तीर्थों की सुव्यवस्था हर दृष्टि से श्रेयस्कर

May 1979

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संसार भर में पर्यटन को एक स्वस्थ मनोरंजन माना जाता है और उसे सुविधाजनक बनाने के लिए सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर प्रयत्न किया जाता है। मनोरंजन के अनेकानेक माध्यमों में कुछ तो केवल विनोद तक सीमित रहते और खर्च की दृष्टि से महंगे पड़ते हैं। कई मनोरंजन दुर्व्यसन सिद्ध होते हैं और उपभोक्ता के लिए कालान्तर में विपत्ति खड़ी करते हैं किंतु पर्यटन ऐसा मनोरंजन है जिससे उदासी तो मिटती ही है, साथ ही कई प्रकार के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष लाभ भी मिलते हैं। तीर्थाटन को विशुद्ध विनोद प्रक्रिया से भी रखा गया होता तो भी उसके प्रति विज्ञजनों में जो अश्रद्धा बढ़ रही है वह न बढ़ती और उनका भविष्य अन्धकार मय न दीखता। स्पष्ट है कि समाज को मेरुदंड मध्यम वर्ग है। विचारशील लोगों के समर्थन से ही प्रवृत्तियाँ बलवती और चिरंजीवी होती है। बुद्धिवादी जन समुदाय जिस तथ्य पर अविश्वास करने, अप्रामाणिक मानने लगता है उसकी जड़े खोखली होती जाती है और अपनी मौत मरने की स्थिति आ जाती है। अन्ध श्रद्धा का शोधन करने वाली प्रवृत्तियाँ उपेक्षित होती, उपहासास्पद बनतीं ओर विरोध के आघात न सह सकने कारण धराशायी होती चली जाती हैं।

किले ढह गये। जागीर छिन गई। फिर अपनी प्रामाणिकता एकं उपयोगिता गँवा बैठने पर बेचारे तीर्थ ही कितने दिन जीवित रह सकेंगे। यदि उन्हें अकाल, मृत्यु के मुख में जाना पड़ा तो ऋषि प्रणीत इस महान परम्परा के टूट जाने से जो अपार क्षति होगी उसे अपने युवक की भयानक दुर्घटना ही माना जायगा।

पर्यटन का आनंद उपलब्ध होता रहे और इस प्रयोजन को पूरा कर सकने में समर्थ वर्तमान तीर्थों को यदि स्वस्थ मनोरंजन का केन्द्र भर रहने दिया जाय तो भी वे अपनी उपयोगिता बनाये रहेंगे। यदि उनके साथ तीर्थों की आत्मा भी जुड़ी रहने का प्रबन्ध किया जाय तब तो उनका स्वरूप और भी अधिक आकर्षक बन जायगा। तीर्थ निवासियों और तीर्थ प्रेमियों को मिलकर ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि निहित स्वार्थों की धर्म शोषण प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जाय। सम्भव हो तो उनकी धर्म गरिमा को भी उच्च स्तरीय बनाने का प्रयत्न किया जाय, अन्यथा उन्हें पर्यटन केन्द्र से तो नीचे गिरने ही न दिया जाय। ऐसा तभी हो सकता है जब कि तीर्थों में पनपने वाले छद्म- भिक्षा व्यवसाय को निरुत्साहित किया जाय और आगन्तुकों को भारी मन से लौटने का अवसर न आने दिया जाय।

एक स्थान पर रहते-रहते एक तरह का काम करते-करते मनुष्य को ऊब आती है। ऊब से मन उचटता है और हाथ के कामों में रस नहीं रहता। हठात् काम करते रहने से कार्य की मात्रा और उत्कृष्टा में भारी कमी आती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए साप्ताहिक अवकाश की व्यवस्था बनाई गई है। इसी लिए बना घण्टे का अवकाश रहने का नियम भी इसी लिए बना है कि सुस्ताने पर ऊब उतर सके और नये सिरे से उत्साह पूर्वक काम कर सकना संभव हो सके। पर्यटन अधिक समय का एवं दूर ले जाने वाला अवकाश है जिससे भिन्न प्रकार की परिस्थिति से जाने और कुछ उत्साह वर्धक देखने जानने का अवसर मिलता है। ऐसे अवकाशों में पैसा और समय तो खर्च होता है, इसके उपरान्त जो स्फूर्ति एवं विश्रान्ति मिलती है वह व्यक्ति का मनोयोग एवं क्रिया कौशल बढ़ाकर पर्यटन में हुई क्षति की पूर्ति कर देती है।

पर्यटन यदि तीर्थ यात्रा स्तर का पैदल मार्ग के रूप में साइकिल यात्रा के रूप में हो सके, तब तो उसका आनन्द और लाभ निश्चित रूप से कई गुना बढ़ जायगा। पर यदि वैसा न हो सके तो सवारियों की सहायता से प्रकृति सौंदर्य देखने, ऐतिहासिक स्थानों से प्रेरणा लेने, दर्शनीय स्थानों में जाकर नवीनता देखने, नये व्यक्तियों के नई परिस्थितियों के संपर्क में आने से नये प्रकार के अनुभव बढ़ाये जा सकते हैं। और उस ज्ञान वृद्धि से प्रकारान्तर से अनेकों परोक्ष लाभ मिल सकते हैं।

अनुभव सम्पादन बड़ी बात है। सीमित दायरे में ही जीवन बिताने वाले यदि पुस्तकीय ज्ञान इकट्ठा करते भी रहें तो भी इतने से काम नहीं चलता। चेतना पर प्रत्यक्ष अनुभव का जितना प्रभाव पड़ता है उतना अन्य किसी प्रकार नहीं। अनुभव जन संपर्क से बढ़ता है। जिन्हें ऐसे अवसर नहीं मिलते वे व्यवहार में अकुशल एवं आत्म हीनता की ग्रंथि से ग्रसित रह जाते हैं। ऐसे लोगों की समीक्षा बुद्धि, निर्णय शक्ति एवं दूर दर्शिता में भारी कमी बनी रहती है। यही कारण है कि घरों में कैद रहने वाली महिलाएँ मस्तिष्क की दृष्टि से तीक्ष्ण रहने पर भी अनुभव हीनता के कारण कई तरह के खतरे उठाती रहती है। जन संपर्क में रहने वाले व्यक्ति सामयिक लाभ तो उठाते ही अपने अनुभव एवं कौशल को भी बढ़ा लेते हैं ओर उसके दूर गामी सत्परिणाम उपलब्ध करते हैं।

सरकार का पर्यटन विभाग यात्रा को प्रोत्साहित करने तथा यात्राओं को सुविधा देने के लिए तरह-तरह के उपाय करता रहता है। इससे सरकार को कई प्रकार से टैक्स मिलने का नया स्त्रोत खुलता है। पर्यटन केन्द्रों के व्यवसायी तथा श्रमिक आगन्तुकों से आजीविका उपार्जित करते है। धन का विवरण होता है। समृद्धि फैलती है और नये उद्योगों को प्रोत्साहन मिलता है। इस लाभ का एक अंश जिस-तिस रूप में सरकार के पास भी जा पहुँचता है। विदेशी पर्यटकों से विदेशी आगन्तुकों को अपने यहाँ बुलाने और सुविधा देने को उत्सुक रहता है।

भारत में पर्यटन की भौतिक उपयोगिता समझने के साथ-साथ भावनात्मक एकता, संस्कृति का क्षेत्र-विस्तार, धर्मधारणा के अभिवर्धन आदि अनेक उच्चस्तरीय लाभों को भी समन्वित रखा गया है। अस्तु धर्म पर्यटन के लिए तीर्थों को विराम स्थल मानते हुए परिभ्रमण के लिए प्रोत्साहित किया गया है। तीर्थ यात्रा इसी का नाम है।

पर्यटन का लौकिक मनोरंजन और सद्ज्ञान संवर्धन का आध्यात्मिक आनन्द दोनों की सम्मिलित प्रक्रिया तीर्थ यात्रा है। इससे व्यक्ति उत्थान और समाज कल्याण के दोनों ही प्रयोजन पूरे होते हैं। भारत में पर्यटन केंद्रों की दृष्टि से भी तीर्थों का महत्व है। तीर्थों के साथ जुड़ी हुई प्राचीन परम्परा को शुद्ध स्वरूप में यदि उनके साथ सम्मिलित रखा जा सके तो उसमें फलस्वरूप वैयक्तिक एवं सामाजिक उत्थान के नये द्वार खुलेंगे ओर उनके फलस्वरूप उज्ज्वल भविष्य के निर्धारण में असाधारण सहायता मिलेगी।

पर्यटन को आर्थिक दृष्टि से प्रोत्साहित करने वाला वर्ग यात्रियों के सुविधा संवर्धक का, स्थानीय आकर्षण का जितना विस्तार कर सकें उतना उत्तम है। समाज को स्वच्छ और शालीन दीखने वाला वर्ग यह प्रयत्न करे कि आगंतुकों की भाव श्रद्धा का अवाँछनीय तत्वों द्वारा अनुपयुक्त शोषण न होने पाये। भीड़ से गंदगी न फैलने देने को स्थानीय निकायों की सतर्कता और तत्परता बढ़नी चाहिए व्यवसायी यात्रियों के निवास, भोजन एवं उचित मूल्य पर आवश्यक वस्तुएँ मिलने का प्रबन्ध करें। धर्म क्षेत्र की प्रभावी प्रतिभाओं को तीर्थ परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए ऐसे साधना सूत्रों का प्रबन्ध करना चाहिए जिससे आगंतुकों को एक साथ उपरोक्त सभी लाभ मिल सकें। संयुक्त प्रयत्नों से ही तीर्थों का महत्व बढ़ सकता है। इस अभिवृद्धि को हर दृष्टि से श्रेयस्कर ही माना जायगा।


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