शक्तिपीठों के लिए प्राणवान परिव्राजक चाहिये!

May 1979

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अतीत के पुनरागमन-वर्तमान के निर्धारण और भविष्य के संयोजन के त्रिविधि उद्देश्य पूरे कर सकने में सर्वथा समर्थ गायत्री शक्तिपीठ योजना अपने समय का अनुपम प्रयास है। इसे भागीरथी तप साधना के साथ जुड़ा हुआ गंगावतरण कह सकते है। अभी वह कल्पना के गर्भ में है। इन दिनों उसके द्वारा उत्पन्न होने वाली सम्भावना और प्रतिक्रिया का सुखद अनुमान ही लगाया जा सकता है, पर जब भी वह मूर्ति रूप में सामने होगी तो प्रतीत होगा कि मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण के संदर्भ में जो सोचा-कहा और किया जा रहा था वह अनर्गल नहीं था।

प्राणवान संकल्प-साधना हीन परिस्थितियों में भी किस प्रकार उगते-बढ़ते और फलते-फूलते है, इसके अनेक उदाहरण इतिहास के पृष्ठों पर अंकित है। उस श्रृंखला में नवयुग के अवतरण के लक्ष्य रख कर किये गये प्रयास को अपने समय का दुस्साहस ही कहा जायगा। इसकी उपमा खोजनी हो तो समुद्र पाटने के लिए प्राणपण से सन्निद्ध टिटहरी से अथवा सागर को पाटने में प्रवृत्त गिलहरी से ही दी जा सकती है। सेतुबन्ध बाँध जाने जैसे सहज बुद्धि द्वारा असंभव घोषित किये जाने वाले कार्य को संभव बनाने के लिए रीछ बानरों ने प्राणों की बाजी लगाई थी। साधन हीन क्या कर सकते है इसके लिए उनके लिए इतना ही संभव था कि लकड़ी पत्थर जमा करने में श्रम लगायें। इतिहास साक्षी है कि काम उतने भर से भी चल गया था। पहाड़ मनुष्यों का भार वहन करते है, यह एक तथ्य है, पर मनुष्य पहाड़ का भार वहन कर सकते है यह विश्वसनीय नहीं है। इतने पर भी प्रचण्ड संकल्पों की सामर्थ्य जिन्हें विदित है वे जानते है कि मनुष्य-मनुष्य है। उसे भगवान की निकटतम प्रतिकृति ही कहा जा सकता है। जब वह उच्च उद्देश्य को लेकर अपनी समस्त आस्था को नियोजित करके कर्मक्षेत्र में उतरता है तो सचमुच ही असंभव जैसी कोई वस्तु रह नहीं जाती।

ग्वाल−बालों की कमजोर कलाइयाँ और पोले बाँस की लाठियाँ गोवर्धन उठा सकती है इस पर कौन, किस आधार पर विश्वास करे? इतने पर भी अनहोनी, होकर रही गोवर्धन उठ ही गया। युग परिवर्तन का संकल्प महाकाल का हैं उसी के प्राण उस अभिमान में संलग्न है। जब मनुष्यों के प्राणवान संकल्प पूरे हो सकते है तो सृष्टि संतुलन का उत्तरदायित्व सम्भालने वाली शक्ति की इच्छा क्यों पूरी न होगी?

अगले दिन सुखद सम्भावनाओं से भरे पड़े है। कुक्कुट बहुत समय से प्रभात के आगमन की सूचना दे रहा था। अब ब्रह्म मुहूर्त की उदीयमान ऊषा ने सुनिश्चित आश्वासन दिया है कि अरुणोदय सन्निकट है उसके लिए अब अधिक समय प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। इन दिनों उभरते उग्र विग्रहों को सूक्ष्मदर्शी प्रसव पीड़ा मानते है और कहते है अधीर होने की आवश्यकता नहीं महान उद्भव के दर्शन अब होने ही वाले है।

इस प्रभात बेला में प्रत्येक जागृत आत्माओं को युग सृजन के लिए अपना भाव भरा योगदान प्रस्तुत करना ही चाहिए। सृजन प्रयोजनों में गायत्री शक्ति पीठों का निर्माण इमारत की दृष्टि से कम और लक्ष्य पूर्ति की दृष्टि से अधिक महत्व का है। इमारत बनाना भी एक काम है। पर उसमें भी बड़ी आवश्यकता उन आत्माओं के योगदान की है जो स्वयं जग चुके और दूसरों को जगा सकने की स्थिति तक जा पहुँचे है। प्रव्रज्या आमन्त्रण उन्हीं के लिए। रजत जयन्ती वर्ष के इस महान् अभियान ने अनेकों को आत्माहुतियाँ देने के लिए झकझोरो और वे अपना बिस्तर समेट कर शान्तिकुँज में आविराजे है। इनकी संख्या बड़ी है। गायत्री नगर इन्हीं की निवास व्यवस्था के लिए बन रहा है। इतने पर भी समय की माँग को देखते हुए जितने आत्मदानी आगे आये है; वे जलते तवे पर पानी की कुछ बूंदें पड़ने के समान है। वरिष्ठ और कनिष्ठ वानप्रस्थों का समय दान इस वर्ष महापुरश्चरण योजना में गति देने में बहुत सहायक सिद्ध हुआ है। इतने पर भी माँग को देखते हुए इस संख्या को भी कम ही कहना चाहिए। प्रव्रज्या का युग निमन्त्रण स्वीकार करने के लिए असंख्यों के मन में हलचल मची हुई है। स्थानीय क्षेत्रों में दो-दो घन्टा समय नित्य देने वाले समयदानी यह अनुभव कर रहे हैं कि कुछ साहस और जुटाया जाय। रचनात्मक प्रवृत्तियों में दो घंटे नित्य देना सराहनीय तो है पर संतोषजनक नहीं। वर्ष में दो महीने किसी प्रकार लगातार काम करने और बाहर जाने के लिए निकलने चाहिए। यह आन्तरिक हलचल युगनिर्माण परिवार के प्रत्येक जीवन्त घटक में चल रही है। समयदानियों, परिव्राजकों की संख्या बढ़ रही है और उनका दर्जा क्रमशः बढ़ रहा है। समयदानी-कनिष्ठ-और कनिष्ठ वरिष्ठ के रूप में अपनी पदोन्नति होते देख रहे है। इस प्रकार की प्रगति को परमेश्वर की वास्तविक अनुकम्पा एवं प्रत्यक्ष प्रेरणा ही मानना चाहिए।

गायत्री शक्ति पीठों के लिए नये किस्म के परिव्राजक चाहिए। वे ऐसे होने चाहिए जो कुछ-कुछ समय बाद ही घर दौड़ने की आतुरता व्यक्त न करें। इसमें उन्हीं से काम चलेगा जो पैर जमा कर स्थिर चित्त से अपने प्रस्तुत प्रयोजन को ही सब कुछ मानें और उसी में रमे जुटे रहें। जल्दी-जल्दी घर लौटने की जिन्हें आतुरता न हो। प्रत्यक्ष है कि इस प्रकार की भाग-दौड़ में जो किराया भाड़ा खर्च होता है, वह उतना जा पहुँचता है कि वेतन देकर काम करने जितना हिसाब जा पहुँचें। इन दिनों चल रहे महापुरश्चरण आयोजनों में उन्हें थोड़े-थोड़े दिन के लिए भेजने का कुछ तुक भी है, पर गायत्री शक्ति पीठों में थोड़े दिन रहने और भाग खड़े होने से क्या काम चलेगा। वहाँ तो स्थायी रह सकने की मनःस्थिति एवं परिस्थिति वाले लोगों से ही काम चलेगा। निश्चित रूप से ऐसे व्यक्ति वे ही हो सकते है जिनके ऊपर पारिवारिक उत्तरदायित्व नहीं है। जो उनसे निवृत्त हो चुके अथवा जिनने अभी उस प्रकार का भार शिर पर उठाया नहीं है, एवं जल्दी ही उठाने का मन भी नहीं है।

तीर्थ सेवन एक प्रकार का तप है। फिर तीर्थों के संचालक तो ब्रह्मर्षि कहलाते है। जिन्हें यह गौरव अनुकूल पड़ता हो। जिन्हें यह आत्मकल्याण का उत्कृष्ट तम माध्यम प्रतीत होता हो उनके लिए तीर्थ संचालकों की विशिष्ट श्रेणी के परिव्राजक होने का साहस जुटाना चाहिए। युग-निर्माण मिशन के सूत्र संचालक ने 24 वर्ष तक 24 गायत्री महापुरश्चरण पूरे करने में अपना सारा समय और मन लगाया है। इसी तपश्चर्या की उपलब्धि है जिससे उस काया में से ब्रह्मवर्चस् की प्रचण्ड ऊर्जा निस्सृत होती और युगान्तरीय चेतना उत्पन्न करती दृष्टिगोचर होती है। लगभग इसी स्तर की साधना उन्हें भी करनी होगी जो तीर्थ संचालक की साधना करें। इसे महन्त मैनेजर जैसा पद न समझा जाय। यश, मान, वैभव, सुविधा एवं अहंता की तृप्ति का इसे सरल माध्यम समझ कर कोई इस स्थान को न अपनाये। तीर्थ सेवन एक विशुद्ध तप है। इसी तप साधना का आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण से भरा पूरा यह अति महत्वपूर्ण स्वरूप है। इसमें आत्मसंतोष और ईश्वरीय आग्रह के दोनों तत्व समान मात्रा में भरे पड़े है। अपने युग की इसे सर्वोत्तम साधना कह सकते है। लोभ और मोह से जिन्हें निवृत्ति मिल चुकी हो-परिवार के उत्तरदायित्वों से जो निश्चिंत हो चुके हो उनके लिए इस परमार्थ द्वार में प्रवेश करने का खुला अवसर है।

बौद्ध कालीन प्रव्रज्या का यही स्वरूप था। उसमें गृह निवृत्त एवं पूर्णतया आत्मसमर्पित लोग ही दीक्षा ग्रहण करते थे। अपने समय में उस स्तर का आत्मबल लोगों में दिखाई नदी देता इसलिए सामयिक प्रव्रज्या के रूप में ही उस महान परम्परा को किसी प्रकार लिया जा रहा है। दो-दो चार-चार महीने समय दे सकना भी आज की घोर स्वार्थपरता के वातावरण में कम महत्वपूर्ण नहीं है। उतने से भी बहुत काम बन रहा है। इतने पर भी यह पर्याप्त नहीं है। महान प्रयोजनों के लिए-महान व्यक्तित्वों की-साहसिक अनुदानों की आवश्यकता पड़ती है। गायत्री तीर्थ संचालन के लिए जन परिव्राजकों को नियुक्ति होनी है उनकी स्थिति इतनी सुदृढ़ होनी चाहिए जो कुछ दिन खेल-खिलवाड़ करके फिर घर दौड़ जाने जैसी अस्थिरता न हो।

एक वर्ष में एक तीर्थ में रहना होता है। चौबीस वर्ष में चौबीस तीर्थ पूरे हो जाते है इसे एक प्रकार से पूर्ण योगाभ्यास कहना चाहिए। जो इस प्रकार का साहस करेंगे वे अपने मार्गदर्शन का सच्चा अनुगमन करने वाले कहे जायेंगे। एक स्थान पर बैठ कर चौबीस महापुरश्चरण करने की तुलना में तीर्थ संचालन की तपश्चर्या किसी भी दृष्टि से कम महत्व की नहीं है। तीर्थ मृत्यु को सौभाग्य माना जाता है। कितने ही लोग मरने से पूर्व ‘काशी करवट’ लेने पहुँचते है। जिन्हें यह अवसर नहीं मिल पाता वे मरने के बाद अपनी अस्थियां किसी तीर्थ में विसर्जित करने की आकाँक्षा करते है। यहीं प्रकारांतर से तीर्थ सेवन की ही महिमा है जिसमें जीवित स्थिति में उसे पुण्य से वंचित रहने पर मरने से पूर्ण भी पश्चात् वहाँ पहुँचने की आकाँक्षा करते है। यह सुयोग उन व्यक्तियों को मिल सकता है जो निवृत्त हो चुके है और तीर्थ सेवन ही नहीं तीर्थ संचालन का भी सौभाग्य प्राप्त कर सकते है।

आमतौर से तीर्थ वास में निर्वाह खर्च स्वयं ही वहन करना पड़ता है। गायत्री शक्ति पीठों में यह सुविधा भी है कि निवास एवं निर्वाह जैसे सुविधा साधन वहाँ उपलब्ध मिलेंगे। आत्म कल्याण एवं लोक कल्याण की सर्वांगपूर्ण साधना का तो सर्वोत्तम सुअवसर है ही; गृह निवृत्त लोगों के लिए यह उपयुक्त अवसर है अभी एकाकी व्यक्ति ही लिए जायेंगे पर जिनकी गृहणी शारीरिक दृष्टि से समर्थ होंगी और तीर्थ प्रयोजन में कुछ हाथ बटा सकेंगी उन्हें पत्नी समेत भी रहने की स्वीकृति मिल जायगी। बच्चे किसी भी स्थिति में साथ नहीं रह सकेंगे।

जिनके ऊपर गृहस्थ के उत्तरदायित्व नहीं आये है और जल्दी ही उसे लादने का मन भी नहीं है वे इस तीर्थ सेवन योजना में सम्मिलित हो सकते है। न्यूनतम एक वर्ष की भी यह अवधि हो सकती है अपेक्षा तो अधिक समय रहने की ही की गई है। क्योंकि प्रतिभा और कुशलता का निखार किसी भी कार्य में समय साध्य है अनुभव और अभ्यास से ही प्रवीणता प्राप्त होती है और कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर सकना संभव होता है। इसलिए न्यूनतम एक वर्ष की अवधि ही तीर्थ संचालन के परिव्राजक प्रयोजन के लिए रखी गई है। अपेक्षा यह की जाय कि यह अवधि जितनी लम्बी हो उतनी ही निश्चिंतता रहेगी और सुव्यवस्था बन पड़ेगी।

तीर्थ संचालन से पूर्ण न्यूनतम तीन मास की ट्रेनिंग प्राप्त करना आवश्यक है। ब्रह्मवर्चस शांतिकुंज में इसकी समुचित व्यवस्था है। यह ट्रेनिंग अवधि तीर्थ वास में सम्मिलित नहीं है उसके अतिरिक्त है। इस प्रकार एक वर्ष का समय देने वालों को भी पन्द्रह महीने लग जायेंगे। दीर्घ कालीन और स्वल्प कालीन-सदा सर्वदा वाले और एक वर्ष बीते सभी परिव्राजकों की ट्रेनिंग एक जैसी-तीन महीने की ही है। इनके बाद ही किसी को तीर्थ संचालक के लिए परिव्राजक जत्थे में भेजा जा सकेगा। यों सभी परिव्राजक अवैतनिक होंगे। जिनके पास अपनी आजीविका है वे निजी खर्च अपने पास से भी चलायेंगे। जिनके पास वैसी सुविधा नहीं है वे तीर्थ में भोजन वस्त्र आदि का निर्वाह प्राप्त कर सकेंगे। अपवाद के रूप में कुछ लोगों के लिए ऐसी व्यवस्था भी रखा गई है कि यदि अनिवार्य हो तो वह अधिकतम एक सौ रुपया मासिक तक उन पर अवलंबितों के लिए भी भेज सकें। इस वर्ग की प्रथम ट्रेनिंग आगामी जुलाई, अगस्त, सितम्बर में होंगी। इसके बाद यह विद्यालय निरन्तर चलता रहेगा।

गायत्री शक्ति पीठें, बनने जा रही है। उनकी इमारतें कलेवर की दृष्टि से निस्सन्देह छोटी है। इस घोर महंगाई के जमाने में मात्र डेढ़ लाख रुपया कितना होता है, और उतने भर से विशालता कहाँ उत्पन्न हो सकती है इसका अनुमान लगाने में किसी को भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए। इतने पर भी उनकी गरिमा इसलिए है कि वे अन्य देवालयों के समतुल्य दीखने पर भी सम्भावना की दृष्टि से नितान्त भिन्न है। बुद्ध के संधाराम और समर्थ गुरु के ग्राम्य मठ आरम्भ में कितने बड़े थे इसका कोई महत्व नहीं, गरिमा इस बात की है कि उनके द्वारा कितने महान कार्यों का सम्पादन हुआ। गायत्री शक्ति पीठों का कलेवर देवालय-सत्संग भवन, अतिथि ग्रह का एक छोटा समन्वय ही होगा। विशालकाय धर्म संस्थानों के निमित्त बनी इमारतों की तुलना में इन्हें; खिलौने भर ठहराया जा सकता है। इतने पर भी यह विश्वास किया जा सकता है कि वे अपने महान प्रयत्नों के कारण अद्भुत एवं अनुपम ही कहे जायेंगे। इनके पीछे परिव्राजक योजना और धर्म चेतना उत्पन्न करने के निर्धारण को युग शक्ति कहा जा सकता है। युगान्तरीय चेतना उत्पन्न कर सकने की समर्थता ही इन निर्माणों के सम्मुख लोक विवेक को नतमस्तक होने के लिए विवश करेगी। धर्म का-धर्म संस्थानों का स्वरूप क्या होना चाहिए-भूतकाल में क्या था। इसका समाधान इन छोटे निर्माण की कुरेद बीन करने वाले किन्हीं महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंच सकेंगे, ऐसी आशा की जा सकती है।

गायत्री शक्ति पीठों का निर्माण-युग की आवश्यकता का एक अविछिन्न अंग है। इसलिए समय की शक्तियाँ इस सृजन को पूरा कराने में परोक्ष सहयोग देंगी और निकट भविष्य में उन्हें देश के कौने-कौने में गर्वोन्नत मस्तक से खड़ा हुआ देखा जा सकेगा। यह शुभारम्भ जिस सत्ता और जिस संकल्प को साथ लेकर हुआ है उसकी पूर्णता को असंदिग्ध ही माना जाना चाहिए। 24 शक्ति पीठों का निर्माण आरम्भिक घोषणा का प्रथम चरण है। उसे ‘इति’ नहीं अथ कहना चाहिए। इस संख्या को कई गुनी विस्तृत होते हुए अगले ही दिनों देखा जा सकेगा।

इस निर्माण में हाथ बँटाने, कंधे से कन्धा-पैर से पैर मिला कर चलने के लिए जागृत आत्माओं को खुला आमन्त्रण प्रस्तुत है। सहयोग के अनेकों आधार हैं और उनमें से हर स्थिति का, हर स्तर का व्यक्ति अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुरूप कुछ करने के लिए साहस जुटा सकता है। प्रश्न साधनों का नहीं साहस का है। साधन तो प्रचुर परिमाण में उनके पास भी लतियाते रहते है; जो निरन्तर अभाव की रट लगाये रहते और तृष्णा की आग में अध जले मुर्दे की तरह झुलसते रहते है। बिना पढ़ा-निर्धन हजारी किसान, मात्र अपने श्रम का सहारा लेकर अजर-अमर हो सकता है और हमारी बाम जिले में हजार बाग लगा सकता है तो कोई कारण नहीं कि युग सृजन की दृष्टि से उठाये गये ऐतिहासिक कदम में किसी भी स्थिति का व्यक्ति किसी न किसी प्रकार उसमें योगदान न दे सके।

भवन निर्माण में पैसे की जरूरत पड़ेगी। युग निर्माण परिवार में हजारों व्यक्ति ऐसे होंगे जो डेढ़ लाख रुपया अपनी प्रस्तुत सम्पत्ति में से निकाल दे तो उतने भर से उन्हें आर्थिक कठिनाई का सामना करना पड़े, ऐसी सम्भावना नहीं है। प्रश्न साधन का नहीं साहस का है। भगवान साधन तो असंख्यों को देते हैं, पर न जाने सत्साहस देने में क्यों कृपणता बरतते है। लगता है वही कृपणता उन लोगों पर छाई रहती है जिनके पास पैसा तो है, पर हृदय नहीं। उत्तराधिकारियों की अमीरी बढ़ाने के स्थान पर ऐसे लोग यदि अपने साधनों से युग की माँग पूरी करने में उदारता का परिचय दे सकें तो यही कहा जायेगा कि भगवान ने उन्हें साधन और साहस देकर अच्छे अर्थों में अपना कृपा पात्र बनाया।

कुछ लोग इतने प्रतिभावान और प्रतापी होते है कि अपने प्रभाव का उपयोग करके एक तीर्थ के निर्माण को लक्ष्य बना सकते है। प्रभाव भी एक प्रकार का वैभव ही है। जिनके पास वह है उन्हें भी अमीरों की ही श्रेणी में गिना जायगा। कुछ अपने पास से कुछ मित्र परिचितों से समेट लिया जाय तो उतनी सी रकम इकट्ठी होने में कोई कठिनाई नहीं रह जाती। विशेषतया तब-जबकि उसकी पूर्ति में महाकाल का संकल्प जुड़ा होने से सफलता में कोई बड़ी अड़चन आने वाली नहीं है।

प्रस्तुत संकल्प 24 महीने में पूरा हो जाने की आशा है। बसन्त 79 में संदेश उतरा है। 24 महीने में बसन्त सन् 81 तक यह संख्या पूरी ही नहीं हो जायगी वरन् इस परिधि को पार करके कहीं अधिक आगे बढ़ गई-कई गुनी पहुँच गई होगी। घोषित स्थानों में परिस्थितिवश परिवर्तन हो सकता है, पर स्थापनाओं में कमी नहीं पड़ेगी। इन 24 महीनों में निजी अनुदान के रूप में संचित पूँजी का एक अंश एवं मासिक आय का एक भाग नियमित रूप से देते रहने की बात सोची जा सकती है। गिलहरी जब अपने बालों में बालू भरकर अपना श्रमदान सहयोग प्रस्तुत कर सकती है, केवट का नाव चलाने का श्रम सहयोग अविस्मरणीय बन सकता है तो भावनाशील लोगों का श्रम एवं श्रम का प्रतीक अंशदान भी इतना उपयोगी हो सकता है कि उससे आत्म-संतोष का एवं दूसरों के लिए अनुकरणीय उदाहरण का आधार बन सकें। इस प्रकार के कण-कण भी एकत्रित होकर एक संयुक्त शक्ति के रूप में ऋषियों द्वारा संग्रहित रक्त घट की उपमा बन सकते है। ऐसा संग्रह सीता के जन्म का कारण बना था। युग शक्ति के अवतरण में ऐसी भूमिका भी बहुत उपयोगी हो सकती है-भले ही वह कितनी ही छोटी क्यों न हो। 24 महीने लगातार कुछ-कुछ अंशदान देते रहने की बात धनी निर्धनों में से हर कोई सोच सकता है।

तीर्थयात्रा का पुण्य माना जाता है। तीर्थ में दानपुण्य करने का महात्म्य बहुत है। फिर तीर्थ निर्माण का महत्व कितना बड़ा हो सकता है। जप-तप करने वाले ब्राह्मण साधुओं को भोजन इस दृष्टि से कराया जाता है कि उनकी साधना का एक अंश इन अन्नदाताओं को भी मिलेगा। इन प्रचलित मान्यताओं में यदि कुछ सत्य और तथ्य हो तो तीर्थ निर्माण का पुण्य इस सबसे अधिक ही माना जायगा। इन धर्म संस्थानों से जो धर्म चेतना उत्पन्न होगी उस उत्पादन में इन पुण्यात्माओं का एक बड़ा भाग होगा जिनने इस सृजन में सहयोग दिया है।

तीर्थ यात्रा पाप निवृत्ति एवं प्रायश्चित के लिए भी की जाती है। यह प्रायश्चित प्रयोजन तीर्थ स्नान से भी बढ़कर तीर्थ निर्माण में किये गये अंशदान के रूप में भी पूरा हो सकता है।

यश कामना से जहाँ-तहाँ स्मारक बनाये जाते है। यह प्रयोजन भी वहीं अच्छी तरह पूरा हो सकता है जहाँ अधिक लोग पहुँचें। अधिक लोगों द्वारा अधिक सराहना मिलने के लिए स्थान चुनना हो तो अपने पास-पड़ोस की बात सोचने के स्थान पर ऐसे स्थान चुने जाने चाहिएँ जहाँ से व्यापक और चिरस्थायी ख्याति मिलने की सम्भावना हो। प्रस्तुत तीर्थों में पाँच हजार से अधिक देने वालों के नाम के पत्थर लगा देने का भी निश्चय किया गया है। यों अच्छा तो यही है कि यश कामना करके पुण्य का मूल्य न घटाया जाय। स्वर्गीय पूर्वजों के निमित्त कई व्यक्ति कुछ दान-पुण्य करते है उनके लिए भी इस राशि को गायत्री शक्ति पीठों के निर्माण में लगा देना अधिक श्रेयस्कर है।

अन्नदान, वस्त्र दान, गौ दान, औषधि दान, धनदान आदि का पुण्य फल समझा जाता है। इस संदर्भ में यह भी स्मरण रखा जाने योग्य है कि तीर्थ दान की गरिमा इस सबसे बड़ी है। गायत्री तीर्थ जीवन्त तीर्थ है-उनमें धर्म चेतना के व्यापक विस्तार का जो कार्यक्रम जुड़ा हुआ है उसे देखते हुए इसे ब्रह्मदान के रूप में मूर्धन्य माना जा सकता है।

युग चेतना उत्पन्न करने वाले धर्म धारण के केन्द्र संस्थान बनने वाले इन गायत्री तीर्थों के निर्माण में जागृत आत्माएँ अपना ध्यान चौबीस महीने केन्द्रित रखें तो वे इस संदर्भ में बहुत बड़ी भूमिका प्रस्तुत कर सकती है। साधनों की दृष्टि से भले ही वे कितनी ही सामान्य क्यों न हों।


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