प्राण भी बना रहे।

May 1979

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तीर्थ यात्रा का ऋषि निर्मित काय-कलेवर अभी भी यथावत् स्थिर है। उसके वाह्य ही हुई है। रेल-मोटर की सुविधा हो जाने से यात्रा सरल भी हो गई है और सस्ती भी। दूरवर्ती स्थानों में जाने में जो समय और श्रम लगता था, मार्गों के अण्ड-खण्ड होने से जो कष्ट सहना पड़ता था, उतने समय तक जो खर्च करना होता था-निवास और भोजन के साधनों को तलाश करने में भटकना पड़ता था, उसमें न केवल पग-पग पर कठिनाइयाँ ही रहती थीं वरन् लम्बी अवधि में खर्च भी बहुत हो जाता था। आज द्रुतगति वाहनों ने लम्बी यात्राएँ सरलतापूर्वक स्वल्प समय में पूरी कर लेने की जो सुविधा बनाई है उससे समय और श्रम की ही नहीं पैसे की भी बचत हुई है। फलतः तीर्थयात्रियों की संख्या पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ गई है।

तीर्थों को सुन्दर एवं आकर्षक बनाने में उन लोगों ने अधिक उत्साह दिखाया है पुण्यफल, देव अनुग्रह एवं यश कामना के लिए तीर्थ में देवालय स्थापित करने धर्मशाला बनाने की अधिक उपयोगिता दीखती है। यों मन्दिर आदि बन तो कहीं भी सकते हैं, पर उनकी जानकारी स्थानीय लोगों को ही रहती है। और वे थोड़ी ही संख्या में होते हैं। तीर्थों में असंख्य लोग-दूर-दूर से आते रहते हैं उन्हें देव-दर्शन के अतिरिक्त, निर्माता की जानकारी भी मिलती है। धर्मशालाओं में ठहरने वाले भी निर्माताओं की स्मृति रखते हैं। उन्हें धर्म परायण मानते हैं। इस प्रकार यश लाभ का सिलसिला चिरकाल तक चलता रहता है। साधन सम्पन्न लोगों के लिए पुण्य और यश का समन्वय यह सहज आकर्षण उत्पन्न करता है कि वे अपनी स्मृति के लिए तीर्थ स्थानों को अपनी वृति प्रस्तुत करने के लिए चुनें। इस आधार पर तीर्थों में संख्या और भव्यता की दृष्टि से पहले की अपेक्षा अब अधिक दर्शनीय स्थान बन गये हैं। सरकार मन्दिर तो नहीं बनाती; पर पर्यटकों को आकर्षित करने वाले निर्माण की वह भी कुछ न कुछ व्यवस्था करती ही रहती है। यात्री टैक्स वसूल करके स्थानीय निकाय भी इन स्थानों की स्वच्छता शोभा बढ़ाने के लिए यथा सम्भव कुछ सोचती-’करती ही रहती है। व्यवसायी वर्ग अपने लाभ के लिए कुछ ऐसे प्रयत्न करता है जिससे दर्शकों का आकर्षण बढ़ और खरीद के लिए उत्साह बढ़े। मनोरंजन के साधन बढ़ने से पर्यटन में रुचि रखने वाली प्रवृत्ति को तीर्थ यात्रा में दुहरा लाभ दीखा है। ऊब मिटाने मन हलका करने, नवीनता का आनन्द लेने के लिए श्रम जीवियों से लेकर नव दम्पत्तियों तक को परिभ्रमण को उत्सुकता होती है और उसके लिए अपने देश में तीर्थ स्थान ही उपयुक्त पर्यटन केंद्रों की भी आवश्यकता पूरी करते हैं। गर्मी की छुट्टियों में बच्चों का कहीं बाहर चलने का आग्रह रहता है। अभिभावकों को भी अपेक्षाकृत उन दिनों सुविधा रहती है। फलतः तीर्थ प्रवास और भी अधिक बढ़ जाता है।

ऐसे-ऐसे अनेक कारणों के मिल जाने से तीर्थ यात्रा के लिए पहुँचने वाली जन संख्या में दिन-दिन बढ़ोत्तरी ही होती जाती हैं भव्यता और सुविधा की दृष्टि से भी पहले की अपेक्षा उनका आकर्षण और विस्तार क्रमशः बढ़ता ही चला गया है। इसे बाह्य कलेवर का विस्तार कह सकते हैं। तीर्थ यात्रा को निकलने वाली ट्रेन और बसे भी अधिक उत्साह बढ़ता है। उनमें चलने के लिए महिलाओं, वृद्धों और बालकों का आग्रह और भी अधिक बढ़ते जाता हैं इसमें पड़ने वाले खर्चे को भी अच्छी या कमजोर आर्थिक स्थिति के लोग किसी प्रकार वहन कर ही लेते हैं। पर्यटन का आकर्षण और पुण्य का प्रलोभन मिलकर तीर्थ यात्रा का उभय पक्षीय परिपोषण करते है। फलतः धर्म श्रद्धा का अनुपात बढ़ते हुए बुधवार ने जिस तेजी से घटाया है, उस घटोत्तरी का तीर्थ प्रवास पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

विचारणीय यह है कि तीर्थों में पहुँचने वाली जनता क्या उनसे कुछ वैसा प्रतिफल प्राप्त करती है जैसा कि अपेक्षा की जानी चाहिए? पर्यवेक्षण करने पर उत्तर निराशाजनक ही मिलता है। भिक्षा व्यवसायी वर्ग के लोग जिस प्रकार यात्रियों के पीछे लगते हैं और विनोद के लिए कहीं चलने बैठने की स्थिति पा सकना दूभर कर देते है, उसे देखते हुए विनोद का आकर्षण प्रायः चला ही जाता है। सज्जन प्रकृति भी अनुपयुक्त दबाव और थोड़े से विनोद के क्षणों को बुरी तरह नष्ट होने पर खीजने लगते हैं, फलतः लोग झल्लाते हुए ही लौटते है और भविष्य में तीर्थों में न जाकर कहीं अन्यत्र जाया करने की बात सोचते हैं।

बुद्धिवाद की कसौटी पर धर्म तत्व का प्रचलित स्वरूप लोकोपयोगी नहीं दीखता। घटती हुई श्रद्धा पर धर्म व्यवसायी कोढ़ में खाज की तरह अपने कुचक्रों से वहाँ पहुँचने वालों को विक्षुब्ध करते रहते हैं। इस परिस्थिति में देखना यह है कि तीर्थ स्थापना के जिस महान उद्देश्य को लेकर ऋषि मनीषियों ने प्रबल प्रतिपादन और सफल प्रचलन के रूप में जो महान प्रयास किया था; उसकी पूर्ति हो रही है या नहीं? पर्यवेक्षण करने पर निराशाजनक उत्तर ही सामने आता हैं। यह दुःख का विषय है। होना यह चाहिए था कि तीर्थों का आकर्षण और आवागमन का विस्तार होने का समुचित लाभ वहाँ पहुँचने वालों को मिलता। लोग धर्म श्रद्धा को सुविकसित करते। उसे व्यवहार में उतारते और व्यक्तित्व की दृष्टि से अधिक प्रखर परिष्कृत बनते। उस उत्कर्ष का लाभ सामाजिक सुव्यवस्था समृद्धि एवं प्रगति शीलता के रूप में सामने आता है। पर प्रतीत होता है कि तीर्थ यात्रा की प्रतिक्रिया में उपरोक्त दोनों लाभों में से एक ही उपलब्ध हो रहा हैं। इन स्थानों में पर्यटन केन्द्रों जैसा आकर्षण तो क्रमशः बढ़ता जाता है, पर चिन्ता की बात यह है कि धर्म धारणा को जीवन्त रखने के लिए तत्वदर्शियों ने इस महान परम्परा को जन्म दिया था और प्रबल प्रयत्नों से उसे अपनाने के लिए जन-जन को सहमत किया था; उस लक्षण का क्या हुआ? यदि उसकी पूर्ति नहीं होती है तो इस बढ़े हुए कलेवर को निष्प्राण ही कहा जायगा। निष्प्राण विस्तार को ढकोसला कहते हैं। निरुद्देश्य परिभ्रमण को आवारागर्दी कहा जाता हैं। श्रद्धा मानवी अन्तरात्मा का परिपोषण करने वाली कामधेनु है। धर्म-कुकृत्यों द्वारा उसका परिपोषण और अभिवर्धन होना चाहिए। तीर्थों से यही अपेक्षा की गई थी। बहुत समय तक उसकी उत्साहवर्धक पूर्ति भी हुई पर अब यदि उस प्रकार का वातावरण समाप्त होता जा रहा है तो उसकी प्रतिक्रिया खेद जनक ही होगी। पर्यटन केन्द्रों के रूप में यदि तीर्थों का अस्तित्व बन भी गय तो विनोद के अन्यान्य साधनों में ही उनकी गणना भी होने लगेगी। संस्कृति के परिपोषण के लिए जो प्रकाश स्तम्भ खड़े किये गये थे यदि उनका प्रकाश बुझ गया तो फिर उपयोगिता ही क्या रह जायेगी। समुद्रों में खड़े प्रकाश स्तम्भों की ज्योति बुझ जाय तो वे उधर से निकलने वाले जहाजों को बचाने की अपेक्षा उलटे टकराने और डुबाने वाले संकट बन सकते है।

तीर्थ सज्जा पर सरकारी गैर सरकारी तत्वों का ध्यान है किन्तु उनके प्राण तत्व को बुझने न देने, मरने ने देने पर किसी का भी ध्यान नहीं है। धर्म के नाम पर जो स्टाल इन पुनीत स्थानों में लगे हुए हैं उन पर बिकने वाला माल आत्मिक स्वास्थ्य को बढ़ाने में नहीं गिराने में ही सहायक हो रहा है। भावुक जनों की धर्म श्रद्धा का शोषण जिन अंधविश्वासों के सहारे होता देखा जाता है उससे विचारशीलता को पीड़ा ही होती है। सड़ा हुआ अमृत भी विष हो जाता हैं। मृत शरीर फूलता तो तेजी से है, पर उस विस्तार पर किसी को प्रसन्नता नहीं होती। तीर्थों की आत्मा निकल गई और काया फूलने लगी तो उसमें प्रसन्नता की नहीं व्यथा अनुभव करने जैसी ही बात हैं।

तीर्थ यात्रा को पुण्य लाभ का ही प्रमुख प्रयोजन माना जाता है। प्रत्यक्षतः इसी प्रयोजन के लिए यात्रा उपक्रम के लिए घर से निकला जाता है। वह स्वार्थ अपूर्ण ही बना रहे तो समझना चाहिए कि उस श्रम और व्यय की सार्थकता नहीं हुई जिसकी आशा अपेक्षा की गई थी। उपलब्धि रहित विनियोग से निराशा भी बढ़ती है और खिन्नता भी। प्रयोजन के परिपोषण के लिए लोक अनुदानों में कमी नहीं हुई हैं। तीर्थ यात्रा के माध्यम से धर्म प्रयोजन के लिए जन साधारण को बहुत कुछ करते हुए देखा जाता है। इससे आशा बँधती है कि धर्म जीवित है। पर दूसरे ही क्षण हुए उस अनुदान का प्रतिफल तलाश किया जाता है तो प्रतीत होता है। ऊसर भूमि में बाज बीज बोने जैसा विनियोग ही बन पड़ा और उससे निराशाजनक परिणाम ही निकला।

देखा जा सकता है कि तीर्थों के निर्माण में कितनी प्रचुर सम्पदा लगी हुई है। उनका संचालन व्यय वहन करने में कितनी अधिक धन शक्ति और जन शक्ति लगती हैं। वह जन अनुदान असाधारण है। इसका प्रतिफल व्यक्ति और समाज को सुखद सत्परिणामों के रूप में ही मिलना चाहिए। यदि नहीं मिल रहा है तो उन छिद्रों को बन्द करना चाहिए कि जिनमें होकर लोक श्रद्धा की कामधेनु का अमृतोपम दूध ऐसे ही पड़ता, बिखरता, नष्ट होता और गन्दगी फैलाता रहता है।

इस संदर्भ में कुछ अधिक गहराई तक उतरने पर आश्चर्यजनक तथ्य सामने आते हैं। उदाहरण के लिए सोमवती पर्व पर गंगा-स्नान जैसी छोटी बात का ही पर्यवेक्षण करके देखा जाय। उत्तर काशी से लेकर गंगा सागर तक प्रत्येक सोमवती अमावस्या को प्रायः पचास लाख व्यक्ति स्नान करते हैं इनमें से कुछ स्थानीय एवं समीपवर्ती होते है कुछ दूरवर्ती। सभी का समय लगता है। सभी को पैसा खर्च करना पड़ता है। श्रम, समय और धन की औसत लगाई जाय तो हर व्यक्ति पीछे वह राशि न्यूनतम दस रुपया प्रति के हिसाब से 5 करोड़ हुआ। वर्ष में 4-5 सोमवती अमावस्या होती हैं। यह राशि प्रायः 25 करोड़ जा पहुँचती है। गंगा की ही तरह अन्य प्रान्तों में अनेक पवित्र नदियाँ हैं। नर्मदा, गोदावरी, कावेरी, सरयू, यमुना आदि प्रमुख दस नदियों का महत्व और महात्म्य प्रायः गंगा के समतुल्य ही समझा जाता है। सोमवती पर वहाँ भी उसी श्रद्धा से उन क्षेत्रों के लोग स्नान करने जाते हैं। इन सब पर पहुँचने वाली जनता का व्यय 75 करोड़ माना जा सकता है। इस प्रकार सोमवती संदर्भ, में लगने वाली राशि 100 करोड़ के लगभग जा पहुँचती है।

यह एक प्रसंग हुआ। सोमवती पर्व का स्नान। इसके अतिरिक्त तीर्थ यात्रा वर्ष भर चलती ही रहती है। ऋतु प्रतिकूलता के कुछ ही महीने ऐसे जाते हैं जिनमें कुछ शिथिलता आती है। वर्ष भर में हिन्दू तीर्थों पर पहुँचने वाले यात्रियों का समय और धन 1000 करोड़ से कम नहीं अधिक ही मूल्य का होता है। यह जन सम्पदा यदि रचनात्मक प्रयोजनों में लग सकी होती तो उससे देश की प्रौढ़ शिक्षा जैसी कई समस्याएँ सहज ही हल हो सकती थीं। इस राशि से कुटीर उद्योग पनप सकते थे। पवित्र नदियों में गिरने वाले तटवर्ती नगरों के गन्दे पानी को खेतों तक पहुँचाने के लिए यह राशि प्रयुक्त हो सकी होती तो उसका चमत्कारी परिणाम उत्पन्न होता। नदियों का जल अस्वच्छ न होने पाता। दूसरी ओर उस खाद मिले पानी से जो सिंचाई होती, उससे खाद्य उत्पादन का परिमाण कहीं अधिक बढ़ जाता। यदि एक वर्ष की तीर्थ यात्रा राशि ऐसे रचनात्मक प्रयोजनों में लग सकें तो नदियों की पवित्रता घाटों का नये सिरे से निर्माण, मन्दिरों का जीर्णोद्धार-पानी और सड़कों का प्रबन्ध जैसे कितने ही उपयोगी इमारतें बनी हैं। उनके संचालन के लिए जो स्थायी निधियाँ जमा हैं उन सब का यदि रचनात्मक कामों में न सही-धर्म प्रयोजनों में ही दूरदर्शिता पूर्वक विनियोग होने लगे तो उसके सत्परिणामों को देखते हुए धर्मश्रद्धा की उपयोगिता स्वीकार करने और गौरव स्वीकार करने का नया आधार बन सकता है।

धर्म व्यवसायी-तीर्थ यात्रियों को फुसलाने और उनका धन हरण करने के कुचक्र में जितना समय और मनोयोग लगाते हैं उसे उलट कर आगन्तुकों के अन्तःकरणों में धर्म चेतना उत्पन्न करने वाली सदाशयता व्यक्त करने लगे तो उनका गौरव तो बढ़ेगा ही सम्मान पूर्वक जीविका चलाने में भी कोई कमी न रहेगी, पर प्रवाह जिस दिशा में वह रहा है उसे देखते हुए इस प्रकार के हृदय परिवर्तन की सम्भावना कम दीखती हैं।

विचार शील वर्ग के मूर्धन्य व्यक्ति यदि गंभीरतापूर्वक विचार करें तो उन्हें प्रतीत होगा कि धर्म श्रद्धा मनुष्य जीवन की बहुमूल्य थाती है। उसी ने अनेक रूप आदर्शवादी प्रयोजनों में उभरते और महान प्रयोजनों की पूर्ति करते दिखाई देते हैं। देश भक्ति, परमार्थ परायणता, उदार सहृदयता, सेवा साधना, आत्म-संयम, चरित्र-निष्ठा; आदर्शवादिता, तप-तितीक्षा जैसे व्यक्ति का गौरव बढ़ाने वाले और समाज को समुन्नत बनाने वाले समस्त प्रयोजन वस्तुतः धर्म श्रद्धा के ही रूपांतरण हैं। यह चेतना जिस भी क्षेत्र में प्रयुक्त होती है वहीं मानवी गरिमा को बढ़ाने वाले महान कार्य रच कर खड़ा कर देती है। यह तत्व जहाँ भी है उसे रत्न राशि से स्वर्ण खदान से बढ़कर बहूमूल्य माना जय। उसे अन्ध श्रद्धा से टकराकर चूर-च्र होने और उसके टुकड़े से बचाया ही जाना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब उसे दूसरी उपयोगी दिशा मिले। कोसने और गाली देने से कुछ काम नहीं बनता। अनुपयुक्तता की तुलना में उपयुक्तता प्रस्तुत की जानी चाहिए। ताकि जन-विवेक को दो में से एक चुनाव करने का अवसर मिल सकें। समतुल्य प्रस्तुतीकरण ही वह कारगर उपाय हैं जिसमें उपयुक्त और अनुपयुक्त के अन्तर को समझना और उनमें से किसी एक को चुनने का अवसर जन विवेक को मिल सकता हैं।

भारतीय धर्म और दर्शन की अन्तरात्मा को प्रकट करने वाली तीर्थ प्रक्रिया का पतनोन्मुख प्रवाह इसी रूप में चलने दिया जाय उसे उलटा बदला जाय यह एक ज्वलन्त प्रश्न है। समस्या यह नहीं किसी धर्म स्थापना का उन्मूलन, अवसाद होने या उसके उन्नयन उत्कर्ष की नहीं, वरन् विचारणीय यह है कि मानवी गरिमा के परिपोषण तीर्थ तन्त्र को जीवन्त रखा जाय अथवा उपेक्षा अवमानना के आघात सह-सहकर अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया जाय? यदि तीर्थ तत्व की उपयोगिता समझी जा सके तो उसे रुग्ण, विकृत एवं अर्ध-मूर्छित स्थिति में उबारना भी आवश्यक है। उस परिवर्तन के लिए रचनात्मक प्रयासों की आवश्यकता होगी। श्रद्धा को सजीव और प्रगतिशील देखने के इच्छुक विवेकशीलता के लिए ठीक यही समय है जिसमें तीर्थों की ऋषि परंपरा को पुनर्जीवित किया जाय और उसके लिए कुछ साहसिक कदम उठाया जाय।


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