धर्म धारण के आलोक केन्द्र तीर्थ

May 1979

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पानी का स्वभाव नीचे की ओर बहना है। मनुष्य का मन भी पानी की तरह है, जो पतनोन्मुख प्रवृत्तियों को सहज ही अपना लेता है। इसमें जन्म-जन्मान्तरों की संचित पशु प्रवृत्तियों का अभ्यास उसे मानवी गरिमा को अपनाने की दिशा में बढ़ने से प्रायः रोकता ही रहता है। ऊँचा उठने के लिए-विशेष प्रयत्न करने पड़ते है। पानी को कुँए से ऊपर खींचना हो तो कई साधन जुटाने पड़ते है और बल लगाना पड़ता है। इसी प्रकार मनुष्य को ऊँचा-चढ़ना हो तो सीढ़ी आदि की व्यवस्था करनी पड़ती है। नीचे गिरना हो तो पानी, मनुष्य या कुछ भी, क्षण भर में गहरे गर्त तक पहुँच सकता है। ऊँचा उठना बड़ा काम है। उसके लिए आवश्यक व्यवस्था बनानी पड़ती है। क्रेनें इसी काम में लगी रहती है। पम्पों को यही करना पड़ता है। लिफ्टों का यही कार्य है। आगे बढ़ाना भी लगभग इसी प्रकार का काम है। पैदल चलना हो तो भी शक्ति चाहिए। दौड़ने वाले वाहनों में भाप, तेल, बिजली आदि की शक्ति नियोजित करनी पड़ती है। इसके लिए अतिरिक्त साधन न जुटाये जायँ तो प्रगति की कल्पना स्वप्न ही बनी रहेगी।

मनुष्य जीवन की विशेषता और सार्थकता उसके उत्थान-अग्रगमन में है। गतिशीलता पशु-प्रवृत्तियों से आगे बढ़ने ऊँचे उठने में है। मनुष्य शरीर पालने से कोई बड़ा लाभ नहीं। सुविधा की दृष्टि से तो अन्य प्राणी भी अपनी आवश्यकतानुसार ईश्वर प्रदत्त सुविधाओं को भोगते और सुखी रहते है। मानवी गरिमा इतने तक ही सीमित नहीं है। उसके कुछ विशेष कर्त्तव्य हैं और विशेष उत्तरदायित्व। चरित्र और चिन्तन में उत्कृष्टता का समावेश ही मनुष्यता है। मर्यादाओं के पालन और आदर्शों का अवलम्बन अन्य प्राणियों से नहीं बन पड़ता। उसे मात्र मनुष्य ही निवाहता है, इसी में उसका गौरव है। मनुष्य शरीर के साथ जुड़ी हुई उपलब्धियों का रसास्वादन एक सौभाग्य है, उसे सुअवसर की सार्थकता इस पर निर्भर है कि मानव गौरव के अनुरूप आदर्शवादिता अपनाई गई या नहीं। सच्चे अर्थों में मनुष्य उसी को कहा जा सकता है, जो मानवी उत्कृष्टा का अवधारणा करके शालीनता, कर्मठता और परमार्थ परायणता का परिचय दे।

एक सीढ़ी इससे भी आगे की है-मानवी काया से देवत्व का उत्पादन, अभिवर्धन। व्यक्तित्व के उच्चस्तरीय उत्कर्ष इसी स्थिति में सन्निहित है। महामानव, सन्त, ऋषि, देवात्मा, अवतार इसी प्रगति यात्रा के क्रमिक सोपान है। जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पशुता से ऊँचे उठकर-मनुष्यता के उत्तरदायित्व सम्भालने पड़ते है-मनुष्य से देवता बनने के लिए गतिविधियों को लोकमंगल में नियोजित करना पड़ता है।

गुण, कर्म स्वभाव में देवत्व की मात्रा बढ़ते चलने से ही आत्म संतोष, लोक सम्मान तथा दैवी अनुग्रह की प्राप्ति होती है जिसकी उपलब्धि को पूर्णता की प्राप्ति कहते है। शास्त्रकारों ने इसी स्थिति का उल्लेख स्वर्ग, मुक्ति के ऋद्धि-सिद्धि के ईश्वर दर्शन आत्म-साक्षात्कार के-रूप में सुविस्तृत वर्णन किये है। आत्मिक प्रगति का स्वरूप एवं क्रम यही है। इसी का विवेचन एवं मार्गदर्शन करने के लिए अध्यात्म तत्वज्ञान की रचना हुई है। ब्रह्म विद्या को इसी निमित्त सृजा गया है। दूरदर्शी ऋषि मनीषियों ने धर्म धारण एवं अध्यात्म साधना का विशालकाय ढाँचा इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया है कि उसके आलोक में मनुष्य प्रगति पथ पर अग्रसर हो सके। अपनी चेतना को-व्यक्तित्व की सत्ता को उच्चस्तरीय बना सके। कहना न होगा कि वैयक्तिक सुख−शांति और सामाजिक सुविधा सुरक्षा के समस्त आधार इसी केन्द्र बिन्दु पर निर्भर है।

मनःस्थिति ही परिस्थिति के रूप में परिणत होती है। बाह्य वैभव आन्तरिक वर्चस् का ही प्रतिफल है। हेय मनःस्थिति में पड़े हुए व्यक्ति परिस्थिति की दृष्टि से दरिद्रता, अवमानना, दुर्बलता, रुग्णता, हीनता, दीनता जैसी पिछड़ेपन की स्थिति से कभी उभर न सकेंगे। बढ़ी हुई सम्पदा भी दुष्प्रवृत्तियों को उभारने के अतिरिक्त और किसी काम में न आ सकेगी। ऐसे लोगों को किसी अनुपयुक्त मार्ग से वैभव हस्तगत हो जाने पर भी कोई विशेष लाभ नहीं होते। आग में ईधन पड़ने से भड़की हुई दुष्प्रवृत्तियां उस बढ़े हुए अनुपयुक्त वैभव के कारण मनुष्य की रही बची शालीनता और शांति को भी नष्ट करके रख देती हैं। वे दरिद्रों की तुलना में भी घाटे में रहते है। व्यक्ति और समाज की समग्र सुख-शांति के लिए सम्पदा से भी अधिक आवश्यकता उच्चस्तरीय आस्थाओं की है। इसके बिना किसी का मनुष्य जीवन सार्थक हो ही नहीं सकता।

तत्वदर्शी मनीषियों ने धर्म और अध्यात्म का तत्वदर्शन सृजा। साथ ही यह प्रयत्न भी किया कि इसे जीवन क्रम में उतारने की विधि व्यवस्था भी बनाई जाय। धर्मधारणा इसी का नाम है। विभिन्न प्रकार के धर्मानुष्ठान इसी के अंतर्गत आते है। इन्हीं आदर्शों के परिपालन के लिए प्रथा परम्पराओं का निर्धारण एवं प्रचलन किया गया। संक्षेप में यही है, विशालकाय धर्म कलेवर जिसके अंतर्गत धारणाओं और कुकृत्यों का द्विधा समावेश है। आचार-व्यवहार क रीति-रिवाजों, नियम-मर्यादाओं के निर्धारण में ध्यान रखा गया है कि मनुष्य को आचारवान बनने की दिशा में अग्रसर करें पीछे भले ही मनुष्य ने अपनी भ्रष्टता और दुष्टता का समावेश करके उन्हें कुरीतियों, अन्ध-विश्वासों एवं अनाचरणों में बदल लिया हो पर मूलतः धर्म की आचार संहिता का सृजन मानवी गरिमा के अनुरूप व्यक्तित्वों को ढालने के लिए ही किया गया था। विकृत होने पर तो अमृत भी विष हो सकता है। धर्म परम्परा भी यदि अंधविश्वासों में परिणत होकर अनुपयुक्त बन चले तो उसमें आश्चर्य ही क्या है। आज हम धर्म विकृति के ऐसे युग में रह रहे हैं जिसमें धर्म तत्व का दर्शन भी कठिन हो रहा हैं। धूर्तों और मूर्खों का समन्वित आधिपत्य ही उस पर छाया दीखता है।

धर्मानुष्ठानों के असंख्य स्वरूप है। सामान्य पूजा उपासना से लेकर उच्चस्तरीय योगाभ्यासों और तप साधनों तक अनेकानेक क्रिया-प्रक्रिया मनुष्य को एक ही लक्ष्य पर ले जाती है कि वह भावनात्मक दृष्टि से अधिकाधिक परिष्कृत होता चल जाय और ऐसी आचार पद्धति अपनाये जो अपने स्वयं के लिए तथा समूचे संसार के लिए श्रेयस्कर सिद्ध हो। धर्मानुष्ठानों के स्वरूप कितने ही प्रकार के क्यों ने हो उनका लक्ष्य एक ही है जीवन क्रम में अधिकाधिक उदात्त उत्कृष्टता का समावेश करते हुए पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचाना और उस स्थिति का व्यक्ति तथा समाज को परिपूर्ण लाभ प्रदान करना। आज धर्मानुष्ठान भले ही देवता को फुसलाकर मनोकामनाएँ पूर्ण करने के लिए किये जाते हों पर इस उद्देश्य से उन्हें बनाया नहीं गया था। परिष्कृत अन्तःकरण अपने आप में एक परिपूर्ण देवता है, उसके अन्तराल से जो कुछ उद्भूत होता है उसे ऋद्धि-सिद्धियों की रत्न-राशि समझा जा सकता है। प्रगति और शांति स्वर्ग और मुक्ति उसी के प्रतिफल है।

मनुष्य को धर्म धारणा के राज मार्ग पर चलकर सर्वतोमुखी प्रगति से लाभान्वित होने के लिए जिन क्रिया कुकृत्यों और विधि-विधानों का निर्धारण किया गया है उनकी संख्या एवं विधि-विधानों का निर्धारण किया गया है उनकी संख्या एवं विधि व्यवस्था का विस्तृत वर्णन करना इन पंक्तियों में अभीष्ट नहीं। यहाँ तो इतना ही समझ लेना पर्याप्त होगा कि दैनिक उपासना, देव प्रतिमाओं का नमन-वंदन-षोड्श-संस्कार, पर्व-त्यौहार, व्रत-उपवास, कथा-कीर्तन, स्वाध्याय, सत्संग, अग्निहोत्र, बलिवैश्व, जप-ध्यान, श्राद्ध-तर्पण, दान-पुण्य, योगाभ्यास, तप-साधन, ब्रह्मभोज, सन्त-सत्कार, सदावर्त, जलाशय, धर्मशाला, स्मारक आदि के अनेकानेक धर्मकृत्यों का वाह्य स्वरूप भिन्न भले ही हो पर उनका मूल प्रयोजन व्यक्ति को अधिक पवित्रता एवं अधिक उदारता अपनाने की प्रेरणा प्रदान करना ही है। इन क्रिया-कुकृत्यों की सार्थकता उतनी ही आँकी जा सकती है; जितने से कि मूल उद्देश्य के पूर्ण होने में सहायता मिलती है। आत्मा की, परमात्मा की प्रसन्नता इसी तथ्य पर निर्भर है कि अपनाये गये धर्म-कुकृत्यों के सहारे आत्म-परिष्कार का लक्ष्य पूरा कर सकना किस परिणाम में सम्भव हुआ। देवता के वरदान इसी एक कसौटी पर कसकर सत्पात्रों को दिये जाते हैं कि उनने धर्म-कुकृत्यों को अपना कर अपनी आन्तरिक उत्कृष्टता का कितना विकास किया। देव अनुग्रह की मात्रा और प्रतिक्रिया इसी आधार पर उपलब्ध होती है। आज भले ही प्रशंसा करने और उपहार देने के मूल्य पर दैवी अनुकम्पा पाने की बात सोची जाने लगी हो पर यथार्थता कुछ और ही है। धार्मिकता की सार्थकता और उस मार्ग पर चलने वाले को मिलने वाली सर्वतोमुखी सुसम्पन्नता का आधार केवल एक ही है कि इन उपचारों के सहारे किसने आत्मपरिष्कार में कितनी सफलता प्राप्त की।

धर्म-कुकृत्यों में सबसे अधिक व्यापकता, विशालता और लोक-मान्यता-तीर्थयात्रा को मिली है। ध्यान पूर्वक देखने से विदित होता है कि अन्याय धर्म-कुकृत्यों के लिए धर्म प्रेमी जन-समुदाय का जितना श्रम, समय, मनोयोग एवं धन खर्च होता है उस सब का समन्वय करने से भी अधिक प्रयत्न तीर्थ यात्रा के लिए नियोजित करते है। भारत में हजारों बड़े और लाखों छोटे तीर्थ है। अपने-अपने क्षेत्रों में इन सभी की महिमा और मान्यता है। लोग श्रद्धा पूर्वक तीर्थ सेवन के लिए समय, श्रम, मनोयोग एवं धन का प्रचुर परिणाम में खर्च करते हैं। समय-समय पर तीर्थयात्रा के विशेष पर्व करते है। उन पर पवित्र जलाशयों में स्थान करने एवं देव प्रतिमाओं का दर्शन करने अगणित लोग भाव श्रद्धा लेकर पहुँचते है। विशेष पर्वों पर भीड़ इतनी हो जाती है कि उसकी व्यवस्था बनाने में सरकार तक को भरी दौड़-धूप करने एवं जिम्मेदारी उठाने की आवश्यकता पड़ती ह। सामान्य अवसरों पर भी लोग तीर्थ यात्रा की धर्म भावना से वहाँ पहुँचते ही रहते हैं।

प्रसिद्ध तीर्थों में अनेक पर्व होते है। इन विशिष्ट अवसरों से लेकर सामान्य दर्शन तक को पहुँचने वाले यात्रियों की गणना की जाय तो वह संख्या लाखों को पारकर जाती है। बड़े तीर्थ हजारों है। उन सब में पहुँचने वाले हर साल करोड़ों होते है। छोटे तीर्थ इनके अतिरिक्त है। उनमें भी कुछ सिलसिला तो चलता ही रहता है। कुम्भ-मेले बड़े आयोजनों की विशालता तो आश्चर्यजनक होती है। इन सबमें सम्मिलित होने वाले जन-समुदाय का लेखा-जोखा लिया जा सके तो प्रतीत होगा कि करोड़ों व्यक्ति वहाँ पहुँचते हैं। यह ठीक है कि हर प्रकृति के लोग उनमें नहीं जाते, पर ऐसा भी होता है कि एक ही व्यक्ति बार-बार कई-कई तीर्थों में पहुँचे। हर हालत में उपस्थित का अनुपात इतना अधिक रहता है कि उसे असाधारण ही कहा जा सकता है। अभ्यास में आने वाले प्रचलन में सम्मिलित रहने के कारण वह स्वाभाविक-सामान्य भले ही लगने लगे पर वस्तुतः वैसा है नहीं। इतनी बड़ी जन-शक्ति का एक विशिष्ट प्रयोजन के साथ सम्बद्ध रहना-उसके निमित्त इतना समय, श्रम, मनोयोग और धन खर्च करना कुछ अर्थ रखता है। तीर्थ प्रयोजन में संलग्न जन शक्ति और धन शक्ति का विस्तार इतना बड़ा है कि उतने भर से अधिक प्रगति के नाम पर खड़ी की जाने वाली कई-कई पंचवर्षीय योजनाएँ सफलता पूर्वक चलाई जा सकती है। इतना श्रम और धन शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग आदि किसी भी केन्द्र पर नियोजित किया जा सके तो उतने अनुदान से उस क्षेत्र में काया-कल्प जैसी प्रगति हो सकती है। जन साधारण द्वारा एक पवित्र प्रयोजन के लिए इतने भावभरे अनुदान प्रस्तुत करते हुए देखकर प्रतीत होता है कि जन मान्यता में तीर्थ के लिए कितनी आस्था विद्यमान है। इस श्रद्धा और चेष्टा के समन्वय का प्रतिफल ऐसा उत्पन्न होना चाहिए कि निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति और अभीष्ट की पूर्ति हो सके। तीर्थों की स्थापना उनकी यात्रा का इतना सुविस्तृत प्रावधान इसलिए बना कि उस पुण्यप्रक्रिया के संपर्क में आने वाली अपनी गरिमा निखार सके और सामाजिक प्रगति में उत्साहवर्धक योगदान दे सके। आज तीर्थ भी हैं और तीर्थयात्रा का प्रचलन भी। किन्तु सब कुछ खोखला और निर्जीव बन गया। ढकोसला खड़ा रहा और उसमें से प्राण निकल गया है तो उसे निरर्थक विडम्बना के बने रहने या सड़े पदार्थों के फूलते रहने की तरह क्या कुछ बनेगा? इस ज्वलन्त प्रश्न पर आज गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है। साथ ही यह भी अभीष्ट है कि भ्रान्ति या विकृति की इस क्षेत्र में जहाँ घुस पैठ हुई है उसका परिमार्जन, परिशोधन और नवनिर्धारण किया जाय।


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