एक ही है कि उसे प्रशिक्षण मिले-वातावरण मिले-इस सत्य को यह अजायबघर देख कर कोई भी स्वीकार से इन्कार न करेगा।

“मैंने एक सफेद, स्वस्थ एवं सुन्दर चूजे से पूछा, ‘21 को 7 से’ भाग देने पर क्या मिला है?’ उसने अपनी चोंच से तीन बार टक-टक करके उत्तर दिया ‘3’।

दूसरा प्रश्न पूछा गया कि 16 का वर्गमूल कितना होता है, टक-टक से जवाब मिला ‘चार’। आप सोचेगे कि क्या यह र्बुिद्धमान चूजा थाद्य नहीं यह तो एक ‘टिक’ है। आर्श्चय की बात तो यह है कि चूजे को यह बात सिखाने के लिए मूझे केवल 15 मिनट लगे ऐसा केलर मेरियन ब्रेलैण्ड दम्पत्ति पशु-शिक्षक ने कहा है। पिछले 10 वर्षों में उन्होने 28 विभिन्न जातियों के 5000 पशुओं को प्रशिक्षित किया है। ऐसे करते हुए जिन्होंने पशु-मनोविज्ञान के अनेकों तथ्य खोजे है जिनका उपयोग करके कोई भी अपने पालतू पुशओं को ही नहीं मनुष्य को भी प्रशिक्षित कर सकता है।

इस तथ्य का ठीक विरोधी पक्ष यह है कि यदि मनुष्य को वातावरण ही पुशओं का-सा मिले तब तो वह वैसा बनेगा ही। सन् 1857 में उत्तर प्रदेश के बुलन्द शहर जिले के जंगलों में एक शिकारी दल ने लगभग 8 वर्षीय बालक ‘दीना शनीचर’ पकड़ा था। शनिवार के दिन पकड़े जाने के कारण उसको ‘दीना शनीचर’ के नाम से सम्बोधित किया गया। उसे आगरा के समीप सिकन्दरा के ईसाई मिशन अनाथालय में ले जाया गया। 1873 में भारतीय भू-सर्वेक्षण के वैज्ञानिक बी. बाल ने उसका पूरी तरह निरीक्षण किया तथा उसके क्रिया-कलाप भेडियें जैसे पाये। बहुत प्रयास करने पर भी वह लिखना, पढ़ना, बोलना नहीं सीख सका। 29 अक्टूबर 1865 को टी. बी. रोग से उसकी मृत्यु हो गई।

मथुरा के जंगलों में एक अँगेंज अधिकारी ‘टामस स्मिथ’ ने 1905 ई. ‘मानसिंह’ नामक एक अद्भुत भेड़िया बालक को भेड़ियों के चुगल से निकाला था। वह बहुत कठिनाई से सामान्य जीवन जीना सीख पाया, कुछ शब्द भी वह बोलने लगा था। बहुत प्रयत्न करने पर वह कुछ गीत भी गाने लगा था किन्तु अन्ततः वह पूर्ण मनुष्य नहीं बन पाया, जीवन की काफी अवधि तक रहने पर 1960 में 65 वर्षों की आयु में अलीगढ़ के समीप बन्ना देवी मुहल्ले में रेवरेंड नोबलडेविड के यहाँ उसकी मृत्यु हो गई।

इसी प्रकार आगरा जिले के नगला नामक गाँव के बाबूलाल जाधव 1॥ वर्ष के ‘परशुराम’ नाम के बच्चे को मई 1950 में भेडियें उठा ले गये थे। अप्रैल 1957 में उत्तर प्रदेश के खंडौली के जंगलों में सैनिकों ने उसे पकड़कर फीरोजाबाद अस्पताल में भरती करा दिया था। शिकागों विश्वविद्यालय के प्रो. विलियम एफ. ओगवर्न ने ‘परशुराम’ की जाँच करके बताया कि मादा-भेड़िया अपने बच्चों के खो जाने या मर जाने के कारण वात्सल्य भावना की तृप्ति के लिए उसका पोषण करने लगी। उसकी चिकित्सा के लिए उन्होंने सुझाव दिया परन्तु परशुराम के माता-पिता ने अस्वीकार कर दिया नया 1930 में ही उसकी भी चेचक से मृत्यु हो गई।

सन् 1954 में लखनऊ के सरकारी अस्पताल के ‘राम’ नामक भेड़िया बालक को विश्व भर के लोगों का आकर्षण केन्द्र बन गया। लन्दन स्कूल आँफ ट्राँपिकल मेडीशिन के सर फिलिप मेन्सन-बार ने ‘राम’ की अच्छी तरह जाँच करके बताया कि उसमें भेड़िये के गुण और लक्षण थे तथा उसे मानवी संस्कार दिया जाना सम्ीव न हो सका। मिरगी के दौरों से अप्रैल 1968 में वह मृत्यु का ग्रास बन गया।

अभी कुछ दिन पहले लखनऊ के मदर टेरेसा के ‘होम फार डाईगं डेस्टीट्यूट्स’ में ‘भालू नामक एक जंगली बालक सुल्तानपुर के जंगलों से पकड़ कर लाया गया। मदर टेरेसा के ‘प्रेम-निवास’ में उस भालू बालक का नाम ‘पास्कल’ रख लिया गया हैं प्रारम्भ में वह भालू जैसे विचित्र ढ़गं से चला था और गुर्राता था, परन्तु अब वह नौ वर्षीय ‘पास्कल’ दाल-भात खाने लगा है तथा कपडे़ भी पहनना पसन्द करने लगा है। कहा जाता है कि इस अनाथ बालक को वात्सल्य भावनामयी मादा भालू ने अपना स्तन-पान कराके पाला। यही बालक आज नोबुल पुरस्कार प्राप्त मदरटेरेसा के आश्रम के प्राँगण में उछलता, कूदता, खेलता है।

कुछ भी हो भेड़िये, भालू भी वात्सल्य स्नेह-दुलार से रहित नहीं है वर्तमान में मनुष्य ही इन दिव्य भावनाओं से रिक्त होता जा रहा है तथा अपनी मानवीय गरिमा को खोता जा रहा है।

दक्षिण और बाम-जीवन के दोनों ही पक्ष है दोनों की जिम्मेदारी आज के मनुष्य समाज पर है, वह चाहें तो दैवी प्रकृति के मनुष्य विकसित करने वाला संस्कार सम्पन्न वातावरण भी बना सकता है और अपराधी आसुरी परिस्थितियाँ भी। यह अलग बात है कि उसके अच्छे बुरे परिणाम भी उसे और आने वाली पीढ़ी को भुगतना ही पडे़गा। अच्छा हो ब्रेलैण्ड दम्पत्ति की तरह हम भी आने वाली पीढ़ी को सुयोग्य नागरिक बनाने का महान कार्य सम्पन्न कर आज की नारकीय परिस्थितियों को स्वर्गीय वातावरण में बदलने का पुण्य प्राप्त करे।


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