तीर्थ परम्परा में गायत्री शक्ति पीठों की नई श्रृंखला

May 1979

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तीर्थ प्रक्रिया का निर्धारण जब हुआ और देवालयों के निर्माण एवं देव प्रतिमाओं की स्थापना का उपक्रम चला तो साकार ब्रह्म की प्रतिमा गोलाकार बनाई गई। शिव लिंग और शालिग्राम के गोलाकार प्रतिमा पिण्ड इस विश्व ब्रह्माण्ड को साकार ब्रह्मा का स्वरूप प्रतिपादित किया गया। पिण्ड भी गोल है- ब्रह्माण्ड भी। विश्व को विराट्-ब्रह्म की प्रत्यक्ष-प्रतिमा मानने और उसके साथ एकात्मता की अवधारणा का अभ्यास पूजा उपचार के रूप में प्रस्तुत किया गया। देवता को जल, पुष्प, अक्षत आदि को अपने श्रद्धा समर्पण के रूप में अर्पण करने का तात्पर्य है इस विश्व वसुधा को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने के लिए अपने भाव- भरे अनुदान-अंशदान प्रस्तुत करना। अग्नि की समीपता से गर्मी मिलती है और देव की समीपता से देवत्व की भाव-सम्वेदना उपलब्ध करना। यही देवाराधन का प्रत्यक्ष प्रतिफल। इस वरदान को जो जितनी मात्रा में उपलब्ध करता है वह उसी अनुपात से भौतिक सम्पन्नताओं और आत्मिक विभूतियों से-ऋद्धि-सिद्धियों से लदता चला जाता है।

साकार देव उपासना में संध्या वन्दन के समय गायत्री की ध्यान धारणा का विधान है। त्रिकाल संध्या में प्रातः ब्राह्मी, मध्याह्न वैष्णवी और सायंकाल शाँभवी गायत्री की अभ्यर्थना करने का अनुशासन है। प्रत्यक्षतः शिवलिंग या शालिग्राम के गोलाकार प्रतीकों की अर्चना और परोक्ष प्रक्रिया में गायत्री के तीन रूपों की ध्यान धारणा है। यह क्रम चिरकाल तक चलता रहा। इतिहास पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि महत्वाकाँक्षी धर्माध्यक्षों ने अपनी-अपनी विशिष्टता सिद्ध करने और अपने अनुयायियों का संगठन बनाने की दृष्टि से सम्प्रदायों की स्थापना की और उनके समर्थक देवता तथा ग्रंथि बनाये। प्रतिस्पर्धा ने एक-दूसरे की इस घुड़ दौड़ में पीछे रहने के लिए उकसाया। फलतः अनेकानेक देवी-देवता बनते चले गये। मूल निर्धारण का व्यतिरेक करने से ही यह सिलसिला आगे चल सकता था। सौ अनेकानेक देवताओं का प्रकटीकरण होता चला गया। सामान्य देवालयों से लेकर विशिष्ट तीर्थों तक उन्हीं की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित होती चली गई। यह भुला दिया गया कि भारतीय तत्व ज्ञान का प्रधान उपास्य ब्रह्म विद्या ऋतम्भरा प्रज्ञा है। यदि बहु देववाद का प्रचलन ही होना है, आद्य शक्ति को क्यों विस्मृत किया जाय? यह प्रश्न न तो प्रमुख रूप से उभरा और न उसे प्रश्रय मिला। फलतः औचित्य की दृष्टि से सर्वप्रथम गायत्री प्रतिमाओं की बात आगे रहनी चाहिए थी, सो न रहकर साम्प्रदायिक उत्साह की आपाधापी में उसे एक प्रकार से भुला ही दिया गया। छोटे रूप में गायत्री की प्रतिमाएँ तो बनी रहीं, छोटे देवालय भी बनते रहे पर निजी प्रतिपादन के अत्युत्साह ने अन्यान्य देवताओं-अवतारों को ही महत्व प्रदान किया। गायत्री प्रधान तीर्थों देवालयों के लिए कोई कहने लायक प्रयास न बन सका। पुष्कर जैसे कुछ ही तीर्थ ऐसे हैं जिन्हें गायत्री प्रधान कह सकते है।

इस भूल का परिमार्जन करने का समय आ गया। जब निराकार देव शक्तियों की साकार प्रतिष्ठापना की उपयोगिता स्वीकार ही कर ली गई तो प्रधानता, आद्यशक्ति गायत्री को क्यों न मिले? गायत्री तीर्थों के आधुनिक निर्माण की पुण्य परम्परा गायत्री तपोभूमि मथुरा से आरम्भ हुई और इन्हीं पिछले बीस वर्षों में छोटे-बड़े सैकड़ों गायत्री मन्दिरों की स्थापना हो चुकी है। गायत्री परिवार की प्रायः छः हजार शाखाओं में बड़े साइज के गायत्री चित्र, देव प्रतिमा की तरह स्थापित हैं और वहाँ उनकी नित्य पूजा आरती होती हैं शान्ति कुंज एवं ब्रह्मवर्चस के गायत्री मन्दिर प्रसिद्ध हैं। इस वर्ष से ब्रह्म वर्चस की एक मंजिल गायत्री के 24 अक्षरों की 24 प्रतिमाओं के 24 देवालयों के रूप में गायत्री शक्ति पीठ की अभिनव प्रतिष्ठापना हुई है। इसे अंतर्राष्ट्रीय गायत्री तीर्थ की संज्ञा दी गई है। शुभारंभ के दृष्टि से यह श्री गणेश भी कम उत्साह वर्धक नहीं है, पर इतने भर से कोई बड़ा प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। महत्व को देखते हुए इस प्रतिष्ठापना का प्रसार विस्तार व्यापक होना चाहिए।

इस संदर्भ में बड़े प्रयास की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि युग अवतार का सीधा सम्बन्ध प्रज्ञावतार से है। “यदा यदा हि धर्मस्य.........’’ का आश्वासन देने वाली सत्ता को जब भी असंतुलन उग्र हुआ तो उसे सम्भालने के लिए स्वयं ही दौड़ कर आना पड़ा है। सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप ही अवतारों के स्वरूप तथा क्रिया कलाप रहे है। वर्तमान युग की सामयिक कठिनाइयों का एक मात्र कारण आस्था संकट हैं इसका निराकरण प्रज्ञा ही कर सकती हैं प्रज्ञा-अर्थात् ऋतम्भरा प्रज्ञा। ऋतम्भरा अर्थात् गायत्री। संक्षेप में गायत्री। संक्षेप में गायत्री में सन्निहित तत्वज्ञान का जन-मानस में प्रवेश करना-ज्ञानयज्ञ का युग अनुष्ठान करना-विचारक्रान्ति के रूप में अपना लीला संलाप प्रस्तुत करना यही होंगी अनाचारी असुर को निरस्त करने के लिए प्रज्ञा ही समर्थ हो सकती है। वही होगी भी। विश्व के नये निर्धारण में जिन आस्थाओं, विचारणाओं एवं परम्पराओं का उपयोग होना है वे सभी गायत्री महामन्त्र में सन्निहित प्रेरणाओं से ही अनुप्राणित होंगी। यह विश्व माता के रूप में आद्यशक्ति का युग अवतार है। चौबीसवें अवतार को निष्कलंक कहा गया है। पूर्णतः निर्दोष, निष्कलंक कोई मनुष्य नहीं हो सकता। कोई शरीर धारी कितना ही शुद्ध क्यों न हो कलंक कालिमा को कुछ चिन्ह बने ही रहेंगे। निष्कलंक तो विवेक ही है। विवेक ही सत्य को सही रूप में प्रस्तुत करता है। सत्यनारायण कहा जाय अथवा विवेक नारायण। इस नामों में भगवान के उसी रूप को मान्यता मिली है; जिसे प्रज्ञावतार कहा जा रहा है। प्रज्ञावतार कहा जा रहा है। प्रज्ञा के सम्मुख समस्त संसार श्रद्धावनत होने जा रहा है। इसके सूत्र संकेतों को प्रधानता देते हैं। नवयुग की मान्यताओं एवं परम्पराओं का निर्धारण एवं प्रचलन होने की सुनिश्चित सम्भावना है। गायत्री मन्त्र किसी देश, जाति, धर्म के सीमा बन्धनों में जकड़ा न जा सकेगा, उसे विश्व का भाग्य निर्माण करने वाली दिव्य प्रेरणा के रूप में लोक मान्यता मिलेगी। ऐसी दशा में यह उचित ही होगा कि युग शक्ति को प्रतीक प्रतिष्ठापना को भावभरा प्रश्रय दिया जाय तीर्थ परम्परा को पुनर्जीवित करने में उसी को प्राथमिकता मिले। यह इसलिए भी आवश्यक है कि जिन आदर्शों के अनुरूप व्यक्ति और समाज को ढलना है उनके प्रशिक्षण को समर्थ माध्यम गायत्री के विग्रह को ही उपयोग क्यों न किया जाय? आद्यशक्ति को युग शक्ति के रूप में प्रकट होने एवं विश्व माता की भूमिका निभाने की प्रक्रिया का उपयुक्त अवसर गायत्री तीर्थों की स्थापना से जैसी अच्छी तरह सम्भव हो सकता है। उतना अन्य किसी प्रकार नहीं।

बसन्त पर्व पर युग सृजन की महाशक्ति के हर वर्ष नये निर्देश उतरते हैं। युग निर्माण मिशन की गतिविधियों का अद्यावधि सूत्र संचालन इसी क्रम से होता चला आया है। इस बसन्त पर्व पर गायत्री शक्ति पीठों का विश्व व्यापी प्रतिष्ठापना की प्रेरणा उभरी है। महाकाल के संकल्प कभी अधूरे नहीं रहे। इस सन्देश के अपूर्ण रहने की कोई आशंका नहीं मनुष्य तुच्छ है, उसके साधन भी स्वल्प हैं, प्रतिभा एवं पराक्रम भी सीमित हैं। इसलिए उसके निजी प्रयासों में परिस्थिति के अनुरूप कुछ सफल कुछ असफल होते रहते हैं। किन्तु देवी संकल्प के बारे में ऐसी कोई बात नहीं है। सर्व समर्थ सत्ता अपने प्रयोजन पूरे तो उसी मनुष्य शरीर द्वारा ही कराती है, पर वस्तुतः उसको सम्भालने, साधन जुटाने और सफल बनाने का उत्तरदायित्व वह स्वयं ही सम्भालती है। श्रेय उन सौभाग्यशालियों को अनायास ही मिल जाता है जो ऐसे महान प्रसंगों में प्रभु कृपा से निमित्त बन जाने को बनाये जाते हैं। प्रज्ञावतार का आलोक विश्व व्यापी बनाने के लिए गायत्री तीर्थों की स्थापना का अभियान भी ऐसा ही है जिसे पूरा तो कुछ मनुष्य ही करेंगे पर सूक्ष्मदर्शी उसकी सफलता में अदृश्य शक्ति द्वारा सूत्र संचालन होने तथा साधन व्यवस्था का एकत्रीकरण किये जाते प्रत्यक्ष अनुभव करेंगे।

गायत्री शक्ति पीठ का प्रथम शिलान्यास ब्रह्मवर्चस हरिद्वार में हुआ है। चौबीस अक्षरों की चौबीस प्रतिमाओं का परिचायक यह धर्म संस्थान अन्तर्राष्ट्रीय गायत्री तीर्थ माना जायगा। इसी का विस्तार दूसरे चरण में 24 गायत्री तीर्थों की स्थापना के रूप में किये जाने का निर्धारण है। यह 24 स्थापनाएँ भी एक क्रम व्यवस्था मात्र है। इसे विराम निर्धारण समझा जाय। वस्तुतः उसका विस्तार होगा और वह प्रगति 108 की संख्या को पार करती हुए 240 प्रतिष्ठापनाओं में गिनी जा सकेगी। यह विस्तार क्रम है। यह आरम्भ चर्चा है अन्तिम सिरे तक पहुँचते-पहुँचते भारत भूमि को पार करके इन निर्माणों को देख-देशान्तरों में होते हुए देखा जा सकेगा।

सर्वप्रथम परम्परागत तीर्थों वाले स्थानों का चयन किया गया है। क्योंकि धर्म प्रेमी जन-समुदाय कभी न कभी, किसी न किसी तीर्थ में जाही पहुँचेगा वहाँ पहुँचने पर उसे इस विस्तार में छोटी किन्तु ऊर्जा भरी-पूरी गायत्री शक्ति पीठ में पहुँचने का अवसर निश्चित रूप से मिलेगा। किसी तीर्थ यात्री के लिए सम्भव ही न होगा कि बिना इन नव निर्मित तीर्थों का आलोक ग्रहण किये वापिस लौट सके। धर्म श्रद्धा युक्त आत्माएँ आसानी से युग शक्ति के अवतरण का तथ्य समझने और हृदयंगम करने के सौभाग्य से लाभान्वित हो सकेंगी। प्रस्तुत गायत्री तीर्थों की स्थापना से यह पुण्य प्रयोजन सहज ही पूरा हो सकेगा।

गायत्री शक्ति पीठों की स्थापना के प्रथम चरण में 24 पुरातन तीर्थों को प्राथमिकता दी गई है। प्रस्तुत योजना के अंतर्गत यह स्थान इस प्रकार है-

उत्तर प्रदेश- (1) प्रयाग (2) काशी (3) अयोध्या (4) बद्रीनाथ (5) चित्रकूट।

गुजरात- (6) अम्बाजी (7) डाकेरजी (8) जूनागढ़ (9) द्वारिका (10) सोमनाथ

मध्य प्रदेश- (11) उज्जैन (12) ओंकारेश्वर (13) अमर कंटक।

बिहार- (14) गया (15) बैजनाथ धाम।

उड़ीसा- (16) जगन्नाथ पुरी।

राजस्थान- (17) नाथद्वारा (18) पुष्कर।

हरियाणा- (19) कुरुक्षेत्र।

जम्मू-काश्मीर- (20) वैष्णव देवी।

महाराष्ट्र- (21) नासिक (22) पंढरपुर।

दक्षिण भारत- (23) रामेश्वरम् (24) तिरुपति बाला जी।

नामों का यह प्रथम निर्धारण है। जहाँ अधिक उत्साह दिखाया गया है। उन तीर्थों के लिए अतिरिक्त निर्णय किया गया है। ऐसे निर्णयों में गुजरात के दो स्थान बढ़ाये गये है। (1) चाडोद (2) वीर पुर। इन्हें पच्चीसवाँ और छब्बीसवाँ माना जा सकता है। उड़ीसा में जगन्नाथ पुरी के अतिरिक्त (1) राउर केला और (2) काँटा भाँजी का भी ऐसा ही आग्रह हैं और उसे लगभग स्वीकार ही किया जा रहा है। इस प्रकार उड़ीसा में भू पूर्ण निर्णय के अतिरिक्त दो तीर्थ और बढ़ चले इन्हें सत्ताईसवाँ और अट्ठाईसवाँ कहा जा सकता हैं।

जहाँ पुराने तीर्थ नहीं है वहाँ के स्थानीय लोगों के आग्रह उत्साह को देखते हुए नई स्थापनाओं के संदर्भ में उदार विचार किया जा रहा है। पूर्व घोषित चौबीस में कुछ स्थान ऐसे है जहाँ इस वर्ष व्यवस्था बनती नहीं। दीखती। इसलिए इनके स्थान पर दूसरे निर्धारित करने जैसे परिवर्तनों को भी सम्भावना है।


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