चौबीस गायत्री शक्ति पीठें 24 तीर्थों में बनने जा रही है। इसके अतिरिक्त जागृति केन्द्रों के रूप में यही प्रतिष्ठापना कुछ अन्य स्थानों में भी होगी। सम्भवतः वे भी इतने ही हों, या इनसे भी अधिक। आगामी चौबीस महीनों के भीतर बन कर खड़े हो जायेंगे। सभी की इमारतें प्रायः एक जैसी होंगी। सभी में लागत प्रायः डेढ़ लाख के लगभग आवेगी। सभी में 9 प्रतिमाएँ स्थापित होगी और सभी में पाँच परिव्राजक रहेंगे। संख्या की दृष्टि से इस अवधि में एक सौ तक पहुँच सकती है। यह सौभाग्य जिन स्थानों को मिलेगा वे प्रचलित तीर्थों की तरह ही विख्यात होंगे। तीर्थ यात्रियों की मण्डलियाँ देशभर से वहाँ पहुंचा करेगी। इन धर्म केन्द्रों के स्थापनकर्ता भी यशस्वी बनेंगे और अपने सत्साहस का पुण्य परिणाम देखकर गर्व गौरव अनुभव करेंगे।
इतने पर भी यह निश्चित है कि मुट्ठी भर स्थानों और व्यक्तियों को ही इस प्रकार का श्रेय सौभाग्य प्राप्त होगा; जबकि आकाँक्षा सभी की यह रहेगी कि ऐसा सुयोग उन्हें स्वयं को भी मिला होता, अथवा उनका स्थान भी इस गणना में आ सका होता तो कितना अच्छा रहता।
प्रस्तुत गायत्री शक्ति पीठ योजना का एक छोटा-सरल, सर्वसुलभ रूप यह हो सकता है कि ज्ञान रथ के रूप में स्थानीय देव मन्दिर बनाया जाय। इसकी लागत अधिकतम एक हजार और युग साहित्य की पूँजी अधिकतम एक हजार होगी। कुल लागत दो हजार से अधिक नहीं कम ही बैठेगी। थोड़ी किफायत करने पर यह डेढ़ हजार और बहुत अधिक किफायत करने पर एक हजार तक की हो सकती है। उसे चलते-फिरते प्रज्ञा-मन्दिर के रूप में समझा जा सकता है। तीर्थ संचालक परिव्राजक के रूप में अपना निज का समय दो चार घण्टा नित्य दे सकते है।
ज्ञान रथ अभियान की जिन्हें जानकारी है वे जानते है कि उन्हें आत्मिक दृष्टि से ऋतम्भरा प्रज्ञा का विशुद्ध देव मन्दिर ही समझा जा सकता है। घर-घर युग साहित्य पहुँचाना और वापिस लाना प्राचीन काल के सन्तों द्वारा घर-घर अलख जगाने की तरह ही परमार्थ प्रयोजन है। जो लोग मन्दिर में नहीं पहुँच पाते उन्हें घर पर मन्दिर को ले पहुँचना ऐसा ही है जैसा दुर्घटना ग्रस्त अपंगों के पास स्वयं दौड़कर जाने वाले सेवा भावियों का होता है। गायत्री शक्ति पीठ का लाभ वे ही उठायेंगे जो वहाँ तक अपने पैरों चल कर पहुँचेंगे। किन्तु जो वहाँ तक किसी कारण वश नहीं जा पाते उनके घर तक मन्दिर को स्वयं घसीट कर ले पहुँचना कम नहीं वरन् अधिक महत्व का ही सेवा कार्य है।
ऋतम्भरा प्रज्ञा ही गायत्री है। युग साहित्य में उसकी आत्मा का दर्शन और भी अधिक अच्छी तरह हो सकता है। यों प्रतिमा के सान्निध्य से भी भक्ति भावना जगती है उन्हें सत्साहित्य के स्वाध्याय से भी कम लाभ नहीं मिलता, इसे भली प्रकार समझ लेना चाहिए। भगवती सरस्वती की मयूर वाहिनी प्रतिमा भी पूजनीय है, पर विद्या विस्तार के रूप में जो प्रयास चल रहे है; उनमें भी माता शारदा को ही वीणा बजाते हुए देखना चाहिए। गायत्री माता की प्रतिमाएँ शक्ति पीठों में भी स्थापित होंगी पर प्रज्ञा का आलोक वितरण करने वाले साहित्य में भी उसी तथ्य की प्रत्यक्ष झाँकी होने की बात भी झुठलाई नहीं जा सकती।
ज्ञान रथों के रूप में चलने वाले-चलते-फिरते प्रज्ञा मन्दिर भी गायत्री माता के छोटे किन्तु प्रकाश भरे देवालय ही है। प्रकारान्तर से वे सभी उद्देश्य उनके द्वारा पूरे होते है जो शक्ति पीठों के साथ जुड़े हुए है। इन्हें परमार्थ बुद्धि से चलाने में जितना समय लगता है उसे तीर्थ परिव्राजकों की श्रद्धा के समतुल्य ही समझा जा सकता है। जो कार्य बड़े रूप में शक्ति पीठ करेंगे उसी को इन प्रज्ञा रथों के माध्यम से भी छोटे रूप में पूरा किया जा सकेगा। अन्तर परिमाण का तो है परिणाम का नहीं। छोटे और बड़े शालिग्राम आकार में ही न्यूनाधिक होते हैं उनकी पूजा करने वाले समान रूप से अपनी श्रद्धा साधना का प्रतिफल प्राप्त करते है।
जो अपने यहाँ शक्ति पीठ स्थापित न कर सकें, वे छोटे आकार का प्रज्ञा-मन्दिर चलते-फिरते ज्ञान रथ के रूप में बना लें और अपना निज का समय उसे दो घन्टा नित्य चलाने में लगाना आरम्भ कर दें। जो इतना कर सकें उन्हें प्रशंसा न सही सन्तोष करने का पूरा अवसर है। ऐसा बन पड़े तो छोटे रूप में शक्ति पीठ के निर्माण एवं संचालन जैसा युग सृजन में एक छोटा योगदान माना जा सकता है।
जो स्वयं नहीं बना सकते, वे मिल जुलकर ज्ञानरथ बनालें। जो स्वयं उसके लिए समय नहीं दे सकें तो स्थानीय समय दानी परिव्राजकों से उसे बारी-बारी चलाने का अनुरोध कर सकते है।
एक उपाय यह भी हो सकता है-कि किसी कुशल व्यक्ति को उतने घन्टे के लिए नियुक्त कर लिया जाय और उतने पैसे का प्रबन्ध कर दिया जाय। इस संदर्भ में मथुरा केन्द्र ने यह निश्चय किया है कि साहित्य का लाभांश विशुद्ध रूप से परिव्राजक प्रयोजनों में ही लगेगा। और लाभांश ‘कमीशन’ के आधार पर वितरित किया जाता है। श्रम और मनोयोग नापने और उसका पुरस्कार देने का एक काम चलाऊ माप दण्ड और भी है कि श्रम कर्ता को कमीशन दिया जाय। तीर्थ संचालकों के खर्च की व्यवस्था का एक बड़ा आधार भी यह लाभांश ही है। ज्ञानरथों को भी इस सुविधा का लाभ मिलेगा और जो लोग उन्हें चलायेंगे वे अपने निर्वाह के कुछ साधन उसी प्रकार उपलब्ध कर सकेंगे; जिस प्रकार शक्ति पीठों में काम करने वाले परिव्राजकों को मिलते है।
इन सचल प्रज्ञा-मन्दिरों की स्थापना हर तीर्थ में तत्काल की जा सकती हैं शक्ति पीठ 24 की संख्या में या उससे कुछ अधिक बनने जा रहे हैं, पर प्रसिद्ध तीर्थों की ही संख्या 2400 से ऊपर है। इन सबमें शक्ति पीठ तो नहीं बन सकते पर प्रज्ञा मन्दिर हर जगह चल सकते है। कार्यकर्ता का पारिश्रमिक और वेतन के बीच डडडड इनके संचालकों एवं साथियों को मिल-जुलकर उठानी चाहिए। इस व्यवस्था के आधार पर 2400 तीर्थों में कुछ ही समय में प्रज्ञावतार आलोक वितरित होने का सुयोग बन सकता है। उससे भी निश्चित रूप से वही सत्परिणाम छोटे रूप में मिल सकता है जो बड़े रूप में प्रस्तुत शक्ति पीठों के द्वारा मिलने जा रहा है।
यह प्रयोग बिना जोखिम का है। कोई निजी रूप से भी इसे आरंभ करें तो किसी बड़े असमंजस की आवश्यकता नहीं है। असफलता मिले तो विनिर्मित ज्ञान रथ को कोई भी फेरी वाला प्रसन्नतापूर्वक खरीद सकता है। मुश्किल से ही सौ-दो सौ का घाटा पड़ेगा। बची हुई पुस्तकें किसी भी पुस्तक विक्रेता को उसी मूल्य पर दी जा सकती हैं जिस पर वह प्राप्त हुई हैं। यह खुला रहस्य है बड़े पुस्तक विक्रेताओं को भी थोक माल लेने पर 25 प्रतिशत से अधिक कमीशन देने का नियम नहीं है। जबकि नियमित और व्यवस्थित ज्ञान रथों को 33 प्रतिशत तक की छूट दे दी जाती है। बची हुई पुस्तकें मिले हुए कमीशन को काट कर किसी पुस्तक विक्रेता को ज्ञान रथ वाले दे दें तो उन्हें उस कार्य में लगाई गई पूँजी में कोई कमी न पड़ेगी। ज्ञान रथों के बनाने में आरम्भिक पूँजी तो लगती है, पर पूँजी डूबने की आशंका नहीं है।
हर तीर्थ में-हर बड़े नगर में ज्ञानरथों के रूप में छोटे गायत्री शक्ति पीठ बनाये और चलाये जा सकते है। इसलिए उन सभी को प्रयत्नशील होना चाहिए जो अपने स्थान या व्यक्तित्व को इस पुण्य स्थापना के साथ सम्बद्ध करने के इच्छुक हों।