धर्म-कर्म के चरण बढे़ है, धरती पर इंसान के।सदियों के पश्चात आज फिर, स्वर गूँजे निर्माण के॥
धरती अननी, अंबर अपना।सूरज-सा हम सबको तपना॥कर्म-मंत्र जीवन भर जपना।पूरा होगा नव युग सपना॥मंगल घट रखना है घर-घर, प्रेम त्याग सद्ज्ञान के।सदियों के पश्चात् आज फिर, स्वर गूँजे निर्माण कें।
संकल्पों ने ली अँगड़ाई।जागी आत्म ज्ञान तरुणाई॥पुरश्चरण की बेला आई। झूम उठी आशा अमराई॥खुलते जाते नये क्षितिज्ञ अब, ज्ञान और विज्ञान के।सदियो के पश्चात् आज फिर, स्वर गूँजे निर्माण के॥
श्रम संयम का सौरभ उड़ता।दूर हुई जीवन की जड़ता॥लेकर ज्ञान मशाल हाथ में।मिला कदम से कदम साथ में॥परिजन बंद कपाट खोलते, अंधकार अज्ञान के।सदियों के पश्चात् आज फिर, स्वर गूँजे निर्माण के॥
उँच-नीच का रहा न अंतर।करनी कथनी एक बराबर॥पथ अनेक, एक है मंजिल।कण-गण में वसता प्रभु अविकल॥फूट रहे है अभिनव अंकुर, भक्तिभाव सद्भाव के।सदियो के पश्चात् आज फिर, स्वर गूँजे निर्माण के॥
आदर्शों की फसल न सूखे।रहे न जग में कोई भूखे॥समता भाव हृदय में जागे।गले लगाये बढ़कर आगे॥परहित में जो अर्पित रहता, वही निकट भगवान के।सदियों के पश्चात् आज फिर, स्वर गूँजे निर्माण के॥
*समाप्त*