तीर्थ स्थापना का प्रयोजन और स्वरूप

May 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्राणी या पदार्थ स्वभावतः अनगढ़ होते है। उन्हें सुन्दर, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए विशेष प्रयत्नों की आवश्यकता पड़ती है। पदार्थों को पकाया, गलाया, ढाला व खरादा जाता है। तब कहीं वे अपनी अनगढ़ स्थिति से आगे बढ़कर उपयोगी बनते है। प्राणियों के संदर्भ में भी यही बात है। पशुओं को पालतू बनाने के लिए उनकी वन्य प्रकृति को बदलना पड़ता है। सरकस जैसे महत्व पूर्ण कार्यों में उनकी भूमिका अधिक उपयुक्त हो सके इसके लिए प्रशिक्षण में और प्रशिक्षित पशु-पक्षी स्वयं कितना श्रेय सम्मान पाते है और पालने वाले के लिए कितने उपयोगी सिद्ध होते है। यह किसी से छिपा नहीं है। अनगढ़ को सुगढ़ बनाने का नाम ही सभ्यता एवं संस्कृति है। बगीचे के पौधों की कटाई, छटाई, गुड़ाई, निराई, सिंचाई जैसे उपचारों से कुशल माली उन्हें कितना सुविकसित बना देता है। कलम लगाने पर पेड़ों के फल फूलों में कितना अन्तर आ जाता है उसे देखते हुए सुसंस्कारिता को एक प्रकार से जादुई उपचार ही कह सकते है।

मनुष्य को सुसंस्कृत बनाने का विज्ञान और विधान संस्कृति कहलाता है। इसके दर्शन को अध्यात्म और व्यवहार को धर्म कहते है। धर्म और अध्यात्म का समन्वय ही साधना विज्ञान है। ब्रह्म विद्या इसी को कहते है। इस प्रयोजन के लिए बनाये गये अनेकानेक उपाय-उपचारों को धर्म कुकृत्यों के रूप में विनिर्मित किया गया है।

इन धर्म कुकृत्यों में तीर्थ महत्ता अत्यधिक है। इसका पता उसकी प्रथा परम्परा के प्रति धर्मप्रिय जनता के उत्पात के देखने से सहज ही लग जाता है। स्थिति इस स्तर तक कैसे पहुँची-इस पर अधिक गम्भीर चिन्तन करने से प्रतीत होता है कि इस पुण्य प्रयोजन को इतनी लोक मान्यता मिलने के पीछे कई कारण है।

ऋषियों ने तीर्थों का माहात्म्य वर्णन करने में धर्म पुराणों के जितने पृष्ठ लिखे है उतने कदाचित अन्य किसी प्रसंग पर नहीं। शंकर पुराण का बहुत बड़ा भाग तीर्थ माहात्म्य से ही भरा पड़ा है अन्यान्य पुराणों उपपुराणों में इस संदर्भ में इतना अधिक पुण्य-फल बताया गया है कि उसे प्राप्त करने के लिए धर्म प्रेमियों की सहज श्रद्धा को परिपूर्ण प्रोत्साहन मिले। पापों से निवृत्ति-प्रायश्चित विधा-पुण्य संचय, स्वर्ग-मुक्ति की प्राप्ति, दैवी अनुकम्पा, आत्म-शांति, मनोकामना की पूर्ति जैसे कितने ही लाभ गिनाये गये है। उनके साथ क्या इतिहास जुड़ा हुआ है। किन कारणों से वे तीर्थ बने, उसका सेवन करने से किसे क्या पुण्य फल प्राप्त हुआ? जैसे अनेकों वृत्तान्त इस तीर्थ चर्चा के प्रसंग में आते है। इन कथनोपकथनों का प्रयोजन यह है कि जन साधारण में वहाँ पहुँचने की प्रवृत्ति बढ़े।

दूसरा प्रयास तीर्थ यात्रा को प्रोत्साहित करने में उन लोगों का है जिनने उन स्थानों पर दर्शनीय देवालय, घाट, सरोवर, राज-मार्ग, धर्मशाला आदि बनाये। वहाँ पहुँचने के रास्ते में ठहरने के सुविधा-साधन उत्पन्न किये।

जन साधारण को वहाँ पहुँचने के लिए प्रोत्साहन इसलिए दिया गया कि वे वहाँ पहुँचे और इन कल्पवृक्षों के संपर्क में आकर आन्तरिक अभावों और संकटों से निवृत्ति प्राप्त करें। तीर्थ के पारस का स्पर्श करके अपने कलुष कालिमा की लौह जैसी कठोरता को बहुमूल्य स्वर्ण सदृश बनाने का श्रेय प्राप्त करें।

अपने आरम्भ काल में तीर्थ एक प्रकार से शांति समाधान के केन्द्र थे जहाँ पहुँच कर कुछ समय तीर्थ यात्री को वहाँ निवास करना पड़ता था, इस निवास अवधि को तीर्थ सेवन नाम दिया गया था। अभी भी त्रिवेणी तट पर माघ महीने में पर्ण कुटी बना कर कितने ही व्यक्ति एक महीने का साधना व्रत लेते हैं और उस तपश्चर्या को ‘कल्प वास’ कहते है। प्राचीन काल में तीर्थ ऐसे आध्यात्मिक सेनेटोरियम थे जहाँ आत्मिक विश्रान्ति पाने एवं उद्विग्नताओं का समाधान करने में सहायता मिलती थी। वहाँ ऋषियों के आरण्यक रहते थे तीर्थ सेवन के लिए आने वाले वहाँ कुछ समय ठहर कर जीवन क्रम पर नये सिरे से विचार करते और आरण्यक संचालक ऋषियों से अपनी समस्याओं के समाधान तथा उज्ज्वल भविष्य के निर्धारण में आवश्यक परामर्श-प्रकाश प्राप्त करते थे। दूर हटकर देखने पर विस्तृत क्षेत्र दीखता है। जीवन की उलझनों की समीक्षा करने के लिए भी कुछ दूर पहुँचने पर निष्पक्ष समीक्षा कर सकना अधिक सरल पड़ता है। आत्म-चिन्तन, आत्मसुधार, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास के चारों ही चरण पूरा करने में यह तीर्थ वास का वातावरण हर दृष्टि से उपयोगी सिद्ध होता था। पापों का प्रायश्चित करने के लिए कई तपश्चर्याएं आवश्यक होती है। वे भी यहाँ रहकर करने से वह प्रयोजन पूरा होता था; जिसमें तीर्थों के महात्म्य से पाप निवृत्ति को जोड़ा गया है। यह निश्चित रूप से प्रायश्चित विधान की ओर संकेत है। आत्मोत्कर्ष के लिए कई प्रकार के साधन करने पड़ते है। धर्मानुष्ठान इन्हीं को कहते है। योग और तप के विधिविधान, आत्म शोधन एवं आत्म-परिष्कार के उद्देश्य से ही विनिर्मित हुए हैं। यह सभी प्रयोजन तीर्थ वास की अवधि में तपःपूत मनीषियों के संरक्षण में तत्वावधान में सम्पन्न होते थे। तीर्थ यात्री जब लौटता था तो किसी सेनेटोरियम में रहकर व्याधियों का उपचार एवं स्वास्थ्य संवर्धन का दुहरा लाभ उठाने वालों की तरह ही आत्मिक पवित्रता और प्रखरता साथ लेकर घर आता था।

इस उपलब्धि की सुखद प्रतिक्रिया को देखते हुए तीर्थ का जो माहात्म्य बताया गया है वह बहुत अंशों में सही सिद्ध होता था। प्रकृति के सान्निध्य में उत्तम जलवायु का लाभ लेने सात्विक आहार विहार पर निर्भर रहने प्रेरणा-प्रद वातावरण की ऊर्जा ग्रहण करने से छोटे-मोटे शारीरिक और मानसिक रोगों से भी निवृत्ति मिल जाती थी। रात्रि को गहरी नींद लेने पर जिस प्रकार प्रातः उठने पर स्फूर्ति एवं प्रसन्नता अनुभव होती है वैसे ही तीर्थ से लौटने वाला अपनी इस आध्यात्मिक विश्रान्ति के उपरान्त फिर से सामान्य जीवन में प्रवेश करता था। और नई क्षमता, नई दृष्टि एवं नई स्फुरणा के कारण उसे हर क्षेत्र में उत्साह वर्धक सफलताओं का लाभ मिलता चला जाता था। इसे तीर्थ यात्रा का प्रत्यक्ष पुण्य फल माना जाता था। शारीरिक और मानसिक चिकित्सा की दृष्टि से इसे पक्षीय उपचार अनुभव किया जाता था और जितना समय, श्रम, धन उस कार्य में लगा उसे सार्थक माना जाता था।

तीर्थ यात्रा पद यात्रा के रूप में होती थी, सवारी का उपयोग उसमें नहीं होता था। उसके कई लाभ है। प्रथम है आरोग्य संवर्धन, पैदल यात्रा को रोगोपचार का असाधारण प्रयोग माना जा सकता है। बैठे रहने हाथ पैर विंध जाते हैं और नस-नाड़ियों का माँस पेशियों का उचित संचालन न होने से श्रम रहित व्यक्ति अपच एवं जकड़न के कारण उत्पन्न होने वाले अनेक रोगों के शिकार बनते है। प्रातः टहलने की महत्ता सर्व विदित है। यदि शारीरिक, मानसिक रोगों की निवृत्ति के लिए एक क्रम बनाकर लम्बे समय तक पद यात्रा की जाये तो उसे एक उपयोगी चिकित्सा कोर्स कहा जा सकता है। यदि यात्रा अवधि में खानपान रहन आदि के भी कुछ ‘व्रत’ जुड़े रहते तो इसके कारण उस विधान की उपयोगिता किसी उच्चस्तरीय चिकित्सा पद्धति के कम नहीं रहती।

मानसिक स्वास्थ्य सुधार की दृष्टि से भी तीर्थों की उपयोगिता असाधारण थी। परिस्थिति में लिप्त व्यक्ति अपनी कठिनाइयों का वास्तविक स्वरूप समझ नहीं पाता। वास्तविक समीक्षा के लिए ऐसी मनःस्थिति चाहिए जो पक्ष-पात रहित हो-जो दूसरों की तरह अपनी समीक्षा भी कर सके जिसे अपने-पराये में से किसी के प्रति राग द्वेष न हो। न्यायाधीश इसी मन स्थिति में होते है तथा उनके लिए वस्तुस्थिति को ठीक तरह समझना और न्याय करना सम्भव होता है। पहाड़ की ऊँची चोटी पर चढ़ा हुआ व्यक्ति ही दूर-दूर तक की स्थिति को ठीक तरह से देख सकता है। जो नीची घाटी में खड़ा है उसके लिए तो समीपवर्ती घेरा ही सब कुछ है। तीर्थ में पहुँच कर सम्बद्ध लोग टूट हट जाते है। फलतः उनके प्रति राग द्वेष भी झीना हो जाता है। ऐसा मनोदशा अपने-पराये गुण-दोष समझने में समर्थ होती है समस्याओं का सही रूप समझा जा सके तो उनका आधा हल निकल आया समझा जा सकता है। सही निदान हो जाना आधी चिकित्सा है। इस प्रकार तीर्थ निवास के दिन प्रस्तुत समस्याओं का हल ढूंढ़ने में ही नहीं उज्ज्वल भविष्य के संदर्भ में उपयोगी रीति-नीति अपनाने में भी कार्य पद्धति निर्धारित करने में भी उपयोगी सिद्ध होते हैं।

वातावरण के प्रभाव से सभी परिचित है। कुछ प्रतिभाएँ तो ऐसी भी होती है, जो वातावरण को बनाती है। किन्तु जन साधारण की स्थिति यही होती है, कि वे वातावरण के प्रभाव में ढलते है। घर का, समाज का वातावरण सम्बद्ध व्यक्तियों को घसीट कर उसी ढर्रे पर ले आता है, जिसका प्रवाह वह रहा होता है। डिब्बे पटरी पर ही लुढ़कते है। आँधी अपने साथ अपनी दिशा में बहुत सा कूड़ा करकट उड़ा ले जाती है। वातावरण को भी सरिता प्रवाह एवं आँधी-तूफान के समतुल्य माना जा सकता है। ऋषियों के आश्रमों में सिंह गाय के एक घाट पानी पीने जैसे उदाहरण आये दिन मिलते रहते है। सामान्य मनुष्य दर्पण की तरह होते है। उन पर समीपवर्ती प्रखरता जिस रंग की होती है वैसी ही दर्पण की छवि बन जाती है। सत्संग की महिमा से इतिहास पुराण भरे पड़े है। इससे यही सिद्ध होता है कि प्राणवान व्यक्तित्वों का अथवा प्रचलित ढर्रे का प्रभाव अत्यधिक प्रचण्ड होता है। उसकी समीपता से प्रभावित हुए बिना कोई विरला ही बच सकता है। आग की समीपता से गर्मी, बर्फ की समीपता से ठंडक मिलती है। दुर्गन्धित और सुगन्धित स्थान की अनुभूमि से सभी प्रभावित होते है। तीर्थों को प्रमुख विशेषता यह रहती थी कि प्राणवान प्रतिभाएँ अपने प्रभाव से आरण्यकों का वातावरण ऐसा बनाये रहती थी जिसमें कुछ समय रहने मात्र से किसी नये व्यक्ति को भी प्रभावित होना पड़ता था। जहाँ जिस प्रकार की प्रवृत्तियाँ प्रवाहित होती है वहाँ के निवासी उस रीति-नीति से प्रथा परम्परा से प्रभावित ही नहीं होते अनुकरण भी करने लगते है और क्रमशः अभ्यस्त भी हो जाते है। उच्चस्तरीय जीवन यापन के लिए जिस रीति-नीति को अपनाया जाना आवश्यक है उसे पढ़ने सुनने से भी अधिक प्रभावी ढंग से जीवन में उतारने के लिए उस प्रकार के वातावरण में रहना आवश्यक होता है। तीर्थ सेवन से जीवन संतुलन की दृष्टि से इस प्रकार के वातावरण की सहज उपलब्धि होती थी।

पाप बन पड़ने पर उनके प्रायश्चित के लिए अमुक तीर्थ तक पद यात्रा करते हुए जाना वहाँ अमुक अवधि तक निवास करना प्रायश्चित विधान पूरे करना भविष्य के लिए पवित्र रहने का व्रत लेकर लौटना आवश्यक समझा जाता था। पाप प्रायश्चित के लिए तीर्थ यात्रा के विधान का यही तात्पर्य था। घर में किसी प्रिय जन की मृत्यु हो जाने पर भी उसकी अस्थियाँ विसर्जित करने के लिए पवित्र जलाशयों में तीर्थों में जाया जाता था। इस बहाने कुछ समय वे लोग वहाँ रहते थे। श्राद्ध तर्पण आदि करते थे। गरुड़-पुराण आदि की कथा सुनते थे। फलतः शोक संकुलन मन को शांति मिलती थी और चित्त पर पड़े हुए दबाव एवं छाये हुए असंतुलन से निवृत्ति पाकर हलके मन से लोग अपने घरों को वापिस लौटते थे। मृत्यु शोक की तरह अन्यान्य हानियाँ भी ऐसी होती है-जिनसे आघात लगता है। संतुलन गड़बड़ा जाता है। ऐसी स्थिति में आवेश ग्रस्त लोग कुछ भी भला बुरा कर गुजरते है। असंतुलनों का उपचार तीर्थ निवास से बढ़कर उन दिनों और कुछ था ही नहीं। उसमें न केवल परिस्थितियों बदलती थीं वरन प्रभावी वातावरण के कारण मनःस्थिति में भी परिवर्तन आ जाता था। अनर्थ से बचने के लिए इसे एक सुयोग ही समझा जाता था और खिन्न उद्विग्न मनुष्य शांति दायक वातावरण में निवास करने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए तीर्थों के लिए दौड़े जाते थे।

न केवल विग्रहों की निवृत्ति के लिए वरन् भविष्य निर्धारण के लिए अनुभव दूरदर्शी लोगों से प्रकाश परामर्श प्राप्त करने के लिए भी तीर्थ यात्रा की जाती थी। सभी जानते है कि घर पड़ौस के आत्मीय चिकित्सकों के द्वारा रोगों का उपचार कराने की तुलना में बड़े चिकित्सक अस्पतालों में नियुक्त विशेषज्ञों की सलाह लेना उनके संरक्षण में रहकर चिकित्सा कराना अधिक लाभदायक होता है। यों सत्परामर्श कहीं भी प्राप्त किये जा सकते है। सर्वत्र संव्याप्त दुर्बुद्धि से भी तथा कथित मूर्धन्य लोग भी कम ग्रसित नहीं है। फिर भी ढूंढ़ने पर सत्परामर्श दाता भी मिल जाते है उनकी सलाह से भी समस्याओं के समाधान एवं भविष्य निर्धारण में कुछ तो कम चल ही जाता है किन्तु यदि दूर दर्शी-दिव्य दर्शी महामनीषियों का अधिक महत्व पूर्ण मार्ग दर्शन प्राप्त करना होता था तो लोग तीर्थ यात्रा की तैयारी करने थे और वहाँ आरण्यकों में निवास करने वाले तत्व दर्शी मनीषियों से ऐसे परामर्श प्राप्त करते थे जो हित साधन की दृष्टि से आरोग्य कहे जा सकें।

कई बार ऐसी विषम परिस्थितियाँ सामने होती है जिनके लिए मात्र परामर्श से भी कम नहीं चलता। निपटने के लिए समर्थों की सहायता आवश्यक होती है। कई बार आगे बढ़ने के लिए ऐसे आत्मबल की जरूरत पड़ती है जो गाड़ी में पैट्रोल पड़ने जैसा उदाहरण प्रस्तुत कर सके। व्यवसाय में पूँजी और अनुभव दोनों की जरूरत होती है। जिनके पास यह नहीं होते कहीं से उपलब्ध करके अपना काम चलाते है। तपस्वी मनीषी आत्मबल के निर्झर होते थे। उनसे अभीष्ट प्रयोजनों के लिए उच्चस्तरीय सहायता बिना कठिनाई के मिल जाती थी। आशीर्वाद-वरदान- ऐसा ही अनुदानों का नाम है, तपस्वी-मनीषियों द्वारा अपनी तप सम्पदा निचोड़ कर दी जाय तो वे कारगर ही सिद्ध होती है। इस प्रकार के अनुदान प्राप्त करने के लिए भी इन दिनों तीर्थों में अवस्थित प्राणवान प्रतिभाओं का आश्रय तका जाता था और जो इन कल्प वृक्षों के पास पहुँचते थे खाली हाथ वापिस सही लौटते थे।

तीर्थों की स्थापना और वहाँ पहुँचने की प्रेरणा देने वाले शास्त्रकारों के मस्तिष्क में इन्हें इन्हीं विशेषताओं से सम्पन्न रखने की योजना थी। ऐसे उच्चस्तरीय अध्यात्म अस्पताल बनाने की दृष्टि से यह सरंजाम जुटाया गया था कि वहाँ पहुँचकर सर्वसाधारण को न केवल शारीरिक, मानसिक अधि-व्याधियों से आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा मिले वरन् उज्ज्वल भविष्य के निर्धारण में भी उपयोगी प्रकाश परामर्श एवं अनुदान उपलब्ध हो सके। तीर्थों के निर्माण में ऋषियों ने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया, साधन-सम्पन्नों को उनके निर्माण में धन लगाने की प्रेरणा दी जन-साधारण को पुण्य प्रलोभन देकर वहाँ पहुँचने के लिए उकसाया। यह सब न तो निरर्थक था और न किसी षड्यंत्र अंग इस स्थापना के पीछे विशुद्ध जन-कल्याण को लोक निर्माण की भावना थी जो तब तक पूर्ण तया सफल ही होती रही जब तक कि तीर्थों का स्वरूप अपने वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपयुक्त बना रहा।

आज प्राण निकल गया। उद्देश्य पिछड़ मात्र लकीर पिटती है। निष्प्राण कलेवर पर पुष्प हार चढ़ते है। प्रज्ञावानों का मृत शरीर भी कोई प्रयोजन पूरा कर सकने में समर्थ नहीं रहता, महा मनीषियों ने जिस लक्ष्य को सामने रख कर तीर्थ परम्परा की स्थापना की थी, उस लक्ष्य की पूर्ति के प्रायः सभी साधन समाप्त हुए दीखते है। उसके स्थान पर धर्म श्रद्धा के दोहन का प्रपंच चल पड़ा है। वस्तुतः स्थिति के अनुरूप विचारशील वर्ग में जो अश्रद्धा उत्पन्न हो रही है उसे देखते हुए लगता है पेड़ की जड़ खोखली हो जाने से उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है उसी प्रकार तीर्थ की महान परम्परा भी अपनी गरिमा समाप्त करने जा रही है। जो चल रही है उसी को चलने देकर इस पुण्य प्रचलन को अपनी मौत मरने दिया जाय या उसमें पुनः नव-जीवन के संचार का प्रयत्न किया जाय आज हर धर्म प्रेमी के सामने यह उज्ज्वल प्रश्न समुचित उत्तर पाने के लिए सामने खड़ा है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118