ग्रहों के प्रभाव का लाभ उठायें

August 1980

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अपने पुरुषार्थ के बलबूते मनुष्य परिस्थितियों का सृजन कर सकता है। यह मान्यता एक सीमा तक ही सच है। सृष्टि के प्रत्येक घटक एक-दूसरे से अभिन्न रुप में जुडे़ हुए है। उनकी अलग-अलग परिस्थितियाँ है। पर अविच्छिन्न अंग होने के कारण एक की स्थिति का दूसरे के ऊपर प्रभाव प्रड़ता है। मनुष्य का भौतिक प्रयास अपने समीपवर्ती वातावरण को अनुकुल बनाने में समर्थ हो सकता है। यह सच तो है किन्तु अन्य ग्रहों के प्रभावों से भी वह नहीं बच सकता। भौतिक प्रयत्नों द्वारा अन्तः ग्रही प्रभावों का रोका जा सके, यह सम्भव नहीं है। इन अर्थो में उसका भाग्य समष्टि के साथ जुड़ा हुआ है। ग्रह-नक्षत्रों के कुप्रभावों को रोकने के लिए व्यक्तिगत भौतिक प्रयासों की तुलना में सामूहिक अध्यात्मिक पुरुषार्थ ही अधिक सफल एवं समर्थ होते है।

अमेरिकी परमाणु ऊर्जा आयोग की अलवुक्र के स्थित साँड़िया प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने यह जानने के लिए कि सौर-मण्डल की गतिविधियों का पृथ्वी पर क्या प्रभाव पड़ता है, विस्तृत अध्ययन किया। उन्होंने अपराधों एवं दुर्घटनाओं सम्बन्धित बीस वर्षों के आँकड़ें एकत्रित किये। 88 पृष्ठों की एक लम्बी रिपोर्ट तैयार हुई। इस रिपोर्ट से निर्ष्कष निकाला गया कि सौर-क्रियाओं एवं चन्द्रमा की कलाओं का मानव व्यवहार एवं दुर्घटनाओं पर विशेष प्रभाव पड़ता है। इन वैज्ञानिकों ने सूर्य के घूमने के कारण पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में होने वाली 27 दिन के चक्र की गड़बड़ी से भी दुर्घटनाओं का सम्बन्ध जोड़ा है। गहन पर्यवेक्षण के उपरान्त यह मालूम हुआ कि इस चक्र के प्रथम 7 दिन, 13 वे, 14 वे, 20 वे तथा 25 वे दिन अधिक दुर्घटनाएँ हुई।

मियामी यूनिवर्सिटी के दो मनोवैज्ञानिकों आर्नोल्ड लीवर और कैकोलिन शेरिन ने अमेरिकन जर्नल आँफ साइकियाट्री विभाग में चन्द्रमा की कलाओं का मनुष्य के ऊपर क्या प्रभाव पड़ता है की ढूँढ़ खोज की। प्राप्त तथ्यों द्वारा यह ज्ञात हुआ कि चन्द्रमा का प्रभाव न केवल ज्वारभाटों के रुप में-समुद्र में दिखाई पड़ता है वरन् मनुष्य के मन और मस्तिष्क पर भी पड़ता है। पूर्णिमा के तीन दिन पूर्व से हत्याओं की दर बढ़ने लगती है। पूर्णिमा के दिन सर्वाधिक हत्याओं एवं आत्म-हत्याओं की घटनाएँ घटित होती है। पूर्णिमा के दिन मानसिक रोगियों की व्यग्रता और भी बढ़ जाती है। कुछ तो हिंसा आदि पर उतारु हो जाते है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह मान्यता है कि पूर्णिमा क दिन बैलों का बधिया नहीं करानी चाहिए। चिकित्सा क्षेत्र के सर्जरी विशेषज्ञों का भी अनेकों प्रयोगों के उपरान्त यह निर्ष्कष है कि पूर्णिमा के दिन आपरेशन आदि करने पर शरीर से रक्त का स्त्राव अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक होता है। इसका कारण पूर्ण रुप से स्पष्ट तो नहीं हो सका है, पर ऐसा विश्वास किया जाता है कि पूर्णिमा के दिन विशेष प्रकार की किरणें अधिक मात्रा में आती है जिससे रक्त स्त्राव को रोकने वाले रक्त में विद्यमान प्लैटलेट कार्य बन्द हो जाता है। फलस्वरुप रक्त अधिक निकलता है। उपरोक्त अध्ययन में यह पाया गया कि हर चौदहवे महीने जब सूर्य और चन्द्रमा पृथ्वी पर सबसे अधिक गुरुत्वाकर्षण डालते है, अपराधों की संया बढ़ जाती है। इन दिनों मस्तिकष्क के न्यरान्स की सक्रियता अधिक हो जाती है। “चन्द्रमा मनसोजायत्” इसी तथ्य का प्रतिपादन करता है।

‘द केस फार एस्ट्रालेजी’ नामक पुस्तक में अनेकों उद्वरण पृथ्वी के वातावरण जीवों, वृक्ष, वनस्पतियों, ग्रह-नक्षत्रों के पड़ने वाले प्रभावों के दिये हुए है। वैज्ञानिक फ्रेंक ए. ब्राउन ने सिद्ध किया है कि मटर के दाने, आलू, चूहे, केकड़े एवं सीपियाँ सभी सूर्य एवं चन्द्रमा की स्थिति से प्रभावित होते है। इन प्रभावों का सूर्य प्रकाश से कोई सम्बन्ध नहीं है। जीवों को अँधेरी कोठरी में भी बन्द कर दिया तो भी उनकी क्रियाएँ। उसी प्रकार चलती रहती है। इससे यह सिद्ध हुआ कि सूर्य एवं चन्द्रमा की गति का प्रभाव जीवों पर पड़ता है न कि उनके प्रकाश का। इस तथ्य को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के लिए ब्राउन ने एक प्रयोग किया। समुद्र से हजारों मील दूर सीपियों को अँधेरी कोठरी में रखा। पर उनके खुलने एवं बन्द होने के क्रम एवं समय में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आया।

भौतिकविद् जान एलसन ने एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में उल्लेख किया कि रेडियों प्रसारण में बाधा डालने वाले आयन मण्डल से आने वाले तूफानों का सूर्य के सर्न्दभ में ग्रहों की स्थिति से सीधा सम्बन्ध है। जब भी दो या दो से अधिक ग्रह सूर्य की राशि में होते है तो उनमें 180 अंश और 90 अंश दूर राशि में ऐसे ही तूफान आते ळै और जब कई ग्रह सर्य की राशि से 60 अंश या 120 अंश की दूरी पर होते है तो आयन मण्डल शान्त रहता है। पाश्चात्य ज्योतिष शास्त्र की भी मान्यता है कि 90 अंश और 180 अंश का सम्बन्ध कठोर से और 60 अंश या 120 अंश का कोमल से होता है।

ग्रहों का भला, बुरा प्रभाव भी सर्वत्र एक जैसा नहीं दिखाई पड़ता है। यदि ऐसा होता तो सभी स्थानों पर समुद्री ज्वार-भाटे एक समय ही आते। तूफान, भूकम्प की घटनाएँ भी एक साथ सर्वत्र घटित होती। इसका कारण पृथ्वी के विभिन्न भागों का सूर्य एवं चन्द्र के विभिन्न अक्षाँसो पर पड़ता है। इटली के रसायनविद् पिच्चादी ने सन् 1958 में सिद्ध किया कि रासायनिक क्रियाएँ भी सूर्य एवं चन्द्र की गति से प्रभावित होती है। फसलों, फलों के अन्दर विद्यामान जीवन तत्वों पर भी इस गति की प्रतिक्रिया होती है। मौसम के अनुरुप पैदा होने वाले फलों, खाद्यान्नों को इसलिए स्वास्थ्यवर्धक माना गया है कि सूर्य राशि का कोमल प्रभाव उन पर पड़ता है।

इस तथ्य की पुष्टि के लिए रासायनिक क्रियाएँ सदा एक जैसी होती है अथवा भिन्न, अनेकों प्रयोग किये गये। पानी में घुले विस्मथ आक्सी क्लोराइड के तले में बैठने का समय नापने के लिए एक सामान्य प्रयोग 7 वर्षों के भीतर दो लाख बार विभिन्न प्रयोगशालाओं में सम्पन्न किया गया। प्रयोगों द्वारा सिद्ध हुआ कि विस्मथ आक्सी क्लोराइड के तली में बैठने का समय ग्रहों की स्थिति एंव सूर्य राशि के परिर्वतन के अनुसार बदलता रहता है। मार्च माह में यह गति सबसे धीमी होती है। रसायनविद् ‘पिच्चादी’ ने यह निर्ष्कष निकाला कि अर्न्तग्रही चुम्बकीय तरगों की प्रतिक्रिया पानी में विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न होती हैं। इसी कारण रासायनिक क्रियाओं की गति में भी भिन्नता पायी जाती है।

अन्य ग्रहों की चुम्बकीय शक्ति के थोड़े हेर-फेर से पृथ्वी पर भारी विप्लव उत्पन्न हो जाता है। 1960 के बाद बंगाल की खाड़ी में आठ बार समुद्री लहरें उठी। जिसके फलस्वरुप चार लाख व्यक्ति मारे गये। सन् 1967 में महाराष्ट्रक का कोयना नगर भूकम्प से नष्ट हो गया। यह दुर्घटना दक्षिण के उस पठार में हुई जिसे भू-विज्ञानी भूकम्पों से मुक्त बताते है। 19 जनवरी 1975 को काँगड़ा की घाटी किन्नौर में भीषण भूकम्प आया। चीन में आये भूकम्प से लाखों व्यक्ति मारे गये। सन् 78 में आन्ध्र में आये साइक्लोन ने हजारों व्यक्तियों की जाने ली। इन सभी दुर्घटनाओं के पर्यवेक्षण के उपरान्त वैज्ञानिकों ने पाया कि उक्त स्थानों पर अन्तरिक्ष से आने वाले रेडियों विकिरण की बहुलता थी। इन स्थानों पर सूर्य 90 अंश और 180 अंश की राशि पर अवस्थित था। भौतिकविद् जान एलसन के अनुसार सूर्य जब इन राशियों पर होता है तो उसके सीध में पड़ने वाले भू-भाग पर तूफान, भूकम्प की घटनाएँ घटित होती है।

यह तक्र किया जा सकता है कि यह प्रभाव सर्वत्र सभी प्राणियों पर या भू-भाग पर एक जैसा क्यों नहीं पड़ता? उत्तर स्पष्ट है-आग फेकी जाये तो स्वाभाविक है सूखी लकड़ियों वाले स्थान में लग जायेगी, पानी में वही बूझ जायेगी और चट्टान में तब तक सुलगेगी जब तक वह स्वतः मन्द न पड़ जाये। पानी बरसता है। तो मिट्टी देर तक गीली रहती है, पर चिकने संगमरमर को वर्षा के तुरन्त बाद ही सूखा देखा जा सकता है। व जन-समुदाय की शारीरिक बनावट, मानसिक स्थिति और अनेक परिस्थितियाँ अलग-अलग प्रभाव के लिए जिम्मेदार होती है। वर्षा से पूर्व किसान अपने खतों को पूरी तरह साफ छोड़ देते है ताकि समूची जमीन जी भर कर पानी पी ले सामूहिक रुप से ग्रह-नक्षत्रों से भाग यह उदाहरण है जिसका लाभ यह देश सदैव लेता रहा।

अर्न्तग्रही कुप्रभावों को सामूहिक आध्यात्मिक उपचारों द्धारा रोका जा सकता है। ग्रहण आदि के समय में उपासना, साधना की भारतीय परम्परा रही है जो इसी तथ्य की पुष्टि करती है कि उस अवसर सूर्य एवं चन्द्रमा से निस्सृत होने वाले हानिकारक विकिरणों से सुरक्षा की जा सके। कब किस ग्रह की क्या स्थिति है? उनके आपसी गठबन्धन की स्थिति का पृथ्वी पर-मुनष्य जाति पर क्या प्रभाव पडे़गा इसे जानने के लिए आधुनिक वेधशाला का योगदान आवश्यक है। हर क्षण उनकी चाल में होने वाले परिवर्तनों का सही अध्ययन तभी किया जा सकता हैं।

गायत्री नगर में आधुनिक यन्त्रों से सुसज्जित वेधशाला का निर्माण इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया गया है। ताकि सौर मण्डल की गतिविधियों एवं उनके पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभावों का सही अध्ययन किया जा सके। उसी आधार पर कुप्रभावों से बचने के लिए आध्यात्मिक उपचारों की भी व्यवस्था बनाई जा रही है। प्रकृति विप्लवों को रोकने में यह सामूहिक साधना, उपचार प्रणाली समर्थ सिद्ध होगी।


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