तीर्थ यात्रा किस प्रकार की जाय, इसका अशास्त्रीय प्रतिपादन यह है कि उसे पद यात्रा के रूप में सम्पन्न किया जाना चाहिए। वाहनों का उपयोग निषिद्ध है। अभी तो तीर्थ यात्रा की इस प्राचीन परम्परा का स्वरूप अनेक स्थानों पर अनेक प्रसंगों पर देखने को मिलता है। गोवर्धन गिरनार पर अनेक प्रसंगों पर देखने को मिलता है। गोवर्धन गिरनार आदि पर्वतों की-ब्रजधाम, प्रयाग पंचकोशी आदि क्षेत्रों की-नर्मदा आदि नदियों की परिक्रमा होती है। इन्हें पैदल ही किया जाता है। शिवरात्रि के अवसर पर शिव प्रतिमाओं पर गंगा जल चढ़ाने के लिए अभी भी कन्धे पर ‘काँवर’ रखकर तीर्थ यात्रा की जाती है। श्रवण कुमार ने गंगाजल के स्थान पर अपने अन्धे माता-पिता को काँवर में बिठा कर तीर्थ यात्रा की थी। जो लोग दूर नहीं जा सकते, समीप ही तीर्थ यात्रा का पुण्य लेना चाहते है वे विशिष्ट पर्वों पर पीपल, बरगद, आँवला, तुलसी आदि की अमुक संख्या में परिक्रमा कर लेते है। देवालयों की प्रदक्षिणा की जाती है। यज्ञ की पूर्णाहुति के समय चार परिक्रमाएँ करने का विधान है। इन प्रचलनों के पीछे उस आदि परम्परा की झाँकी की जा सकती है जिसमें तीर्थों की स्थापना के साथ दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए पदयात्रा जैसी कुछ नियम मर्यादाओं का समावेश किया गया था।
योग साधनाओं में, तपश्चर्याओं में, धर्मानुष्ठानों में महत्वपूर्ण स्थान तीर्थयात्रा का भी है। यह इसलिए कि विचाराधीन धर्मज्ञ जन-जन धर्म धारणा जागृत रखने के लिए गाँव-गाँव पहुँचते घर-घर जाते और अलख जगाते वर्ग के लोग अपनी निर्वाह समस्याओं में ही उलझें रहते है उन्हें धर्म, दर्शन अध्यात्म जैसी उच्चस्तरीय अनुभूतियों के साथ संपर्क मिलाने की इच्छा ही नहीं होती। इच्छा हो तो अवसर नहीं मिलता। नगरों से दूर छोटे देहातों में प्रायः हर तरह के साधनों का अभाव रहता है। ऐसी दशा में उनकी मनःस्थिति एवं परिस्थिति इस योग्य नहीं रहती कि वे जीवन लक्ष्य को समझने और उसे उपलब्ध करने के लिए उपयुक्त प्रकाश प्राप्त कर सकें। बड़े नगरों में सम्पन्न लोगों के पास ज्ञानवान और विद्वान भी आसानी से पहुँचते रहते हैं, सुविधा साधन हर किसी का अपने निकट खींच बुलाते है। कथा प्रवचनों और सत्संगों की वहाँ कमी नहीं रहती। लाभ उठाना न उठाना इच्छा पर निर्भर है, पर वहाँ ज्ञान का आलोक पहुँचने में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं है। देहातों की स्थिति ऐसी नहीं है। वहाँ छाया हुआ आर्थिक एवं बौद्धिक पिछड़ापन न तो धर्म जिज्ञासा के प्रति उत्साह उत्पन्न होने देता है और न साधनों के अभाव में परिस्थितियों के दबाव से कहीं दूर स्थान पर जाकर धर्म प्रवीणों के साथ संपर्क साधने का अवसर ही मिल पाता है। वे अन्यत्र जा नहीं सकते; उनके पास कोई पहुँचता नहीं। ऐसी दशा में पिछड़े क्षेत्र धर्म चेतना से लाभान्वित होने का सौभाग्य प्रायः प्राप्त ही नहीं कर पाते।
धर्म प्रचारकों को भी ऐसे क्षेत्रों में पहुँचने में उत्साह नहीं होता। दक्षिणा, सुविधा, सम्मान का अभाव यातायात साधनों की असुविधा उन्हें उन क्षेत्रों जाने से निरुत्साहित करती है। जब साधन सम्पन्न क्षेत्रों में ही उनकी बहुत माँग है और उन्हीं से फुरसत नहीं मिलती तो फिर पिछड़े क्षेत्रों में अनेकानेक असुविधाओं का सामना करने के लिए क्यों जाया जाय? यही व्यवधान है जो पिछड़ेपन को प्रगतिशीलता में परिवर्तित करने वाले प्राणवान सत्संग संपर्क का सुयोग नहीं बनने देते और एक बहुत बड़े वर्ग के पिछड़ेपन की समस्या जहाँ की तहाँ उलझी रह जाती है। बड़ा वर्ग पिछड़े लोगों का है-जनसंख्या की दृष्टि से भारत में तीन चौथाई के लगभग है। उन तक प्रकाश कैसे पहुँचे? उनमें उत्कृष्टा का आलोक कौन जगाये? बिना उत्थान प्रयासों के कुसंस्कारों निष्कृष्टता कैसे घटे? उत्थान का सम्बल कहाँ से मिले? इन प्रश्नों का उत्तर एक ही निकाला गया-तीर्थ यात्रा का प्रचलन।
व्यक्तिगत स्तर की साधनाओं में ही रुचि सनकों को भी रहती है। व्यक्तिगत संपर्क की ललक ही कुछ ऊँचे क्षेत्र में चलकर निजी सिद्धियों के रूप में अपना मुखौटा बदल लेती है। स्वर्ग और मुक्ति को स्वार्थपरता का थोड़ा ऊँचा स्तर कह सकते है। सेठ और सन्त की प्रवृत्ति प्रायः एक ही दिशा में बहती देखी जा सकती है। आत्म साधन का यह स्वरूप न तो वास्तविक है और न उच्चस्तरीय। जिसमें परमार्थ सम्मिलित न हो उसमें अन्तःकरण के विकास विस्तार की सम्भावना भी नहीं है। करुणा के बिना कोई सन्त नहीं हो सकता। उदारता अपनाये बिना आत्म विस्तार का आत्म-कल्याण का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। इन तथ्यों को ध्यान में रख कर ऋषियों ने तीर्थ यात्रा को ऐसी आत्मा साधना के रूप में विकसित किया जिसमें स्वार्थ और परमार्थ दोनों का समान समन्वय है।
धर्म परायण व्यक्ति छोटी बड़ी मण्डलियाँ बनाकर तीर्थ यात्रा के लिए निकलते थे। कहाँ से चल कर, किस मार्ग से, किन-किन स्थानों पर ठहरते हुए कब तक वापस लौटेंगे; इसकी रूप रेखा प्रत्येक मण्डली अपनी-अपनी पृथक-पृथक बनाती थी। मार्ग में जो गाँव झोंपड़े नगले पुरबे मिलते थे उनमें रुकते, ठहरते किसी उपयुक्त स्थान पर रात्रि विश्राम करते थे। यही क्रम निरन्तर चलता था। दिन में जहाँ रुकना वहाँ धर्म चर्चा करना-लोगों को कथा सुनाना और उन्हें उपयुक्त मार्ग-दर्शन देना यह क्रम प्रातः से सायंकाल तक चलता था। रात्रि में जहाँ रुकते वहाँ कथा कीर्तन का-शंका समाधान का सत्संग क्रम बनता था। यही क्रम पद्धति पूरी यात्रा अवधि में बनी रहती थी। काय चिकित्सा, मानसिक समाधान, उपयोगी परामर्श, समर्थ शुभ कामना जैसे अनेकों लाभ इस सन्त मण्डली के संपर्क से जन साधारण की मिलते थे। इन मण्डलियों के स्तर एवं क्रिया कलाप से जन-जन के मन-मन में अपार श्रद्धा उमड़ती थी। अस्तु वे उनके प्रति न केवल भावभरा सम्मान व्यक्त करते थे वरन् उनके लिए आवश्यकता सुविधा जुटाने में पूरा-पूरा सहयोग भी करते थे।
अतिथि को भारतीय संस्कृति में देव की संज्ञा दी गई है और उसका सत्कार करने की बात गृहस्थ धर्म में अविछिन्न रूप से सम्मिलित की गई है। मातृ देवो भव-पितृ देवोभव-आचार्य देवोभव की ही तरह ‘अतिथि देवोभव’ को भी मान्यता दी गई है। माता-पिता गुरु की तरह ही अतिथि को भी देव मानने और उसका सम्मान सत्कार करने का अनुशासन है।
अतिथि दो माने गये हैं- (1) तीर्थयात्री (2) अपंग अपंगों पर करुणा की जाती है और उदार सहृदयता की अभिव्यक्ति के लिए उनके निर्वाह की व्यवस्था की जाती है। तीर्थ यात्री का सत्कार उनकी गरिमा के प्रति नत मस्तक होकर श्रद्धा सहित अर्पण किया जाता है। तीर्थ यात्री जहाँ से गुजरते थे, जहाँ भी ठहरते थे वहाँ व्यक्ति अतिथि सत्कार के रूप में अपनी शालीनता का परिचय देते थे। विदेशी भारत यात्रियों ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि “भारत में दूध की नदियाँ बहती है।” इसका तात्पर्य यह था कि वे जहाँ भी गये वहाँ उन्हें दूध आदि से परिपूर्ण सत्कार मिला। उन दिनों अपंग तो थोड़े से ही थे जिनकी व्यवस्था परिवार पड़ोस में ही हो जाती थी। कदाचित ही उनमें से किसी को दूसरों के दरवाजे पर जाना पड़ता था। वास्तविक अतिथि तो तीर्थ यात्री ही होते थे। उनका सहयोग करना ही अतिथि सत्कार का वास्तविक स्वरूप था। इन दिनों तो निठल्ले लोग, अपने स्वार्थ प्रयोजनों के लिए कहीं जाते हैं और किसी परिचित सम्बन्धी से कई तरह की सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए जा धमकते है। ऐसे लोगों को अतिथि नहीं कहा जा सकता। दोस्त, मेहमान आदि की उन्हें माना जा सकता है और उनका सहयोग लोकाचार कहाँ जा सकता है। पुण्य-प्रयोजनों में जहाँ अतिथि सत्कार की चर्चा होती है वहाँ तीर्थ यात्री समुदाय की सुव्यवस्था बनाने और उनकी गतिविधियों में अड़चन न आने देने के नागरिक कर्तव्य का ही संकेत है।
तीर्थयात्री के लिए उसका धर्म प्रचार, पदयात्रा एक उच्चस्तरीय तप साधना प्रक्रिया थी जहाँ वे रुकते थे उनके लिए सौभाग्य सुअवसर जैसी दैवी अनुकम्पा। इसी भावनात्मक तालमेल के कारण तीर्थयात्रा प्रक्रिया का धर्म प्रवाह सर्वत्र बहता था और उससे नदी सरोवरों से भी अधिक मात्रा में जन-जन को लाभान्वित होने क अवसर मिलता था।
तीर्थ यात्रियों को अतिथि मानने और उनके सत्कार का प्रबन्ध करने की व्यवस्था को भारतीय जन-जीवन का अंग माना गया था। इसके लिए हर व्यक्ति अपना कुछ अंशदान नित्य नियमित रूप से निकालता था। एक परम्परा यह भी थी कि अपने भोजन से पूर्व अतिथि को भोजन कराया जाय। यदि वे उस दिन उपलब्ध न होते थे तो उसे निमित्त निकाला हुआ अन्न सुरक्षित रख लिया जाता था और आवश्यकतानुसार उसे उसी प्रयोजन में लगा दिया जाता था, दैनिक बलिवैश्व-यज्ञ में एक आहुति अतिथि देव की भी है, कुछ अन्न नित्य उस प्रयोजन के लिए हर परिवार में निकाला जाता था। इससे पता चलता है कि उन दिनों अतिथि-तीर्थ यात्री कितने अधिक गौरवान्वित होते थे और उनकी उपयोगिता, आवश्यकता किस कदर समझी जाती थी। यह महत्व अकारण नहीं मिला था। तीर्थयात्री कष्ट साध्य प्रक्रिया अपनाकर धर्म चेतना उत्पन्न करने के लिए जो उदारता बरतते और तितीक्षा सहते थे उसी के फलस्वरूप वे अपने देव प्रयोजन में संलग्न रहने के बदले देव स्तर का आत्मसंतोष एवं लोक सम्मान प्राप्त करते थे।
प्राचीन काल में अनेकानेक मन्दिर मठ, एवं धर्मशाला बनाने को बहुत बड़ा पुण्य फल माना जाता था। उनका खर्च चलाने के लिए स्थायी सम्पत्ति की व्यवस्था की जाती थी। भेंट-पूजा, चढ़ोतरी आदि के माध्यम से जनसाधारण द्वारा उनकी समृद्धि बढ़ाने में योगदान दिया जाता था। यह धन प्रायः तीर्थयात्रा को निकले धर्म प्रचार जत्थों की व्यवस्था पर ही खर्च किया जाता था। धर्मशाला बनाने का उद्देश्य था, धर्म प्रचार जत्थों के ठहरने के लिए उपयुक्त डाक-बंगले। कुछ समय विश्राम करने-अगली यात्रा के लिए आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध करने की सुविधा तीर्थ यात्रियों को इन्हीं मठों से धर्मशालाओं से मिल जाती थी। वस्त्र, जूते, पात्र, साबुन, औषधि आदि दैनिक आवश्यकता की वस्तुएँ अगली यात्रा के लिए वहीं से उपलब्ध कर लेते थं। धर्मचर्चा के लिए अनेक व्यक्ति इन चलते-फिरते ज्ञान भांडागारों से भेंट करने के लिए जिन स्थानों पर पहुँचते थे उन्हें धर्मशाला कहा जाता था। धर्म प्रयोजनों के लिए बनी हुई इन शालाओं के बनाने वाले इसलिए पुण्य के भागीय बनते थे कि उनके धन से बनी हुई शाला-इमारत’?-सच्चे अर्थों में धर्म प्रयोजन की पूर्ति कर रही है। मठों में लगी हुई मन्दिरों में देव प्रतिमाओं पर चढ़ी हुई सम्पत्ति का एक ही उपयोग था। तीर्थयात्रा के नाम से उत्पन्न की जाने वाली धर्म चेतना के लिए सरलता उत्पन्न करना। निरन्तर तीर्थ यात्रा के लिए परिभ्रमण वाले धर्म प्रचारक परिव्राजक कहलाते थे। उनमें वानप्रस्थ वर्ग का बाहुल्य रहता था।
जिन दिनों यह पुण्य परम्परा अपने असली रूप में क्रियान्वित होती होगी, उन दिनों कितना सुखद सुअवसर मिलता होगा जन-जन का इसी कल्पना मात्र से हृदय हुलसने लगता है। निरन्तर धर्म चेतना उत्पन्न करने के पवित्र प्रयोजन में संलग्न परिव्राजक एक प्रकार से चलते-फिरते जीवन्त तीर्थ ही रहे होंगे। उनकी तपः पूत ज्ञान सरिता में स्थान करके न जोन कितने पवित्र होते है- कितनों को भाव-सागर से पार होने का नित्य ही अवसर मिलता होगा। ऐसी दशा में यदि यह देश किसी समय धर्म प्राण कहलाता रहा हो, यहाँ के नागरिक देवोपम जीवन जीते रहे हो-अपने संपर्क क्षेत्र को सुख-शांति की प्रगति और समृद्धि की स्वर्गीय परिस्थितियों से भरापूरा रखे रहे हों तो आश्चर्य ही क्या है। तेतीस कोटि देव नागरिकों की-स्वर्गादपि गरीयसी यह भारत भूमि स्वयं गौरवान्वित रही और समस्त भूमण्डल को अपने अनुदानों से कृत-कृत्य बनाया, इसका परिचय उन विश्लेषणों से सहज ही लग जाता है जो संसार भर में इस वेश के लिए प्रयुक्त होते थे। जगद् गुरु चक्रवर्ती, नर-रत्नों के भाण्डागार इस देश को धरती का स्वर्ग कहा जाता था। इस स्थिति तक अपने देश को पहुँचाने में तीर्थ यात्रा का, उसमें संलग्न परिव्राजक मण्डलियों का सबसे बड़ा योगदान रहा है यह निश्चित है।
पानी की आवश्यकता खेतों को रहती है, वे बादलों तक याचना के लिए जा नहीं सकते। ऐसा साधना भी नहीं है कि मेघमाला को आमंत्रित करने एवं बुला सकने में सफल हो सके। बादल ही अपनी सहज करुणा से अपने पैरों चलकर-अपने कन्धों पर जल राशि लाद कर खेतों तक पहुँचते है और आवश्यकता से अधिक जल देकर उन्हें तृप्त करते है। संसार में छाये हुए शीत को निवारण करने के लिए धरती सूर्य के समीप नहीं पहुँच सकती। सूर्य ही उसकी आवश्यकता समझकर स्वयं उस पर अपना तेजस बखेरते है। रात्रि के अन्धकार की व्यापकता कैसे मिटे? चन्द्रमा के निकट चाँदनी माँगने निशा कैसे पहुँचे। चन्द्रमा स्वयं ही परिभ्रमण करते हुए रात्रि की तमिस्रा को घटाते हैं। उनके पास अपना प्रकाश नहीं तो भी वे सूर्य से माँग कर लाते हैं और रात्रि की कुरूपता मिटाते हैं। प्राणियों का जीवन प्राणवायु पर निर्भर है। उस बहुमूल्य पदार्थ को कौन, कहाँ से, कैसे खरीदे। पवन स्वयं ही प्राण वायु अपने ऊपर लाद कर-हर जीवधारी के पास पहुँचता है और उसे जीवन सम्पदा प्रदान करता है। यदि कह उदारता संसार में न रहे। हर कोई बदला ही चाहे, बिना स्वार्थ के कोई किसी के काम न आये तो समझना चाहिए कि यह संसार नरक के अतिरिक्त और कुछ न होगा। यहाँ जो कुछ सौंदर्य-सुषमा का दर्शन होता है उसके पीछे शालीनता ही काम करती है। इसी शालीनता का जब धर्म क्षेत्र में प्रयोग होता है उसे तीर्थ यात्रा जैसी पुण्य-प्रक्रिया में प्रयुक्त होते देखा जाता है।
भूकम्प, बाढ़, दुर्भिक्ष, अग्नि काण्ड, तूफान आदि दुर्घटनाओं से पीड़ित व्यक्ति तात्कालिक सहायता के लिए साधना सम्पन्नों का दरवाजा खटखटाते हुए पहुँचने की स्थिति में नहीं होते। उदार, व्यक्तियों को ही अपनी सहज करुणा से प्रेरित होकर उन पीड़ितों की सहायता करने पहुँचना पड़ता है और अपने श्रम, सौहार्द्र एवं साधनों की सहायता से उन्हें ही आगे बढ़कर पीड़ितों का कष्ट हलका करना पड़ता है। तीर्थ यात्रा को ठीक इसी स्तर की परम्परा कहा जा सकता है जिसमें जन-जन तक घर-घर तक पहुँचने का प्रयत्न सद्भावना सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा जब तब नहीं वरन् सुनियोजित रीति से किया जाता है।
तीर्थ स्थानों का महत्व इसलिए है कि वे तीर्थ यात्रा परम्परा को गतिशील रखने में उपयोगी आधार हैं। तीर्थ न हो तो तीर्थयात्रियों को सुनियोजित कार्यक्रम बनाने में भारी असुविधा हो धर्म प्रचारकों का प्रकाश अनुदान प्राप्त करना होता है। उन महत्वपूर्ण अनुदानों को वे तीर्थ संचालक ऋषियों से प्राप्त करते है। उन ऋषियों के आरण्यक तीर्थों में चलते हैं। आरण्यकों को एक प्रकार के अध्यात्म विद्यालय ही समझा जा सकता है। वहाँ स्थायी साधकों और समय-समय पर आने वाले आगंतुकों के लिए उभय पक्षीय शिक्षण व्यवस्था का सुयोग रहता था। तीर्थों में सामान्य यात्री-नागरिक तो पहुँचते ही थे। धर्म प्रचारक मण्डलियों को भी वहाँ से बहुत कुछ मिलता था। तीर्थ आरण्यकों में आवश्यक शिक्षण परामर्श, विश्राम एवं साधनों का लाभ उन्हें मिलता था। इस प्रकार व अपनी थकान मिटाने नवीन स्फूर्ति पाने और आत्म-कल्याण लोक कल्याण की उस समन्वित साधना में निरत रहते थे।
बड़े तीर्थ बड़े केन्द्र थे-उन्हें राजधानियाँ कह सकते है। छोटे तीर्थ जिले तहसील आदि की भूमिका निभाते थे। उनके कार्यक्षेत्र बँटे हुए थे। इन क्षेत्रों को मण्डल कहते थे और मण्डलों में धर्म चेतना बनाये रहने बढ़ाते चलने का उत्तरादयित्व सम्भालने वाले मंडलेश्वर या मंडलाधीश। इनके केन्द्र संस्थान तीर्थों के नाम से जाने जाते थे। इन्हीं केन्द्रों के माध्यम से देश भर में विश्व भर में धर्म चेतना सुव्यवस्थित रखने का महान कार्य सम्पादित होता था। इस सूझ-बूझ और सुव्यवस्था को देखते हुए तीर्थ स्थापना करने वाले महान तत्वज्ञानियों की दूरदर्शिता के सम्मुख ही श्रद्धा से प्रत्येक विचार शील का मस्तक झुक जाता है।