प्राचीनकाल में गुरुकुल शिक्षा पद्धति छात्रों की शिक्षण व्यवस्था थी। ऋषियों के सान्निध्य में शिक्षार्थी अध्ययन करते थे और दिव्य सान्निध्य एवं प्रशिक्षण द्वारा समग्र रूप से विकसित व्यक्तित्व लेकर वापिस लौटते थे। यह गुरुकुल कहाँ थे, इसका पता लगाने पर, उनके भव्य भवनों का कहीं पता नहीं चलता। शिक्षा का इतना विस्तार और उनके निमित्त बनाये गये स्थानों का कही अता-पता तक नहीं! इस आश्चर्य के कारण की खोज करने पर विदित होता है कि गुरुकुल चलते फिरते थे। ऋषि अपने छात्रों तथा गौओं सहित परिभ्रमण करते थे। सुविधाजनक स्थानों पर पड़ाव डालते थे। कुछ समय रुकते थे और फिर आगे बढ़ने की तैयारी करते थे। इस प्रकार विद्यालयों के माध्यम से अध्ययन-अध्यापन का क्रम चलता रहता था। उससे समीपवर्ती क्षेत्रों की जनता भी लाभ उठाती थी। ऋषि संपर्क का सौभाग्य अपने समीप ही आया देखकर जन-साधारण को बड़ा बल मिलता था। छात्रों का अध्ययन और जन साधारण का लोक शिक्षण साथ-साथ चलता रहता था।
बड़े तीर्थों की स्थापना के बड़े उद्देश्य थे। छोटे-छोटे तीर्थ, देव स्थान, धर्म स्थान जगह-जगह बने दिखाई पड़ते है। इनके पीछे ऋषियों का निवास एवं प्रशिक्षण प्रक्रिया का स्मारक समझा जा सकता है। स्थान छोड़ने से पूर्व ही या पीछे उस सत्प्रवृत्ति के चलते रहने की व्यवस्था बन जाती थी, अथवा उनके बिदा होने के बाद प्रभावित व्यक्ति यह प्रयत्न करते थे कि स्थापित परम्परा नष्ट होने न पाये, धर्म धारणा की यह प्रवृत्ति किसी प्रकार भविष्य में भी चलती ही रहे। इस विचार में देवालय बनाये जाते थे। इन्हें धर्म-चेतना के केन्द्र स्थान ही कहना चाहिए। जहाँ देव प्रतिष्ठा से लेकर धर्म धारणा को सुस्थिर एवं प्रगतिशील बनाने की अनेकानेक रचनात्मक गतिविधियाँ वहाँ चलती रहती थीं। अधिकांश देव मन्दिरों के साथ अतिथि निवास को धर्मशाला एवं अध्ययन को पाठशाला की व्यवस्था जुड़ी रहती थी। कथा-प्रवचनों का सिलसिला वहाँ नियमित रूप से चलता रहता था। घरों पर संस्कारों की और सामूहिक रूप से पर्व त्यौहारों को मनाने की विधि व्यवस्था का उत्तरादयित्व इन देवालयों के संरक्षक की चलाते थे। पुरोहित, पुजारी एवं धर्म प्रचारक की भूमिका निभाने के लिए न्यूनतम एक और अधिक जितने सम्भव हो सके उतनों की निवास व्यवस्था वहाँ रहती थी। यही था देवालयों का वह स्वरूप जो गुरुकुलों के संचालक मनीषियों की प्रेरणा से बनता बढ़ता चला गया। स्थान-स्थान पर छोटे-बड़े प्राचीन देवालयों का निर्माण इसी प्रकार इसी उद्देश्य के लिए हुआ है। छोटे तीर्थों का, देव संस्थानों का इतना अधिक विस्तार अपने देश में प्राय इसी आधार पर होता गया है।
धर्म क्षेत्र के महामानवों ने स्वयं-अथवा उनके अनुयायियों ने बाद में तीर्थ स्थापना को आवश्यक समझा और उनके भाव-भरे निर्माण की व्यवस्था बनी। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र में ऐसे अनेकों देवालयों की स्थापना की थी जिनमें स्थानीय धर्म चेतना जीवन्त रखने के अतिरिक्त शिवाजी की सहायता के लिए सैनिक, शास्त्र तथा साधन भी इकट्ठे किये और भेजे जाते थे। भगवान बुद्ध की महत्वपूर्ण गतिविधियाँ जहाँ कहीं चलती रही-वहाँ उनके सामने ही अथवा बाद भी तीर्थ स्थान बन गये। सन्तों की जीवनचर्या उनके उपरान्त भी तीर्थों के रूप में प्रेरणा केन्द्र बन कर गतिशील रही है और वह आलोक अद्यावधि किसी किसी रूप में अपनी रश्मियां वितरित कर रहा है।
भगवान के विभिन्न अवतारों के क्रिया कलाप जहाँ अधिक महत्वपूर्ण प्रेरणा प्रस्तुत करते रहे हैं; वहाँ भक्तों ने तीर्थों की स्थापना की है। भगवान राम और कृष्ण की लीला भूमियों में अभी भी विद्यमान है। इस निर्माणों का एक ही उद्देश्य था कि जन साधारण को उन उद्देश्यों का परिचय, प्रकाश तथा उत्साह वहाँ पहुँचने पर मिल सके। भगवान का शरीर न रहने पर भी उनके उद्देश्य की प्रेरणा इन प्रेरणा केन्द्रों से मिलती रहती है। इसलिए उनके निर्माता इन तीर्थों का अवतारों का भावना शरीर मानते हैं और इसी श्रद्धा के साथ उनका सान्निध्य शिरोधार्य करते है।
विभिन्न धर्म सम्प्रदायों में यही प्रथा प्रचलित है कि उनके संस्थापकों की शिक्षा प्रेरणा के लिए ऐसे केन्द्र बने रहें जहाँ से उस मिशन का सुसंचालन व्यवस्थित रूप से भविष्य में भी होता रहे। ईसाई धर्म के लिए क्रिश्चियन मिशन के तत्वावधान में अनेकों छोटे-बड़े धर्म संस्थान समस्त संसार में काम करते है। धर्म प्रचारकों के निवास निर्वाह से लेकर-रचनात्मक प्रवृत्तियों का सूत्र संचालन समीपवर्ती क्षेत्र में इन्हीं केन्द्रों से होता है। उस सम्प्रदाय वालों की दृष्टि से इस प्रकार के धर्म केन्द्रों को इसी भावना से देखा जाता है; जिससे कि भारत में तीर्थों का सम्मान होता है। सिक्खों के गुरुद्वारे मात्र पूजा स्थल ही नहीं होते वहाँ वे प्रवृत्तियाँ भी चलती है जिनके सहारे सिख धर्म की प्रेरणाएँ वहाँ पहुँचने वालों को मिलती रहें।
तीर्थों का स्थापना में कई सन्तों का विशेष प्रयत्न रहा है। आद्य शंकराचार्य की प्रेरणा से भारत के चार कोनों पर चार धामों की स्थापना हुई। उनके शिष्य मान्धता ने अपने गुरु की इच्छा योजना पूरी करने के लिए अपना सर्वत्र दाव पर लगा दिया और वह महान प्रयोजन पूरा कर दिखाया। ब्रज धाम के अधिकांश तीर्थ महाप्रभु चैतन्य के संकेत पर कृष्ण भक्तों ने बनाये और उन क्षेत्रों में विनिर्मित देवालयों का वर्तमान स्वरूप सामने आया। पुष्टि मार्गीय सम्प्रदाय के धर्मगुरु जहाँ-जहाँ रहे जहाँ करते रहे प्रायः उन सभी प्रमुख स्थानों में उनकी बैठक बनी हुई हैं। स्वामी नारायण सम्प्रदाय में भी ऐसा ही हुआ है। उनके धर्म गुरु जहाँ भी कुछ महत्वपूर्ण कृत्य करते रहें है, प्राय; उन सभी स्थानों पर देवालय बने हुए है।
तीर्थों का प्रयोजन प्रेरणाओं के देवालयों के साथ जोड़कर जन-संपर्क साधना और उस आलोक से लोक श्रद्धा को प्रभावित करना रहा है। यह प्रयोजन जहाँ से, जिस प्रकार, जिस सीमा तक पूरा होता है, उसी अनुपात से उसे जीवन्त कह सकते है। अन्यथा मात्र देव प्रतिमाओं को अलग-अलग स्थापित करते फिरने और वहाँ पूजा पत्री भर की चिन्ह पूजा होते रहने से उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती, जिसके लिए इस महान स्थापना के लिए ऋषियों ने अपनी दूरदर्शिता एवं प्रखर प्रयत्नशीलता का प्रयोग किया था।
देवता का पूजन तभी उपयोगी हो सकता है जब उस अर्चना के फलस्वरूप आदर्शवादी प्रेरणाओं को उकसाने का समर्थ आधार भी उसके साथ ही जुड़ा हुआ हो। ऐसा न बने पड़े तो घर में चौकी पर रखी छोटी प्रतिमा भी पूजा प्रयोजन के लिए पर्याप्त है; फिर उसके लिए इतने धन और श्रम का विनियोग किस लिये किया जाय?
प्रेरणाओं से रहित मात्र पूजा प्रयोजन तक सीमित देवालयों के प्रति बुद्धिवादी वर्ग के तीखे आक्षेप होते हैं। वे इसे स्थान, पूँजी एवं श्रम का अपव्यय मानते हैं तथा धर्म व्यवसायियों द्वारा महालोभी पूँजी पतियों के द्वारा रचा हुआ षड्यंत्र बताते है। इन आक्षेपों का समाधान कारक उत्तर इसी रूप में दिया जा सकता है कि उनके द्वारा उच्चस्तरीय आस्था की निर्माण कर सकने वाली रचनात्मक प्रवृत्तियों का संचालन होता रहे। आज के तीर्थों को इसी कसौटी पर कसा जाना चाहिए कि वे अपने मूल प्रयोजन-उत्कृष्टा परक आस्था संवर्धन में कहाँ तक सहायक होते है। यदि ऐसा न हो सका तो वे अपनी उपयोगिता खोते चले जायेंगे और परम्परागत श्रद्धा की पूँजी समाप्त होते-होते उपहास के ही नहीं; तिरस्कार के भी भाजन बनेंगे।