शक्तिपीठों का संचालन परिव्राजकों द्वारा

May 1979

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शरीर को पाँच तत्वों का चमत्कार और चेतना का, पाँच प्राणों का सघन सहकार कहा जा सकता है। गायत्री शक्ति पीठों का निर्माण जिस भाव-भरी आशा उमंगों के साथ किया जा रहा है उसका आधार उन पाँच परिव्राजकों को कहा जा सकता है जो उन देव संस्थाओं का संचालन अपने देव-प्रयासों के माध्यम से करते रहेंगे। देवालयों के प्रति गिरती हुई श्रद्धा की रोकथाम करने तथा मन्दिरों को अनुपयोगी बनाने वालों को पुनर्विचार के लिए विवश करने में गायत्री शक्ति पीठों की असाधारण भूमिका होगी। यह कार्य अनायास ही नहीं हो जायगा। इमारतें उतना सब नहीं कर लेंगी। यह कार्य प्राणवान परिव्राजकों का है। निर्माण में लगा हुआ धन एवं उदार श्रम सहयोग अपना कार्य करके कुछ ही समय में निवृत्त हो जायगा, पर इन्हें इन धर्म संस्थानों को जीवन्त रखने, उनके प्रति जन-साधारण की श्रद्धा अर्जित करने, प्रबुद्ध वर्ग को इन निर्माणों की उपयोगिता स्वीकार करने के लिए जिस प्रकार के उत्कृष्ट क्रिया-कलाप अपनाने होंगे उनका सूत्र संचालन यह परिव्राजक ही करेंगे।

गायत्री के पाँच मुख हैं-पांच देवता प्रसिद्ध हैं पंचामृत को उपयोगी माना जाता है-पाँच तत्व और पाँच प्राण अपनी समर्थता का परिचय देते रहते है। उन्हीं पंचकों में इन पाँच परिव्राजकों की भी गणना की जा सकती है जो इन गायत्री शक्ति पीठों की विशिष्टता सिद्ध करने में अनवरत श्रम एवं भाव-भरे मनोयोग के साथ युग तपस्वियों की तरह निरन्तर जुटे रहेंगे। पाँच देव-कन्याओं के जत्थे-महिला जागृति अभियान के अंतर्गत पिछले दिनों देश भर में भेजे गये थे और उनने अपनी प्रखरता से वातावरण गरम किया। जिस प्रयोजन के लिए उन्हें प्रशिक्षित किया गया था वह एक शब्द में पूरी तरह सफल हुआ ही कहा जा सकता है। पाँच परिव्राजकों के जत्थे भी लगभग उसी स्तर के समझे जा सकते है।

रजत जयन्ती वर्ष में प्रव्रज्या अभियान आरम्भ किया गया है। उसके लिए अग्रसर होने वाले युग शिल्पियों का एक अच्छा समुदाय उभर कर आगे आया है। जागृत आत्माओं के नाम भेजा गया महाकाल का युग निमन्त्रण निरर्थक नहीं गया। भावनाशील उत्कृष्टता ने उसे ध्यानपूर्वक सुना और युग धर्म की आवश्यकता स्वीकार करते हुए अपना आत्मदान प्रस्तुत किया है। इन्हें इस वर्ष में विशेष सत्र लगाकर प्रशिक्षित किया गया है। महापुरश्चरण योजना के अंतर्गत होने वाले आयोजनों में दो-दो परिव्राजकों के जत्थे भेजे गये है। उनने प्रस्तुत कार्यक्रमों में जिस शालीनता एवं तत्परता के साथ आयोजन कर्ताओं का हाथ बटाया है उसकी सर्वत्र भूरि-भूरि प्रशंसा हुई है। महापुरश्चरण आयोजनों को एक वर्ष में समाप्त न करके 25 महीने चलने देने का निश्चय किया गया है। उसकी पूर्ण आहुति एक वर्ष बाद गायत्री जयन्ती सन् 81 में होगी। तब तक प्रस्तुत परिव्राजकों को फिर दो-दो के जत्थों में आगामी कार्यक्रमों के लिए भेजा जाता रहेगा।

आशा की गई है कि रजत जयन्ती वर्ष का दूसरा वर्ष पूरा होते-होते जन 81 तक एक वर्ष के भीतर चौबीस गायत्री शक्ति पीठ बन चुके होंगे। इनमें पाँच पाँच परिव्राजक नियुक्त कर दिये जायेंगे। तब तक महापुरश्चरण योजना के लिए उन्हें भेजने की आवश्यकता भी पूरी हो चुकेगी। इस प्रकार चौबीस तीर्थों में 120 परिव्राजक नियुक्त कर दिये जायेंगे। जहाँ अधिक की आवश्यकता समझी जायेगी वहाँ पाँच से अधिक भी भेजे जा सकेंगे।

कहा जा चुका है कि यह जत्थे एक-एक वर्ष बाद बदल जाया करेंगे। उन्हें नये-नये स्थानों पर जाकर नये अनुभव सम्पादित करने का अवसर मिलेगा। शक्ति पीठों के संपर्क क्षेत्रों को भी नई विशेषताओं से युक्त नये लोक सेवाओं के संपर्क का नया आनन्द लेते रहने की नवीनता का लाभ मिलता रहेगा। बड़ी बात है कि परिव्राजकों की गरिमा लोभ और मोह के चंगुल में फँसकर नष्ट-भ्रष्ट होने से बची रहेगी। सरकारी कर्मचारियों की तरह शक्ति पीठों के संरक्षकों का भी स्थानान्तरण उपयोगी समझा गया हैं यों स्थान बदलने और संपर्क छोड़ने में भावनात्मक एवं व्यवस्था परक कठिनाई तो होती ही है। पर क्या किया जाय-जल धारा के प्रवाह मान रहने पर ही उसकी स्वच्छता बने रहने का प्रयोजन पूरा होता है।

परिव्राजकों की भर्ती तथा उनके शिक्षण का क्रम शान्ति-कुंज में विगत आठ महीने से चल रहा है। समय की आवश्यकता को देखते हुए थोड़े-थोड़े दिनों के शिक्षण सत्रों में उन्हें रखा गया और काम चलाऊ निर्देश देकर बाहर भेज दिया गया। पर आगे से उनके भावी उत्तरदायित्वों को देखते हुए अधिक कारगर शिक्षण की-व्यवस्था की जायगी और वह व्यक्ति विशेष की स्थिति के अनुरूप समय साध्य भी होगी। जुलाई 80 से प्रव्रज्या प्रशिक्षण की सुव्यवस्थित पाठ्य प्रक्रिया आरम्भ हो जायगी। अक्टूबर से फिर देश-व्यापी महापुरश्चरण आयोजन प्रारम्भ होंगे उनके लिए परिव्राजकों के जत्थे अधिक कुशलतापूर्वक काम कर सकें इसके लिए जुलाई-अगस्त-सितम्बर के तीन महीने विशुद्ध रूप से परिव्राजक प्रशिक्षण के लिए रखे गये है। भाषण कला, सम्भाषण कुशलता, स....त, कथा प्रवचन, यज्ञ कृत्य, पर्व संस्कार जनम दिन आदि कर्मकाण्ड एवं जन-संपर्क के उतार-चढ़ाव, धर्मतन्त्र से लोक-शिक्षण की रूप-रेख एवं कार्य पद्धति का इस प्रशिक्षण में समुचित समावेश रहेगा। तीन महीने की इस शिक्षा को भी अगले वर्षों के आयोजनों की आवश्यकता को ध्यान में रखकर तदनुरूप ही बनाया जा रहा है। इसके उपरान्त इसे शिक्षण पद्धति की सामयिक आवश्यकता की पूर्ति से आगे बढ़ा कर स्थायी कर दिया जायगा और उसमें गायत्री शक्ति पीठों के लिए स्थायी रूप से भेजे जा सकने योग्य युग शिल्पियों की भर्ती होगी।

गायत्री शक्ति पीठ प्रायः भारत के हर प्रान्त में बनने जा रहे हैं। उनको भाषा सम्बन्धी कठिनाई पड़ेगी। परिव्राजकों के स्थानान्तरण होते रहेंगे। उन्हें एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में भेजा जाता रहेगा। ऐसी दशा में आवश्यक है कि उन्हें कई भाषाएँ आती हों। भारत में 14 भाषाएँ संविधान में मान्यता प्राप्त है। इसके अतिरिक्त ऐसी क्षेत्रीय भाषाएँ एक सौ से अधिक हैं जिनकी लिपि तो पृथक नहीं है, पर शब्द कोश-व्याकरण आदि से पूरी-पूरी भिन्नता है। जो जिस क्षेत्र में जन-संपर्क के लिए उतरेगा उसे उस समुदाय की भाषा आनी ही चाहिए इस दृष्टि से प्रव्रज्या विद्यालय में भाषायी प्रशिक्षण की अतिरिक्त कक्षाएँ चलेंगी और प्रयत्न किया जायगा कि परिव्राजकों को कई-कई भाषाएँ आये। न केवल भाषा का-वरन् क्षेत्रीय संस्कृति एवं प्रथा परम्पराओं की भी उन्हें समुचित जानकारी हो। इसके बिना वे किसी एक क्षेत्र में भले ही जमे रहें-विभिन्न क्षेत्रों में काम करने योग्य न बन सकेंगे। ईसाई मिशनरी योरोप आदि देशों से आते हैं तो उन्हें जहाँ काम करना है वहीं की भाषा तथा संस्कृति का अध्ययन क्रिश्चियन कालेजों में प्राप्त करना पड़ता है। इसके उपरान्त ही वहाँ उन्हें भेजा जाता है। बौद्ध प्रचारकों के लिए भी ऐसी ही व्यवस्था थी। नालन्दा-तक्षशिला आदि संधारामों में एशिया तथा योरोप की प्रमुख भाषाएँ पढ़ाने तथा जहाँ उन्हें भेजा जाना है वहाँ की प्रथा परम्परा सम्बन्धी जानकारियाँ भी प्रशिक्षण का अ.... रहती थी। अपने प्रव्रज्या प्रशिक्षण के लिए शान्ति-कुँज में भी वैसी ही व्यवस्था बनाई जायेगी। कार्य क्षेत्र तो अपना भी प्राचीन बौद्धों और अर्वाचीन इसाइयों की तरह ही व्यापक बनना है। प्रवासी भारतीयों को भी युग सृजन में अपनी भूमि निभाने की प्रेरणा दी जानी है और प्रायः 74 देशों में बसे इन प्रवासी भारतीयों के उद्बोधन के लिए भी जत्थे भेजे जाते है। गायत्री शक्ति पीठें वहाँ भी बननी है। ऐसी दशा में भाषायी ज्ञान उन क्षेत्रों का भी कराने के लिए प्रस्तुत प्रशिक्षण की उपयुक्त व्यवस्था सम्मिलित की जा रही है।

गायत्री शक्ति पीठों प्रकारान्तर से-धर्म मंच से लोक शिक्षण को पुण्य प्रक्रिया के प्रसार केन्द्र कहा जा सकता है। चलते-फिरते पुस्तकालयों की तरह उन्हें चलते-फिरते ब्रह्म विद्यालय कहा जा सकता है। नियुक्त पाँच परिव्राजकों को इनमें प्रशिक्षण क्रम चलाने वाले पाँच उपाध्याय, अध्यापक कहा जा सकता है। स्कूली पढ़ाई और धर्म शिक्षा शिक्षा की प्रक्रिया में अन्तर होता है। इसी प्रकार छात्रों को एक जगह बिठा कर पढ़ाने के तथा घर-घर जाकर जन-जन से मिलकर सिखाने की रीति-नीति अलग प्रकार की होती है। इतने पर भी उद्देश्य एक ही है। परिव्राजकों की अध्यापन पद्धति जन-संपर्क होने के कारण चलते-फिरते स्तर की है तो भी उनसे आवश्यकता वहीं पूरी होती है जिसे प्राचीन काल के गुरुकुल एवं आरण्यक पूरी करते थे। प्रव्रज्या पर्यटन नहीं है। परिव्राजक मायावरों की तरह भटकते नहीं है, उन्हें जन-जन में धर्म-चेतना उत्पन्न करने के लिए प्रशिक्षित किया गया है और उसी युग साधना में तपस्वी योगी की तरह एक निष्ठा भाव से लगे रहने के लिए कहा गया है। वह उसी उत्तरदायित्व को शपथपूर्वक निभायेंगे भी।

शक्ति पीठों में भेजे गये परिव्राजकों की प्रशिक्षण प्रक्रिया इस प्रकार चलेगी (1) दर्शकों को नौ प्रतिमाओं के दर्शन कराते हुए-नौ सत्प्रवृत्तियों का महत्व समझाना और उन्हें अपनाकर देवोपम जीवन जीने की प्रेरणा करना (2) जिनमें जिज्ञासा के कुछ भी बीजाँकुर मिलें उन्हें सत्संग कक्ष में बिठाकर आत्मीयतापूर्वक भारतीय संस्कृति के तत्व बीज गायत्री और उसके अवलम्बन का स्वरूप समझाना। इस अवलंबन की दूरगामी प्रतिक्रिया समझाना (3) संपर्क में जिनके साथ घनिष्ठता बढ़े उन्हें साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा के द्वारा सर्वतोमुखी आत्म-विकास के लिए प्रोत्साहन तथा मार्गदर्शन देना। (4) दो परिव्राजकों के एक जत्थे का प्रतिदिन दो गाँवों में जाना। विचारशील लोगों से संपर्क बनाना। नवयुग के संदेशों से अवगत करना और तदनुरूप ढलने की प्रेरणा देना। (5) जन्म-दिन मनाने का उत्साह उत्पन्न करके व्यक्ति निर्माण की-संस्कार प्रचलन से परिवार निर्माण की-पर्व त्यौहारों को सामूहिक रूप से मनाकर समाज निर्माण की चेतना उत्पन्न करना। इन धर्म-कुकृत्यों के सहारे अधिकाधिक संपर्क साधना (6) रात्रि को किसी गाँव में रुक कर वहीं रामायण, गीता आदि की कथा कहना और धर्म चेतना उत्पन्न करना (7) पन्द्रह दिन का गति चक्र बना कर हर दिन दो गाँवों में जाने के क्रम से तीस गाँवों का एक मण्डल बनाना और उसे अपनी मण्डलीय कार्य क्षेत्र मानकर विचार-क्रान्ति के लिए पथ प्रशस्त करना (8) अपने क्षेत्र में चलपुस्तकालयों की व्यवस्था बढ़ाना (9) प्रौढ़ शिक्षा, नशा निवारण, वृक्षारोपण, श्रमदान, व्यायामशाला, स्वच्छता सहकारिता, कुप्रथाओं, अन्धमान्यताओं का और अनैतिकताओं का उन्मूलन, जैसे रचनात्मक प्रयत्नों में स्वयं लगना दूसरों को लगाना। (10) कर्मक्षेत्र में चल रही सरकारी गैर सरकारी सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने के लिए जन सहयोग जुटाना।

परिव्राजकों का संपर्क प्रयोजन, व्यक्तिगत दोस्ती बढ़ाना या आवारागर्दी में भटकना नहीं वरन् रचनात्मक कार्यों के लिए भावभरा जन-सहयोग उत्पन्न करना है। इन प्रयोजनों में निरंतर दत्त चित्र रहने वाले परिव्राजक अपने उज्ज्वल चरित्र और शालीनता भरे सौम्य व्यवहार से असंख्यों को स्नेह-बन्धनों में जकड़ेंगे और उन्हें मानवी गरिमा को बढ़ाने वाला दृष्टिकोण अपनाने के लिए सहमत करेंगे, ऐसा विश्वास किया जा सकता है। युग निर्माण योजना विशुद्ध रूप, से व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण के कार्यक्रमों में संलग्न है। उसका विश्वास है कि राष्ट्र और विश्व का वास्तविक निर्माण इसी प्रकार हो सकता है। राजनैतिक विरोध समर्थन दूसरे लोगों का काम है; परिव्राजक तो सरकारी गैर सरकारी सभी क्षेत्रों का-सभी व्यक्तियों का सहयोग समर्थन, सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए उपलब्ध करने और उन्हें उचित सहयोग देने के लिए सदा तत्पर रहते हैं।


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