प्रकृति का गला न घोट दिया जाय

August 1980

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असन्तुलन प्रत्येक क्षेत्र में घातक सिद्ध होता हैं प्रकृति की सुव्यवस्था भी सन्तुलन पर ही टिकी हुई है। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि प्रकृति के प्रत्येक घटक जीव-जन्तु, वनस्पति, वायु एवं जल का एक दूसरे से अन्योयाश्रित सम्बन्ध है। एक ही विकृति जुडे़ हुए अन्य घटकों को प्रभावित करती हैं। इसमें आपसी सन्तुलन से ही प्रकृति का गतिचक्र ठीक प्रकार चलता तथा उसके अनुदानों का लाभ समुचित मात्रा में मिल पाता हैं।

इन दिनों पर्यावरण में भारी असन्तुलन पैदा हुआ है। फलस्वरुप प्रकृति प्रकोपों की बहुलता देखी जा रही है। इसे समझा तो दैविय अभिशाप के रुप में जा रहा है, पर है वस्तुतः मानव द्वारा रचित। क्रिया की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। प्रकृति विपदाएँ मनुष्य की स्वयं के क्रिया कृत्य की परिणिति हैं उत्पादन के नाम पर औद्योगीकरण के प्रति जो उत्साह चल रहा है उससे तात्कालिक लाभ तो दिखाई पड़ रहा है, पर जब दूरगामी परिणामों पर ध्यान देते है तो पता चलता है कि अति उत्साह का क्रम अन्ततः हानिकारक ही सिद्ध हुआ।

पर्यावरण के सन्तुलन में वृक्षों का भारी योगदान हैं पौधे प्राणी जगत के जीवन का स्त्रोत है। एक ओर जहाँ प्राणियों के लिये आहार जुटाते, जीवन प्रदान करते है। वही दूसरी ओर वायु मण्डल की विषाक्त गैस कार्बन डाई आँक्साइड को वायु मण्डल से खींच लेते है। प्राणी समुदाय के लिए वे सच्चे हित चिन्तक है। इसमें पाया जाने वाला क्लोरोफिल जीवन का स्त्रोत है। माँसाहारी अथवा शाकाहारी सभी मूलतः आहार हरे पौधों, वनस्पतियों से प्राप्त करते है। इन दिनों औद्योगिक विकास एवं अन्य कार्यों के लिए तेजी से वन सम्पदा को नष्ट किया जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि पर्यावरण सन्तुलन को बनाये रखने के लिए किसी देश का एक तिहाई भाग पेड़ पौधों से भरा-पूरा होना चाहिए। प्राप्त आँकड़ों के अनुसार भारत में 257 प्रतिशत भाग वनों से आच्छादित है जो पर्यावरण सन्तुलन सीमा रेखा से दस प्रतिशत कम हैं अन्य देशों की स्थिति और भी बुरी है। प्राकृतिक वन सम्पदा में कमी होने से जो विभीषिकाएँ उत्पन्न हुई है उनकी रोकथाम के लिए पिछले दिनों दिल्ली में विश्व के प्रमुख 700 वैज्ञानिकों की गोष्ठी हुई। जिसमें उपस्थित विशेषज्ञों ने प्राकृतिक सम्पदा के संरक्षण के लिए एक विश्व नीति तैयार की है। सम्मेलन में उपस्थित प्रकृति तथा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय संघ के महानिर्देशक डाँ. देविडमनरी ने कहा कि- "आने वाली हजारों पीढ़ियों के कल्याण के लिए प्राकृतिक सम्पदा के संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

एक ओर वन सम्पदा में भारी कमी आई है। दूसरी ओर औद्योगीकरण बढ़ता जा रहा हैं इससे उत्पादन तो बढ़ रहा है, किन्तु पर्यावरण सन्तुलन के आवश्यक घटक वायु एवं जल में विषाक्तता भरती जा रही है। परिवर्धन के प्रति उत्साह एवं परिशोधन की उपेक्षा से प्रदूषण एक विभीषिका के रुप में प्रस्तुत हुआ है। एक आँकड़ें के अनुसार अमेरिका में मोटरें हर दिन ढाई लाख टन विषैला धुँआ उगती है। फ्रान्स के पावर स्टेशनों से प्रति वर्ष 200,000 टन सल्फर डाई आक्साइड वायु में मिल रही है। न्यूयाक्र में हर साल 15 लाख टन सल्फर डाई आक्साइड हवा को विषाक्त बना रही है। एक व्यक्ति को प्रतिदिन 14,000 लीटर शुद्ध हवा चाहिए। जो इन स्थानों पर अप्राप्त है।

प्राप्त आँकड़ें के अनुसार संसार में लगभग 20 करोड़ मोटर वाहन सड़कों पर है। 1000 किलो मीटर चलने के लिये एक कार को जितनी आँक्सीजन चाहिए उतनी एक मनुष्य को एक वर्ष तक साँस लेने के लिए पर्याप्त है। प्रकृति का स्त्रोत सीमित है। मोटर वाहनों द्वारा आँक्सीजन के इतने बड़े भाग के खपत से वायु में इसकी मात्रा की कमी हो जाना स्वाभाविक है। प्राणियों एवं वनस्पतियों के लिए उपलब्ध प्रकृति गत आँक्सीजन का एक बड़ा भाग यों ही बेकार चला जा रहा है। उल्टे इन वाहनों से विषाक्तता और बढ़ रही हैं। जिसके परिशोधन के लिए कोई प्रयास नहीं चल रहा हैं। करोड़ों टन विष गैस के रुप में प्रति वर्ष वायु मण्डल में मिल रही है। जल की भी यही स्थिति हैं उद्योगों, कल-कारखानों से निकलने वाला कचरा नदी के जल स्त्रोतों को इस योग्य नहीं छोड़ रहे है कि उनका उपयोग कर स्वस्थ रहा जा सके।

तीसरा असन्तुलन जनसंख्या का है। अब तक विश्व की जनसंख्या 450 करोड़ के निकट जा पहुँची है। सन् 1965 में विश्व की जनसंख्या 350 करोड़ थी। प्रत्येक 14 वर्षों में 100 करोड़ की वृद्धि हो रही है। इस प्रकार 50 वर्षों में यह संख्या दुगुनी हो जायेगी। प्रकृति साधन सीमित है और उपभोगकर्ताओं की संख्या दिन प्रतिदिन तेजी से बढ़ती जा रही हैं। अधिक उत्पादन के लिए अदूरदर्शी रीति-नीति अपनाई जा रही है अन्न प्राप्त करने के लिए कृत्रिम रासायनिक खादों से लेकर अन्य भौतिक साधन बढ़ाने के लिए बड़े उद्योंगों के निर्माण से तात्कालिक लक्ष्य की आपूर्ति तो सम्भव है, पर अन्ततः इसका प्रभाव प्रकृति सन्तुलन पर पड़ रहा है। एक ओर वन सम्पदा को काटा जा रहा है। दूसरी ओर उद्योगों से निकलने वाली विषाक्तता से स्वच्छ वायु एवं जल अप्राप्त हो गया है।

छेड़छाड़ का यह उपक्रम प्रकृति के स्थूल पक्षों तक ही सीमित नहीं है, वरन् सूक्ष्य परतों में भी घुस कर किया जा रहा है। परयाव्विक परीक्षण से निकलने वाला विकिरण मानव जाति के लिए संकट सिद्ध हुआ है। दूसरा संकट नवीन प्रयोगों से उभर रहा हैं। जीवन का स्त्रोत है कोशिकाओं के केन्द्रक में मौजूद डी.एन.ए.। डी.एन.ए. के हेर-फेर से ही प्राणियों की एवं वनस्पतियों की आकृति एवं प्रकृति नियन्त्रित होती है। इनके गुण धार्मों में भिन्नता का कारण डी.एन.ए. है। जीव विज्ञान की नई शोधों द्वारा यह सम्भव हो गया है कि दो सूक्ष्य जीवों के डी.एन.ए. को मिलकर एक तीसरे किस्म का जीव तैयार करना। नवीन प्रयोगों के प्रति उत्साह होना स्वाभाविक हैं पर अशंका यह है कि कहीं प्रयोग से कोई ऐसा जीव न पैदा हो जाय जो भयानक रोगाणु हो। इस सम्भावना से पूर्णतया इन्कार नहीं किया जा सकता। इन दिनों जेनेटिक इन्जीनियरिंग द्वारा महामानवों, अतिमानवों की नई सन्तति तैयार करने की कल्पना भी चल रही है। इस प्रकार के प्रयोग प्रकृति व्यवस्था के प्रतिकूल है। जीव प्रकृति पर इसका बुरा प्रभाव पडे़गा।

इन सबका सम्मिलित प्रभाव पर्यावरण पर पड़ा है। प्रकृति का इकोलाजिकल ‘वैलेन्स’ डगमगा गया है। फलतः इसकी प्रतिक्रिया प्रकृति विक्षोभों, प्रकोपों के रुप में परिलक्षित हो रहा है। स्वीडिशसेस मोलाजिस्ट प्रो. मारकस भट्ट के अनुसार पर्यावरण के असन्तुलन से बाढ़ एवं भूकम्प की घटनाओं में वृद्धि हुई है। प्राप्त आँकड़ों के अनुसार भू-स्खलन से पिछली दशाब्दी में 4 लाख व्यक्तियों की मृत्यु हुईं सन् 1976 में चाइना के तागसेन में हुए भू-स्खलन में दो लाख 42 हजार व्यक्तियों की जाने गईं 31 मई 1970 को पेरु में हुए भू-स्खलन से 70 हजार व्यक्ति मृत्यु की गोद में समा गये। टर्की में सन् 1970 में 11 हजार व्यक्ति मरे। 12 अगस्त 1979 को मोरवी में आयी बाढ़ से 25 हजार व्यक्ति मात्र 75 मिनट में काल के गर्भ में समा गये। यह प्रकृति विक्षोभ पर्यावरण असन्तुलन का ही अभिशाप है। सन्तुलन बनाये रखने के लिए मनुष्य को प्रकृति से छेड़छाड़ बन्द करनी होगीं वातावरण में भरी विषाक्तता को परिशोधन के लिये हर सम्भव प्रयास करना होगा। वन सम्पदा के कटाव को रोकना होगा। अन्यथा कु्रद्ध प्रकृति का आक्रोश अगले दिनाँ और भी भयकर रुप से बरसेगा। समय रहते-भूतकाल की भूल से प्रेरणा लेकर मनुष्य जाति को अपनी गतिविधियों में हेर-फेर करना अभीष्ट हो गया है।


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