व्यक्ति और समाज के उत्थान में तीर्थ प्रक्रिया का योगदान

May 1979

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प्रतीत यह होता है कि पदार्थों का महत्व सर्वोपरि है। जिसके पास जितने साधन हैं वह उतना ही सुखी और समर्थ है। इस प्रकार यह भी समझा जाता है कि परिस्थितियाँ जिसके अनुकूल हैं वह प्रसन्न रहता है और प्रगति करता है। जन मान्यता यही है; पर गइराई में उतरने पर कुछ और ही तथ्य सामने आते हैं। मूल वस्तु, साधन और परिस्थितियों का समन्वय-वैभव नहीं मनुष्य का व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व, चिन्तन और चरित्र से मिल कर बनता है। आस्थाओं में आदर्शवादी मान्यताओं का जितना गहरा समावेश होगा इच्छाएँ, विचारणाएँ, क्रियाएँ उसी स्तर की बन पड़ेगी। बहुत समय तक जिस दिशा धारा में बहते रहा जाय वही आदत बन जाती है और स्वभाव के रूप में प्रकट होती है। व्यक्तित्व इसी परिकर का नाम है। व्यक्तित्व में चुम्बकत्व होता है। वह अपने अनुरूप मनुष्यों, साधनों एवं परिस्थितियों को खींचता और जमा करता जाता है। यह संचय वैभव-वर्चस्व आदि के रूप में दृष्टि गोचर होता है।

व्यक्तित्व ही मनुष्य के सुख-दुख का, उत्थान-पतन का, सहयोग-विरोध का आधार भूत कारण है। बाहर से थोपा हुआ वैभव या तो ठहरता ही नहीं, ठहरता है तो दुर्बुद्धि उसका दुरुपयोग करके उलटे विपत्ति ही उत्पन्न करती है। उच्चस्तरीय व्यक्तित्व अपनी विशेषताओं के कारण गई गुजरी परिस्थितियों में रहते हुए भी आन्तरिक क्षमता के बल-बूते चट्टानों की दरारों में उगने वाले वृक्षों की तरह ऊँचे उठते है। निर्झरों की तरह मार्ग के अवरोधों को चीरते हुए आगे बढ़ते हैं।

व्यक्तित्व का समूह ही समाज है। समाज का ही बड़ा रूप राष्ट्र एवं विश्व है। व्यक्तियों के घटक मिल कर ही समाज या राष्ट्र की रचना करते है। यह घटक जिस स्तर के होंगे उनका समूह भी उसी स्तर का बन जायगा। समाज में फैली हुई अवांछनियताएं एवं अव्यवस्थाएं वस्तुतः उन घटनाओं की ही क्षुद्रता की-निष्कृष्टता की परिणिति होती है। समाज में असंख्यों अव्यवस्थाओं से, राष्ट्र और निर्गुण होते हुए भी सब ओर से हाथ पैर वाला तथा सब ओर से नेत्र, सिर और मुख वाला है। वस्तुतः ब्रह्म का या चेतना का, कोई स्थूल स्वरूप आँखों से नहीं देखा जा सकता फिर भी ऐसी कोई घटना नहीं होती जिससे चेतना को अनभिज्ञ रखा जा सके अथवा किसी घटना क्रम में उसके अस्तित्व को, कारण को अस्वीकारा जा सके।जो विभु में है वही अणु में भी है, जो ब्रह्मांड को अगणित समस्याओं से, व्यक्ति को अनेकों विपत्तियों से घिरा हुआ देखकर यों उनके अलग अलग कारण खोजे और उपाय सोचे जा सकते है; पर यह सब होता उथला ही है। मूलतः व्यक्तित्वों में घुसी हुई निकृष्टता ही इन सभी क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति की दुखद प्रतिक्रिया प्रकट कर रही होती है। समाधान और सुधार के अनेकों उपाय सोचे और प्रयास किये जा सकते है। आर्थिक अभावों को दोष दिया जा सकता है। समाज, धर्म, शासन, दैव आदि में से किसी को अथवा इन सबको विपत्तियों का कारण ठहराया जा सकता है। यह उथली समीक्षायें है। वास्तविक एक ही है कि व्यक्तित्व में घटियापन का घुसा होना ही समस्त विपत्तियों का एक मात्र कारण है। सुधार की परिवर्तन की, इच्छा हो तो हेर-फेर के लिए इसी केन्द्र पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

इन तथ्यों को गंभीरतापूर्वक समझने वाले तत्व दर्शियों ने मानवी प्रगति और समृद्धि की समस्या को ध्यान में रखते हुए आधार भूत उपाय यह सोचा कि जनमानस को परिष्कृत करने की दूर गामी योजना एवं सुव्यवस्थित अवधारणा विनिर्मित विकसित की जाय। धर्म-धारण के विशाल काय कलेवर के मूल में यही तथ्य, अभिप्रेत हैं। पशु प्रवृत्तियों को मानवी संस्कृति में परिणित करने के लिए ही व्यक्ति के स्तर से ताल-मेल रखने वाले धर्मोपचारों का निर्धारण किया गया है। ऋषियों की शास्त्रकारों की सारी सूझ-बूझ उसी प्रयोजन में संलग्न रही है उनने जिन प्रथा प्रचलनों का, धर्मानुष्ठानों का, दार्शनिक निर्धारणों का निर्माण, प्रचलन किया उनमें इसी मूल उद्देश्य को समाहित रखा कि व्यक्ति का अन्तरंग उच्चस्तरीय बने, उसकी आस्थाओं का स्तर ऊँचा उठे। संक्षेप में इसी प्रयास को धर्म प्रतिपादनों के विभिन्न रूपों में समाविष्ट देखा जा सकता है।

कहना न होगा कि धर्म धारणा को विकसित करने में शास्त्र-संरचना और दार्शनिक-स्थापनाओं का बड़ा महत्व है; पर उस महत्व की सार्थकता तब बनती है, जब जन-जन को उससे अवगत एवं प्रभावित किया जाय। इतना ही नहीं स्थिति यहाँ तक पहुँचाई जाय कि आदर्शवादी आस्थाओं को अपनाने और व्यवहार में उतारने के लिए भी मनुष्य को सहमत-समुद्यत किया जा सके। इसके निमित्त किये जाने वाले उपायों को धर्मों-प्रचार कहा जाता है। धर्म धारण की स्थापना और धर्मोपचार को उसका क्रिया पक्ष कह सकते है। दोनों के समन्वय को ही परिपूर्ण धर्म पक्ष कह सकते है। दोनों के समन्वय को ही पूर्ण धर्म प्रक्रिया समझा जा सकता है।

धर्म को मानव जीवन का अंग बनाने के लिए उसकी आस्थाओं और आदतों को समुन्नत-सुसंस्कृत बनाने की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए एक सीमा तक तो शास्त्र के, साहित्य के माध्यम से भी कार्य हो सकता है; पर अधिक प्रभावी और पूरक उपाय यही है कि उत्कृष्टता सम्पन्न महा मानवों का प्रभाव में जड़ी हुई महानता जन-जन को प्रभावित करे। उठे हुए ही उठाने में समर्थ होते है। इसलिए तपःपूत प्रतिभाओं को जन संपर्क का अधिकाधिक अवसर मिले इसके लिए धर्म-चेतना के निर्धारण कर्ताओं ने पूरा-पूरा ध्यान रखा और स्थान दिया है। कथा प्रवचनों की सत्संग, सान्निध्य की प्रक्रिया इसी निमित्त चलती है। सामूहिक धर्मानुष्ठान में धर्मोपदेशों को अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रखा जाता है। द्रव्य-यज्ञ का ज्ञान-यज्ञ अविच्छिन्न अंग है। पर्व संस्कारों के अवसर पर ज्ञान गोष्ठियां होती है और पुरोहित उस अवसर पर किये जाने वाले कुकृत्यों की व्याख्या विवेचना करके उपस्थित लोगों में स्थिति के साथ संगति मिलाते हुए शालीनता अपनाने की प्रेरणा भरते है। धर्म कुकृत्यों को शरीर और धर्म-प्रेरणा को प्राण माना गया है। दोनों के समन्वय से ही धर्मोपचारों का उद्देश्य पूरा होता है। इस तथ्य को आरम्भ से ही समझा जाता रहा है और मनुष्य को आस्थावान बनाने के लिए मनीषियों द्वारा प्रबल प्रयत्न किया जाता रहा है।

इन प्रयत्नों में अत्यधिक महत्व पूर्ण धर्मचर्यातीर्थ है। तीर्थ स्थापना के दोनों ही प्रयोजन सर्वविदित है एक यह कि समय-समय पर अपनी सुविधानुसार व्यक्ति आये और उसे उपयुक्त वातावरण में आरण्यकों के तत्वावधान में तीर्थ वास करके सीमित काया-कल्प का लाभ उठायें। इस कार्य में तीर्थ संचालक-ऋषि इन आगंतुकों की भाव भरी सेवा सहायता करते थे। अपने स्नेह सौजन्य, अतिथि सत्कार एवं भाव भरे परामर्शों से तीर्थ यात्री को निहाल कर देने वाले व्यक्तित्व ही जीवन्त तीर्थ कहलाते थे। प्राकृतिक सौंदर्य के नदी-सरोवर, उत्साह भरने वाले देवालय भी तीर्थ-बास के लाभ में चार चाँद लगाते और सोने में सुगन्ध उत्पन्न करते थे। इतने पर भी मूल केन्द्र तीर्थों के ऋषि आश्रम आरण्यक ही होते थे। उनमें प्राप्त होने वाली प्रेरणा तथा वहाँ रह कर की जाने वाली साधना ही आगंतुकों को पुण्य फल प्रदान करती थी जिसकी संगति तीर्थ माहात्म्य के साथ पूरी तरह बैठ जाती है।

तीर्थ तंत्र के संचालकों की गति विधियाँ तीन भागों में विभक्त थीं।

(1) तीर्थ बास के लिए आने वाले धर्म प्रेमियों के लिए साधना एवं शिक्षण की समुचित व्यवस्था। इस क्रमबद्ध साधना सत्र प्रक्रिया भी कह सकते है।

(2) तीर्थ के समीप वर्ती क्षेत्र को एक मण्डल बना कर उसमें पुरोहितों का परिभ्रमण करना और उस परिधि में नियंत्रित रूप से धर्म चेतना उत्पन्न करते रहने का उत्तर दायित्व संभालना। इन धर्म मंडलों की सुव्यवस्था बनाये रहने वाले मंडलाधीश या मंडलेश्वर कहलाते थे। इन मंडलों के केन्द्रीय स्थानों को मठ कहा जाता था।

(3) उस समय पर उन तीर्थों में स्वल्प काल के लिए दूर-दूर से जन समुदाय को आसीन होने की प्रेरणा देना। यह कार्य पर्व स्नान के रूप में होता था। यह एक प्रकार से धर्म सम्मेलन थे। अभी भी संस्थाएँ अपने वार्षिकोत्सव मनाती और सामयिक आयोजन करती है। इनका उद्देश्य बड़ी संख्या में जनता को एकत्रित करके उनमें अभीष्ट प्रेरणाएँ भरना होता है। पर्वों पर तीर्थ स्थान का विशेष महत्व इसी दृष्टि से बताया गया था कि धर्म प्रेमियों का बड़ा समुदाय एक ही समय एकत्रित होकर ऋषियों द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली सामयिक प्रेरणाओं को ग्रहण करें और अपने-अपने स्थानों पर जाकर उस चेतना का विस्तार करें।

तीर्थों, दर्शनों के लिए यों तो धर्म प्रेमी सदा ही जाते रहते हैं; पर विशेष पुण्य फल पर्व स्थान का माना जाता है। इसका कारण ऊपर की पंक्तियों में स्पष्ट है। पर्व, अनायास ही धर्म सम्मेलनों का प्रयोजन, पूरा करते थे। जन चेतना का उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर होने का इन आयोजनों से विशेष उद्देश्य पूरा होता था।

कभी-कभी धर्म-सेवियों का, ऋषि-तपस्वियों का भी मिलन सम्मेलन होता था; ताकि वे मिल जुल कर सामयिक समस्याओं पर विचार कर सकें, पारस्परिक सुख दुःख की पूछ ताछ कर सकें, एक दूसरे के अनुभव से लाभ उठा सके; अधिक संगठित हो सके; समय की माँग का पूरा करने के लिए मिल जुल कर उपाय निर्धारित कर सके। ऐसे-ऐसे अनेक उद्देश्य उन विशिष्ट आयोजनों के साथ जुड़े रहते थे जिनमें मुख्यतया धर्म सेवियों की-सन्त परिव्राजकों की उपस्थिति ही आवश्यक होती थी। कुम्भ पर्व जैसे आयोजन इसी उद्देश्य से निर्धारित किये गये थे। यह चलते फिरते तीर्थ थे। अपना स्थान और क्रम बदलते रहते थे। कुँभ पर्वों की योजना दृष्टव्य हैं। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन, नासिक इन चारों स्थानों पर तीन-तीन वर्ष बाद प्रायः एक-एक महीने के कुँभ पर्व होते है। बारह वर्ष में यह चक्र पूरा होता है। धर्म प्रचारकों की सन्त मंडलियाँ इन आयोजनों में पहुँचती थी। इस प्रकार उस समय की व्यवस्था के अनुरूप बने एक बड़े धर्म क्षेत्र का भ्रमण चक्र पूरा हो जाता था। सभी धर्म प्रचारक, सभी क्षेत्रों में पहुँचने, वहाँ की स्थिति समझने और पारस्परिक संपर्क को सघन बनाने का आनन्द उपलब्ध करते थे।

जहाँ देश भर के धर्म सेवी एकत्रित हों वहाँ जनता की सहज रुचि होना स्वाभाविक है। तीर्थ स्नान से भी बड़ा पुण्य समझा जाता था-सन्त समागम। इसके लिए साधन सम्पन्न लोग सदावर्त-जल प्रबन्ध, निवास व्यवस्था आदि की सुविधा बनाने के लिए दान पुण्य करते थे।

विभिन्न वर्गों में मूर्धन्य मनीषी अभी भी राजनैतिक एवं सामाजिक स्तर पर मिलते जुलते रहते है। पारस्परिक सहयोग आदान-प्रदान का इन सम्मेलनों से मार्ग खुलता है और उत्साह वर्धक परिणाम निकलता है। सरकारी तत्वावधान में में समय-समय पर ऐसे सेमिनारों की व्यवस्था बनती रहती है जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान, न्याय, व्यवस्था आदि उपयोगी विषयों पर मिल जुल कर अधिक सोचने एवं प्रगति के उपाय खोजने में सुविधा उत्पन्न हो। काँग्रेस आदि बड़ी संस्थाओं के वार्षिकोत्सवों के अवसर पर उन्हीं पंडालों में अन्याय संस्था संगठनों के भी आयोजन चलते रहते है। कुँभ जैसे पर्वों का प्राचीन काल में ठीक यही रूप था। विभिन्न संतों की विभिन्न प्रेरणाओं एवं निर्धारणों से अवगत होते और किसी उपयुक्त निष्कर्ष पर पहुँचने की दृष्टि से यह कुँभ पर्व जैसे विशाल आयोजन अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमा सम्पन्न करते थे।

स्मरण रहे यह समस्त गतिचक्र तीर्थों की धुरी पर परिभ्रमण करते थे। बार-बार स्थान बदलने से नये प्रकार की नई व्यवस्था जुटानी पड़ती है और नई समस्याओं का सामना करना पड़ता है समय की अलग से सूचना भेजनी पड़ती और स्थानीय परिस्थितियों से तालमेल बिठा कर उनका प्रबन्ध करने में विशेष सूझ बूझ एवं विशेष तत्परता का परिचय देना पड़ता है। किन्तु अमुक तीर्थ में अमुक पर्व पर पहुँचने की बात निश्चित रहने पर नये आमन्त्रण भेजने से लेकर नई व्यवस्था बनाने तक के सारे झंझट मिट जाते थे। न विद्वानों को बुलाना पड़ता था न जनता को आमन्त्रित, आकर्षित करने को दौड़ धूप करनी पड़ती थी। सब कार्य सहज स्वाभाविक रूप से सम्पन्न होते रहते थे और विशाल कार्य धर्म सम्मेलनों की व्यवस्था अपने गति चक्र पर सरलता पूर्वक परिभ्रमण करती रहती थी।

जब तीर्थ उपरोक्त तीनों भूमिका निभाते रहे होंगे तब उसके सुखद परिणाम किस प्रकार किस परिणाम में प्रस्तुत होते होंगे, इसका परिचय अभी भी पुरातन इतिहास की झाँकी करने पर मिल जाता है। अतीत की स्वर्णिम परिस्थितियाँ दैवी वरदान थीं जिनने इस महान देश के नागरिकों को-उनके देश को सच्चे अर्थों में गौरवान्वित किया। यह दैवी वरदान संभवतः स्वर्ग से उतरता होगा और उसे देवता अपने पुष्पक विमानों पर चढ़ कर बरसाते होंगे। जो इस मान्यता को संदिग्ध मानते हों उन्हें तीर्थों को, उनके संचालक ऋषियों को वह केन्द्र मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए जहाँ से भारत भूमि को स्वर्गोपम परिस्थितियों से भरा पूरा बनाने वाले वरदान बरसा करते थे।

यह अतीत की चर्चा हैं। तथ्य भी है और इतिहास भी। इसकी साक्षी प्रस्तुत तीर्थों में जाकर लकीर पिटने के रूप में चलने वाली प्रथा परम्पराओं को देखने से उपलब्ध हो सकती है। जिन दिनों तीर्थ जीवन्त रहे होंगे अपने उद्देश्य की पूर्ति में प्राण पण से निरत रहे होंगे तब कितना सौभाग्य सुअवसर जन-जन को मिलता होगा। उसको स्मृति मात्र से अन्तःकरण पुलकित हो आता है और उस तीर्थ परम्परा को उसके निर्धारण कर्ताओं को शत-शत नमन करने को जी करता है, जिनने अपने समय में जन आस्था को उत्कृष्ट बनाने में अपने ढंग से महान भूमिका निभाई।

आज तीर्थों की काया तो विद्यमान है, पर उनकी आत्मा सुषुप्ति में चली गई। प्रसुप्ति मृत्यु तो नहीं है पर उस स्थिति में आचरण मृतकवत ही होते हैं। तीर्थ अभी भी विद्यमान है। पहुँचने वालों की भीड़ स्नान दर्शन, दान पुण्य आदि के कृत्य वैसे ही होते हैं। अन्तर एक ही है जागृति, सुषुप्ति के गर्त में जा गिरी। प्रथा रह गई, प्रेरणा बुझ गई।

समय की पुकार है कि मूर्छना को जागृति में बदला जाय। नव जागरण के इस पुण्य प्रभाव में तीर्थों के धर्म बिन्दु को उपेक्षित नहीं छोड़ा जा सकता, मैले कपड़े धोये जा सकते हैं-टूटी वस्तुओं की मरम्मत हो सकती है, रोगी को स्वास्थ बनाया जाता है, अपराधी सुधरते हैं। तो कोई कारण नहीं कि तीर्थों को निहित स्वार्थों एवं अन्ध विश्वासों से छुड़ा कर उनके पर्व रूप में न पहुँचाया जा सके।

व्यक्ति और समाज को समुन्नत बनाने के लिए उच्च स्तरीय आस्था का निर्माण एवं अभिवर्धन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इस पुण्य प्रयोजन के लिए अतीत की तरह वर्तमान में भी तीर्थ संस्थान अपनी महती भूमिका निभा सकते है और उज्ज्वल भविष्य के निर्धारण में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।


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