तीर्थ प्रक्रिया को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता

May 1979

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तीर्थ प्रक्रिया की महान स्थापना का प्रतिपादन, प्रचलन जब हुआ होगा तो निस्संदेह उसकी प्रतिक्रिया से न केवल भारत भूमि को धन्य बनने का अवसर मिला होगा। वरन् उसके आलोक का लाभ समस्त संसार को मिला होगा। इन पुण्य तीर्थों का दर्शन एवं सेवन करने के लिए संसार भर से भाव सम्पन्न व्यक्ति यहाँ आते, देखते, ठहरते और लाभान्वित होकर वापिस चले जाते थे। इसका विवरण प्रामाणिक इतिहास के पृष्ठों पर अंकित है। ईसा इसी तीर्थयात्रा के लिए आये थे और कुछ समय उन ऊर्जा केन्द्रों में निवास करने के उपरान्त ईश्वर के पुत्र बनकर वापिस लौट गये थे। भारत भूमि उन दिनों अब जितनी छोटी नहीं थी। बृहत्तर भारत लगभग समूचे एशिया भूखण्ड में फैला हुआ था। उसका आलोक सूर्य की तरह अपनी आभा और ऊर्जा धरती के प्रत्येक भाग में बखेरता होगा। उस सतयुग स्वर्णयुग की स्थापना में बहुत बड़ा भाग निश्चित रूप से तीर्थ प्रक्रिया का रहा होगा।

यहाँ यह तथ्य भी पूरी तरह ध्यान में रखे जाने योग्य है कि तीर्थ तत्व किसी देवालय नहीं, सरोवर, या पूजा कृत्य तक सीमित नहीं है। यह उसके वाह्य कलेवर मात्र हैं प्राण तो वह विधि व्यवस्था है जिसके अंतर्गत प्राणवान ब्रह्मवेत्ता इन स्थानों में रहकर व्यापक जन संपर्क की योजना लोक चेतना में गहराई तक धर्म धारणा की प्रतिष्ठापना के लिए सर्वतोमुखी प्रयत्न करते थे। इन प्रयत्नों को आत्मिक स्वास्थ्य संवर्धक के सेनेटोरियमों के व्यापक क्षेत्र में भाव हरीतिमा उत्पन्न करने वाले मेघ मण्डलों के ऊर्जा उत्पादन और विवरण के लिए बने बिजली घरों के रूप गतिशील देखा जा सकता था। यदि उस प्रयत्नशीलता को हटा दिया जाय तो निष्प्राण कलेवर सड़ते-गलते ठीक इसी स्थिति में पहुँच सकता हैं जिसमें कि आज वह पहुँच चुका हुआ दृष्टिगोचर होता है।

कलेवर का अपना महत्व है आवरण की भी आवश्यकता है। उपकरणों के बिना भी काम नहीं चलता पर इस तथ्य को भली भाँति जान लेना चाहिए कि आवरण, उपकरण, साधन तभी कारगर होते हैं जब उनका उपयोग कोई क्रिया कुशल प्राणवान कर रहा हो ऐसा सुयोग न बने तो समझना चाहिए कि साधन उपकरणों की उपयोगिता दर्शनीय वस्तु से अधिक और कुछ न रहेगी। तीर्थों की गरिमा इसलिए नहीं थी कि वहाँ देवालय बने हुए थे-प्रकृति सान्निध्य था, जलाशयों की शोभा सुषमा थी। ऐसा प्रकृति सौंदर्य एवं दर्शनीय आकर्षण तो कहीं भी हो सकता है या उत्पन्न किया जा सकता है। इतने मात्र से उसे तीर्थ कोन कहेगा?

तीर्थ तो श्रद्धा के प्रतीक हैं श्रद्धा वस्तुओं से नहीं उत्कृष्ट व्यक्तित्वों द्वारा संचालित आस्थाओं का संवर्धन करने वाले किये गये क्रिया-कलापों द्वारा ही उत्पन्न होती है। तीर्थों के वाह्य कलेवर जितने बड़े थे और उसमें भी असंख्य गुनी महानता उनमें भरी रहती थी। महत्व डिब्बी का नहीं उसमें रखी हुई अँगूठी का होता है। बिकता छिलका नहीं धान-चावल है। धान तो उसके ऊपर लिपटा भर होता है। मूल्यांकन मनुष्य का किया जाता है। पोशाक तो उसकी शोभा सज्जा के लिए होती है। पोशाक के आधार पर किसी को महत्व नहीं मिल सकता। सच तो यह है कि बना पोशाक के भी महानता अपने गौरव को अक्षुण्ण रख सकती है। अच्छा व्यक्तित्व-अच्छा स्वास्थ्य-अच्छा आच्छादन का सुयोग मिल सके तब तो कहना ही क्या है। इतने पर भी यह तथ्य अपने स्थान पर अडिग है कि गरिमा उत्कृष्टता सम्पन्न व्यक्तित्व की है। उसी की शोभा क्षमता बढ़ाने में आवरण का उपयोग होता है।

तीर्थों में देवालयों को भव्यता-जलाशयों की शोभा-दर्शकों का आकर्षित करने वाली विचित्रता, किन्हीं स्थानों को दर्शनीय बनाये रह सकती हैं कौतूहलवश पर्यटकों का आवागमन वहाँ रह सकता है। इसमें विनोद के बदले अर्थतन्त्र का परिभ्रमण का लाभ सम्बद्ध लोगों को मिलता रह सकता है। पर्यटक विनोद खरीदें और उस आवागमन से कुछ लोग-व्यावसायिक लोक लाभ उठायें इतना उपक्रम ही यदि तीर्थों के द्वारा पूरा हो सके तो समझना चाहिए कि किसी कलात्मक प्रतिभा का उपयोग तराजू में रखे बटखरे जैसा हो रहा है। ऐसा कुछ चलता रहे और प्रतिमा का उपयोग तोल नाम में होता रहें तो इसमें प्रतिमा निर्माता को किसी प्रकार का सन्तोष नहीं हो सकता। उसे गढ़ने में जिस प्रतिभा, तन्मयता, श्रमशीलता, कलाकारिता का उपयोग हुआ था उसकी सार्थकता तो तब थी जब उसे दर्शकों की कला बुद्धि को आनन्द मिला होता। तीर्थों पर ऋषियों की दूरदर्शी योजना एवं उनके निर्माताओं पर उदार योगदान तभी सफल समझा जा सकता है जब उन केंद्रों के द्वारा धर्म चेतना उत्पन्न करने वाले, प्राणवान प्रयत्नों से ओत-प्रोत हों।

तथ्य को समझा जा सके तो तीर्थों के विद्यमान विशालकाय कलेवर में प्राण फूँकने की आवश्यकता अनुभव होगी। असाध्य रुग्णता की स्थिति दुःखद है। मरना हो तो मौत आये। जीना हो तो शक्ति रहें। चार पाई पर सड़ना किसी के लिए प्रसन्नतादायक नहीं। महान प्रयोजन सिद्ध कर सकने के उद्देश्य से बनाये गये और अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध कर सकने में पूर्णतया सुविधा सम्पन्न तीर्थों का उपयोग यदि सही रूप से न हो सके तो उसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायगा और समझा जायगा कि विचारशीलता, जागरूकता और सुव्यवस्था बनाये रहने की प्रतिभा का मूर्धन्य वर्ग में से पलायन हो गया। प्रचुर साधनों के रहते हुए उनका सदुपयोग न बन सकता यही सिद्ध करता है कि विवेक और पौरुष के हाथों से लोक नेतृत्व कर सकने वाली क्षमता छिन गई। इसे अपने युग की दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना ही कहा जायगा।

प्रस्तुत आस्था संकट ही मनुष्य के आन्तरिक पिछड़ेपन का प्रधान कारण है। उसी के कारण व्यक्ति में दुष्टता और समाज में भ्रष्टता का अनुपात बढ़ता चला जा रहा है। आर्थिक, सामाजिक, नैतिक, शासकीय, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में अगणित समस्याएँ बढ़ती और उलझती जाती हैं। समाधान ढूंढ़ने वाले एक छेद को बन्द नहीं कर पाते कि इस नये छेद और फूट पड़ते हैं। यह क्रम तब तक चलता ही रहेगा जब तक समस्त विकृतियों के आधार भूत कारण आस्था संकट के निराकरण के लिए कारगर उपाय न किये जाँय।

अर्थ-व्यवस्था सुधारने, उपयोगी कानून बनाने, सुविचार फैलाने जैसे प्रयत्नों की उपयोगिता भी है और आवश्यकता भी, पर ध्यान रखा जाय व्यक्तित्व का उद्गम मनुष्य के अन्तःकरण की गहराई में सन्निहित है। वहाँ तक न अर्थ साधन पहुँचते हैं, न कानून न शिक्षण। उस गह्वर मात्र श्रद्धा का प्रवेश हो सकता है। दूसरी वस्तु का प्रवेश है ही नहीं। उच्चस्तरीय श्रद्धा का उत्पादन, धर्म चेतना के माध्यम से ही अन्तःकरण के मर्मस्थल में संभव हो सकता है। इस विशेष काम को प्रखर धर्मनिष्ठा के अतिरिक्त और कोई कर नहीं सकता। धम्र अर्थात् आदर्श। आदर्शों का समझना समझाना तो वाणी और लेखनी के माध्यम से भी हो सकता है किन्तु उन्हें अन्तराल की गहराई में सुस्थिर रूप से प्रतिष्ठापित कर सकना मात्र धर्म धारणा के लिए ही सम्भव है। आदर्शवादी आस्थाओं को दृढ़ता पूर्वक अपनाये रहने वालों को निश्चित रूप से धर्मात्मा ही कहा जायगा।

उच्चस्तरीय आदर्शों को व्यवहार में उतारने की विधि व्यवस्था ओर पुण्य परम्परा को धर्म कहते हैं। उसे स्वाध्याय, सत्संग, मनन चिन्तन आदि के द्वारा अपनाया जाता है। धर्मानुष्ठानों के सहारे उसे अभ्यास में उतारा जाता है। यह वैयक्तिक प्रयत्न हुए। सामूहिक एवं सुसंगठित रूप से उसे जनमानस में जगाने और जमाने के लिए जो कारगर उपाय ढूंढ़े गये हैं उनमें तीर्थ प्रक्रिया का असाधारण स्थान है उनमें चलने वाली गतिविधियों की प्रतिक्रिया बनाने के लिए अतीत के गौरव भरे इतिहास में प्रामाणिक साक्षी के रूप में पढ़ा जा सकता है।

युग सृजन अभियान में जन चेतना में उत्कृष्ट आदर्श वादिता का समावेश आधार भूत लक्ष्य है। उसी धूरी पर अनेकों रचनात्मक गतिविधियों को धर्मचक्र चल रहा है इन प्रयासों में एक महान कार्य तीर्थ तत्व को पुनर्जीवित करने का भी है। विडम्बनाओं से उन्हें मुक्ति मिल सके और धर्म चेतना जागृत कर सकने वाली तत्परता उसमें धुल सके तो समझना चाहिए कि उज्ज्वल भविष्य की संरचना का एक महत्वपूर्ण द्वारा खुल गया।

युग की इस महती आवश्यकता की पूरा कैसे किया जाय? इसका सरल उत्तर तो यह है कि वर्तमान तीर्थ संचालकों से अनुरोध किया जाय कि वे अपनी व्यवस्था ऐसी बदलें कि उनमें तपःपूत मनीषियों की परम निस्वार्थ भाव से धर्मधारणा उत्पन्न करने वाली गतिविधियाँ चलने लगें। आशा की जा सकती है। कि वस्तुतः देवालयों का, धर्म संस्थाओं का उद्देश्य समझते होंगे तो सहज ही इस अनुरोध की स्वीकार कर लेंगे। और चुटकी बताते सब कुछ ठीक हो जायगा। तीर्थों की प्रक्रिया बदल जायगी और उनमें प्राचीनकाल जैसे दृश्य उपस्थित होने लगेंगे।

इस आशा को उचित भी कहा जा सकता है और सराहनीय भी। किन्तु व्यवहार में यह नितान्त कठिन जिसे लगभग असम्भव कह सकते है। धर्म संस्थानों से होने वाली आय का-उनके अधिपत्य से तुष्ट होने वाली अहंता का दबाव इतना अधिक है कि आज की स्थिति में उस प्रकार के परिवर्तन की तनिक भी संभावना नहीं है। स्वामित्व का मोह एक प्रकार का लाभ ही है और वह इतना प्रबल है कि मनुष्य अपनी निरुपयोगी वस्तुओं को भी किसी सत्प्रयोजन में देने के लिए तैयार नहीं हो सकता। जहाँ लोभ और मोह दोनों का समन्वय हो वहाँ तो फिर इस प्रकार का परिवर्तन और भी दुष्कर है बहुत से धर्मस्थानों में अच्छी खाती आजीविका भी है और उसे गँवाने के लिए कोई क्यों तैयार हो? धर्म का शब्दाडम्बर गढ़ना एक बात है और स्वार्थों में कमी पड़ने देना बिलकुल दूसरी। भजन पूजन करने वाले अगणित लोगों में से ऐसे व्यक्ति उँगलियों पर ही गिनने जितने मिलेंगे जो अपने स्वार्थों में कमी पड़ना सहन कर सकें। यों चरित्र निष्ठा और समाज निष्ठा बढ़ाने के लिए धर्मधारणा का सृजन हुआ था पर उसकी आत्मा तो न जाने कहाँ चली गई। उथले कर्मकांडों तक ही सारी विडम्बना सीमित होकर रह गई है। वस्तुस्थिति को समझा जा सकें तो उन प्रयत्न कर्ताओं की असफलता का कारण समझा जा सकेगा जो वर्तमान तीर्थों को साधन सम्पन्न धर्म स्थानों को संकीर्ण स्वार्थ परता के बन्धन में से छुड़ाने और उन्हें धर्मचेतना उत्पन्न करने के लिए हस्तान्तरित करने का अनुरोध करते रहे हैं। ऐसे प्रयत्नों में नितान्त असफलता के साक्षी युगनिर्माण मिशन के सूत्र संचालक को माना जा सकता हैं उसने मंदिरों को धम्र चेतना के प्रसार केन्द्र बनाने की दृष्टि से हर सम्भव उपाय किया है पर जिनके हाथ में उनका स्वामित्व है वे उसमें शिथिलता करने के लिए टस से मस न हुए।

अच्छा होता तीर्थ कलेवर में लगे वर्तमान साधनों का ही उपयोग धर्मधारणा की पुनर्जीवन प्रक्रिया के लिए हो सका होता। पर उसमें असफलता मिलने की संभावना-दीखने पर अब यही कदम उठाया गया है कि युग तीर्थों का नव निर्माण किया जाय जिनकी गतिविधियों को ऐसा बनाया जाय जिससे जन साधारण को तीर्थों की गरिमा स्वीकार करने और उनसे लाभान्वित होने का पूरा-पूरा अवसर मिल सके। गायत्री तीर्थ निर्माण योजना गायत्री शक्ति पीठों की स्थापना के पीछे एक मात्र उद्देश्य यही है कि तीर्थ तत्व अपने असली रूप में पुनः जनसाधारण के सामने उपस्थित हो सकें, और प्राचीनकाल की उस पुण्य परम्परा को क्रियान्वित कर सकें जिससे भारत भूमि को उसके महान पुत्रों की गरिमा को गगन चुम्बी बनाया था।


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