शक्तिपीठों के निर्माण का विकास विस्तार

May 1979

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प्रज्ञावतार की इस उदीयमान बेला में युगान्तरीय चेतना का विस्तार प्रभात किरणों की तरह द्रुतगति से होता चला जा रहा है। गायत्री शक्तिपीठें इस परिवर्तन प्रयास में अपनी असाधारण भूमि प्रस्तुत करने जा रही है। समय ही बतायेगा कि सामान्य उपासना गृहों की तरह प्रतीत होने वाले इन देवालयों ने मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की भूमिका किस शानदार ढंग से निभाई। यह निर्माण ऐतिहासिक स्मृतियों में सम्मिलित रहेंगे और उनके निर्माताओं को वैसा ही श्रेय मिलेगा जैसा चार धामों के बनाने में अग्रिम भूमिका निभाने वाले मान्धाता को मिला था। इतने साधन वे अकेले नहीं जुटा सके थे, पर उन्होंने अपने निजी साधनों के उपरान्त जो कमी पड़ती थी उसे अपने स्नेही, सम्बन्धियों, मित्र, पड़ौसियों को प्रोत्साहित करके पूरा कर दिया था। देने वाले की तरह ही दिलाने वाले भी यशस्वी होते है।

बसन्त पर्व पर महाकाल का संदेश शक्तिपीठों के निर्माण के लिए उतरा। फरवरी में उसकी रूप-रेखा तैयार हुई और संपर्क क्षेत्र में जानकारी पहुँची। मार्च से उस महान निर्माण के लिए प्राणवान परिजनों के संकल्प आरम्भ हो गये। इतने जल्दी-इतने बड़े कार्य को कन्धे पर उठाने के लिए लोग दुस्साहस जैसा कदम उठा सकेंगे ऐसी आशा थी नहीं, पर महाकाल की इच्छा जागृत आत्माओं के अन्तःकरणों में जिस प्रकार हिलोरें लेने लगी, उसे रोकता भी कौन? अनुरोध तो बहाना मात्र है। वस्तुतः इस दिशा में जो कुछ हो रहा है उसे विशुद्ध अन्तःप्रेरणा का उभार कह सकते है। इसके उभार का सूत्र संचालन उद्देश्य सत्ता द्वारा हो रहा है। दैवी आवेश ही रीछ बानरों को-गिद्ध, गिलहरियों को-ग्वाल−बालों को ऐसे काम करने के लिए प्रेरित कर रहा है जिसकी आशा सामान्य रूप से नहीं ही की जा सकती।

मार्च के एक महीने में 24 स्थानों पर निर्माण संकल्प पूरे हो गये। हरिद्वार आकर इन निर्माता मण्डलों ने अपने संकल्प लिये है। उन्हें निर्माण का शुभारम्भ करने के लिए मंगल प्रतीकों के रूप में शान्ति कुंज से एक-एक हजार रुपये अनुदान मिला है। शेष व्यवस्था यह निर्माण मण्डल स्वयं करने में तत्काल जुट गये है।

जो संकल्प कार्यान्वित हो चले उनमें से 14 घोषित तीर्थों के है और 10 अघोषितों के। अघोषित शक्तिपीठ वहाँ बनाने की नई व्यवस्था बनाई गई है जहाँ पुराने प्रख्यात तीर्थ तो नहीं है, पर उन स्थानों की उपयोगिता को देखते हुए आग्रहकर्त्ताओं का यह तर्क स्वीकार करना पड़ा कि पुराने तीर्थ भी जब बने होंगे तब वे सर्वथा नये ही रहे होंगे। सत्प्रवृत्तियां सामान्य स्थानों को तीर्थ बना देती है। जहाँ अघोषित नये शक्तिपीठ बनेंगे, वहाँ कुछ ही समय में प्रख्यात तीर्थ हो जायगा। यह तर्क वजनदार हैं। अस्तु उसे स्वीकार भी किया गया और क्रियान्वित होने का सिल-सिला भी चल पड़ा। घोषित 24 में से क्रमशः बनते चले जा रहे है। साथ ही अघोषित स्थानों में भी निर्माण का क्रम आरम्भ हो गया। इस दुहरी प्रगति से ही उस लक्ष्य की पूर्ति हो सकेगी। जिसमें 24-24 के विराम लेते हुए 240 निर्माणों तक पहुँचना है।

किन स्थानों में मार्च मास में संकल्प हुए और निर्माण आरम्भ हुए? किनने उनका उत्तरदायित्व संभाला और साधनों की व्यवस्था किस प्रकार हुई? इसका विवरण समग्र हो जाने पर अगले अंक में छापा जायेगा। अधूरापन रहने के कारण अभी उसकी सुविस्तृत जानकारी देना बन नहीं पड़ा किन्तु उसका सार इतना ही है कि इन स्थापनाओं के पीछे काम करने वाली जागृत आत्माओं की भाव संवेदनाएँ पूरी तत्परता और तन्मयता के साथ जुट गई है। और सफलता का स्तर चमत्कार जैसा होगा। दैवी प्रयोजन-देव मानवों द्वारा किस प्रकार पूरे होते है इसके उदाहरण यों इतिहास के पन्ने-पन्ने पर भरे पड़े है, पर अपनी पीढ़ी को आँखों के सामने प्रत्यक्ष रूप से यह दृश्य देखने का अवसर मिलेगा कि इतना कठिन और जटिल कार्य कितनी सरलता और कितनी सफलता के साथ कितने शानदार ढंग से सम्पन्न हो सका।

शक्तिपीठों की उपयोगिता स्पष्ट है। उनमें स्थापित नौ प्रतिमाओं के माध्यम से आत्म-विकास के आधारभूत सिद्धान्तों और साधनों से जन-जन को परिचित कराया जायेगा। देवालयों की दुनिया को यह परिचित कराया जाय कि लोक श्रद्धा के आधार पर समर्पित किये गये इन साधनों का सदुपयोग किस प्रकार होना चाहिए शक्तिपीठें उन सब को झकझोर कर रखेगी और एक नया मार्गदर्शन देगी कि इन इमारतों और उनके साथ जुड़ी हुई जन शक्ति एवं धन शक्ति का धर्म-धारणा के अभिवर्धन में किस प्रकार सही नियोजन किया जा सकता है। उपासना क्षेत्र में फैली हुई अराजकता का यह एक प्रकार से सार्वभौम अनुबंध होगा कि मनुष्य मात्र को आत्मिक प्रगति के लिए आस्थापरक एवं साधनात्मक अवलम्बन, ग्रहण करने के लिए उपयुक्त मार्ग क्या हो सकता है। बिखराव का केंद्रीकरण करने की दिशा में यह एक अति महत्वपूर्ण शुभारम्भ है। उपासना से आगे चलकर जीवन क्षेत्र की अन्यान्य मान्यताओं एवं गतिविधियों का भी सार्वभौम स्वरूप बन सकेगा, इस पर विश्वास करने के लिए पर्याप्त कारण एवं तथ्य मौजूद है।

प्रव्रज्या अभियान इन शक्तिपीठों का अविच्छिन्न अंग है। हर शक्तिपीठ में पाँच प्रशिक्षित परिव्राजक रहेंगे और वे निकटवर्ती क्षेत्र की प्रायः तीस मील जितनी परिधि अपनी सेवा साधना के लिए नियत करेंगे। दो परिव्राजक इस क्षेत्र में नव-जागरण की सचेतनता उत्पन्न करने के लिए परिभ्रमण करते रहेंगे। तीन स्थानीय गतिविधियों को सुनियोजित रखते में संलग्न रहेंगे। कहना न होगा कि प्रशिक्षित परिव्राजकों की सेवा साधना से उससे समूचे क्षेत्र में धर्म चेतना की कृषि कुछ ही दिनों में लहलहाती हुई दिखाई देगी।

घोषित शक्तिपीठों की योजना तीन मंजिली इमारतों की है। सभी का स्वरूप लगभग एक जैसा होगा। भूमि 60×80 फुट चौड़ी हैं। और लागत डेढ़ लाख से कम नहीं बैठेगी। जहाँ इतना प्रबन्ध हो सका है अभी उन्हीं स्थानों पर संकल्प हुए है और कार्य आरम्भ किये गये है। प्रस्तुत गतिविधियों के लिए जितने स्थान की आवश्यकता थी उसे ध्यान में रखते हुए पूरी-पूरी किफायत के साथ यह नक्शा बना है। फिर भी घोर महंगाई को देखते हुए इतनी लागत का आ जाना स्वाभाविक है। नौ मूर्तियां उनके लिए नौ छोटे बड़े देवालय-यज्ञ दैनिक यज्ञ के लिए यज्ञशाला-सत्संग भवन-दो सौ साधकों के एक साथ बैठकर साधना करने का स्थान-अतिथि कक्ष-पाँच परिव्राजकों के रहने की निवास व्यवस्था-साहित्य स्टाल, पुस्तकालय जैसी प्रवृत्तियों को देखते हुए इससे कम में काम चलना कठिन था। सो न्यूनतम आवश्यकता और सस्तेपन की हरमद को पूरी तरह ध्यान में रखने हुए योजना बनाई गई है।

स्पष्ट है कि युग निर्माण परिवार के सदस्यों का वर्ग आर्थिक दृष्टि से गुजारा कर सकने जैसी स्थिति का ही है। उनमें सुसम्पन्न तो उँगलियों पर गिनते जितने ही होंगे। निर्माण की उपरोक्त राशि उन्हें अपने ही लोगों से एकत्रित करना कठिन पड़ रहा है। सम्पन्न लोगों की भी कमी नहीं है, पर उन पर प्रभाव डालने वाली प्रतिभाएँ परिजनों में बहुत ही कम दीख पड़ती है। ऐसी दशा में जहाँ संभव है वहाँ तो बन ही रहे है और बनेंगे भी, किन्तु लगता है यह विस्तार एक छोटी सीमा तक ही हो सकेगा। जब कि समय की माँग को देखते हुए उनका विस्तार अत्यधिक संख्या में होना चाहिए। 24 निर्माणों का एक विराम ही तो पूरा हुआ है। ऐसे-ऐसे विराम पड़ाव तो अभी कितने ही पार करने होंगे। 108-240-1008- 2400 के विस्तार की आशा की जाय तो इसमें कुछ भी असमंजस या आश्चर्य की बात नहीं है।

भावनाओं का उभार और अर्थ संकोच की इन दिनों भारी रस्साकसी चल रही है। भावनाशील परिजनों के आग्रह भरे ढेरों पत्र हर दिन आते है कि कोई ऐसा डडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडड

*समाप्त*


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