गायत्री तीर्थों के घोषित स्थानों की पृष्ठ भूमि

May 1979

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गायत्री तीर्थों की स्थापना का कार्य लगता तो ऐसा है मानों कोई नया प्रयास है, पर वास्तविकता यह है कि यह ऋषि प्रणीत तीर्थ परंपरा का जीर्णोद्धार मात्र है। इसे चिर पुरातन का चिर नवीन के साथ नये सिरे से किया गया गठबन्धन मात्र कह सकते है। इस अभिनव प्रयत्न में वे सभी तत्व कूट-कूट कर भरे है। जिनसे उन मूल प्रयोजनों की पूर्ति हो सके जिसे ध्यान में रख कर तत्व दर्शी महामनीषियों ने यह अत्यंत दूर दर्शिता पूर्ण योजना-धर्म धारणा को जीवन्त एवं ज्वलन्त रखने के लिए बनाई थी।

प्रस्तुत योजना के तीन अंग है (1) स्थानों का चयन एवं भवनों का निर्माण (2) उनके द्वारा उनमें संचालित रहने वाली गतिविधियों का निर्धारण (3) संचालन कर्ता परिव्राजकों का प्रशिक्षण एवं निर्वाह। इन तीनों ही दिशा धाराओं को गंगा, यमुना, सरस्वती के मिलन का संगम कह सकते हैं। इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना के मिलने से जागृत होने वाली -युगान्तर चेतना के रूप में उभरने वाली कुण्डलिनी का विश्व जागरण भी इसे माना जा सकता है। सत् भावना में सत्य, विचारणा में शिवम् और क्रिया में सुन्दरम् का प्राण संचार करने वाली इसे गतिशील गायत्री कह सकते हैं। देखने सुनने में यह कोई भवन निर्माण जैसा कार्यक्रम लगता है किन्तु वस्तुतः इसे धर्मचेतना का रक्त संचार करने वाली महाधमनी में अड़े हुए अवरोध को हटाने वाला एक अद्भुत शल्य प्रयोग ही समझा जाना चाहिए और विश्वास किया जाना चाहिए कि इसके दूर गामी परिणाम होंगे। युगनिर्माण अभियान को उछाल देने की इसे ऐसी तैयारी कहा जा सकता है जैसी कि अन्तरिक्षीय राकेट भेजने के लिए उस यान को उछाल देने वाली प्रचण्ड ऊर्जा जुटाते समय की जाती है।

प्रथम प्रयोजन है स्थानों का चुनाव। इसके लिए उन सभी बातों को ध्यान में रखना होगा जिन्हें प्राचीन काल के ऋषियों को ध्यान में रखना होगा जिन्हें प्राचीन काल के ऋषियों ने ध्यान में रखकर उपयुक्त क्षेत्रों का चयन किया था। इस निर्वाचन में उन्होंने कई बातों का ध्यान रखा है यथा-

(1) ऐतिहासिक प्रेरणाएं-जिनकी स्मृति दिलाने पर आगन्तुकों की भावनाएँ उछलने लगें और महान पूर्वजों के चरित्रों-प्रेरणाओं, एवं निर्देशों को अपनाने के लिए उत्साह उमँगे। महानता को अपनाने वाले महामानवों के प्रति श्रद्धा उमंगे। उनके प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के लिए श्रद्धाँजलि चढ़े। अनुसरण एवं अनुगमन का भाव उठे।

(2) जलवायु की दृष्टि से -उन स्थानों की विशेषता हो। वहाँ कुछ समय निवास करने वालों को प्रकृति विशेषता एवं वातावरण की उपयुक्तता का लाभ मिले।

(3) धर्म प्रचारकों को जनजागरण प्रक्रिया में सहायता देने वाले साधन जहाँ स्थानीय एवं क्षेत्रीय सहयोग से सरलता पूर्वक उपलब्ध हो सकें।

(4) धर्म चेतना उत्पन्न करने के लिए विभाजित क्षेत्रों का जहाँ एक मण्डल केन्द्र बन सके।

(5) जहाँ अधिक जन संपर्क बन सके जहाँ आवागमन की यातायात सम्बन्धी हो।

प्राचीनकाल में इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए तीर्थों का निर्धारण किया गया था गायत्री तीर्थों के लिए स्थानों का चयन करते समय भी इन्हीं तथ्यों के ध्यान में रखा गया हैं परंपरागत तीर्थों वाले स्थान इस दृष्टि से अधिक उपयुक्त माने गये है। ऋषियों के चयन इस दृष्टि से बहुत ही उपयुक्त थे। उन्होंने महामानवों के व्यक्तित्वों की एवं प्रेरणाप्रद महान घटनाओं की ऊर्जा का बाहुल्य जिस भूमि में अपनी सूक्ष्म दृष्टि देखा वहाँ उन्होंने तीर्थ निर्माण की योजना बनाई और समर्थ लोगों को प्रेरणा देकर उसकी पूर्ति कराई। साथ ही यह भी ध्यान में रखा कि इसके अतिरिक्त अन्य चार प्रयोजन भी वहाँ पूरे हो सकते हैं या नहीं। जहाँ उपयुक्तता देखी वहाँ ध्वजा गाढ़ी और व्यवस्था बनाई।

गायत्री तीर्थों के नव-निर्माण में उस पूर्व परम्परा का अनुसरण करना अधिक सरल है। इन स्थानों में धर्म कृत्य श्रद्धा अश्रद्धा से किसी प्रकार होते ही रहते हैं और उनका प्रभाव भूमि को प्रभावित किये बिना नहीं रहता। हर तीर्थ के पीछे ऐतिहासिक सत्प्रयत्नों को भूमिका है। वहाँ धर्म प्रयोजनों के लिए अनेकों व्यक्ति सहज ही आते रहते हैं। इनमें संपर्क साधनों में प्रचलित प्रवाह के कारण सरलता रहेगी। नव सृजन के लिए धर्म चेतना सम्पन्न व्यक्तियों को अग्रिम पंक्ति में आना होगा। धर्म तन्त्र से लोकशिक्षण की प्रक्रिया को अग्रगामी बनाने के लिए ऐसे व्यक्तियों का सहयोग अपेक्षित है जिनमें इस प्रकार के संचित संस्कार विद्यमान हों। इन्हें कहाँ से ढूँढ़ा जाय। अन्य प्राणियों को तलाशना हो तो जलाशयों के निकट जाना चाहिए जहाँ वे प्रायः ही जाते है। भिन्न-भिन्न स्थानों पर उन्हें तलाश करने की अपेक्षा एक ही स्थान पर ढूँढ़ खोज जारी रखी जाय और संपर्क बनाकर सुसंस्कारित का पता लगाया जाय तो निश्चित रूप से वर्तमान तीर्थों वाले स्थान अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति अधिक आसानी से कर सकते हैं।

तीर्थ यात्रियों को गायत्री माता का छोटा चित्र वितरण करते रहने तथा स्थानीय गायत्री तीर्थ में पधारने का आमन्त्रण देते रहने से वहाँ भी सहज ही यात्रीगण पहुंचेंगे उन्हें इस देवालय में स्थापित गायत्री की नौ प्रतिभाओं का दर्शन कराते हुए धर्म चेतना की नो दिशा धाराओं का परिचय कराने के लिए नियुक्त मार्ग दर्शक प्रसंग की जानकारी कराते रहें तो आगन्तुकों को प्रज्ञावतार की दैवीभूमिका तथा उसके लोकव्यवहार में उतरने की सुखद प्रतिक्रिया की जानकारी कराई जाय तो निश्चित रूप से हर दर्शक को एक ऐसी जानकारी मिलेगी जिसे प्राप्त करने से तीर्थ यात्रा की सार्थकता होती है।

इन स्थापित तीर्थों में हर यात्री की गायत्री संदर्भ की जिज्ञासाओं के समाधान की नियमित व्यवस्था रहेगी। जो कुछ अधिक जानना चाहेंगे उन्हें सत्कार पूर्वक बिठाया जायगा और पूरे मनोयोग से इस तत्वज्ञान का परिचय कराया जायगा। इस प्रकार दर्शनार्थी देवालय की झाँकी करने में भगदड़ मचाने एवं रेल-पेल करने की अपेक्षा शान्त चित्त से कुछ समय बैठने, शीतल जल आदि का सत्कार पाने एवं आत्मीयता पूर्वक विस्तृत जानकारी प्राप्त करने पर ऐसा अनुभव करेंगे कि उन्हें तीर्थ परम्परा के प्राचीन स्वरूप की झाँकी हो रही है। गायत्री तीर्थों में नियुक्त मार्गदर्शकों द्वारा नौ प्रतिमाओं का परिचय कराने-समाधान कक्ष में नियुक्त समाधानी द्वारा सत्कार पूर्वक जिज्ञासाओं के समाधान के साथ-साथ वह सब कुछ बताया जा सकता है जो जन मानस के परिष्कार एवं उत्कृष्टता की परम्परा प्रचलित करने के लिए आवश्यक है।

परम्परागत तीर्थों में धर्म रुचि के लोगों के अनायास ही पहुँचने रहने के कारण उनसे संपर्क साधना और युग चेतना से अवगत कराना अपेक्षाकृत अधिक सरल रहेगा। नये स्थानों पर इस रुचि के व्यक्तियों को खोजने में नये स्थानों पर इस रुचि के व्यक्तियों को खोजने में नये सिरे से प्रयत्न करने पड़ेंगे।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए गायत्री तीर्थों के निर्माण का प्रथम चरण यही है कि प्रख्यात तीर्थों को प्राथमिकता दी जाय। भारत में हजारों तीर्थ हैं। उनमें से चुना उन्हें जाय जहाँ धर्मप्रचार का एक क्षेत्र बन सकें। स्थापना के स्थान एक दूसरे से अतिनिकट नहीं घोषित 24 स्थानों में उपरोक्त सभी आवश्यकताएँ बहुत हद तक पूरी होती हैं

तीर्थों के प्रति जन साधारण के मन में अवज्ञा का भाव भरता और बढ़ता जा रहा है यह खुली सचाई है। दर्शकों में तीर्थ बुद्धि कम और पर्यटन प्रवृत्ति की ही अधिकता रहती है। इसका एक बड़ा प्रमाण यह है कि मन्दिरों में चढ़ने वाले पैसों का परिमाण दिन-दिन घटता जाता है, यद्यपि भीड़ में निरन्तर बढ़ोतरी ही हो रही है। इसका कारण है तीर्थ संचालकों द्वारा दर्शकों की बेतरह जेब काटने की प्रवृत्ति और इन संस्थानों की अनुपयोगिता ईसाई धर्म संस्थानों में कितनी ही रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलती है। फलतः उनके प्रति विचारशील अनुयायियों की श्रद्धा घटती नहीं बढ़ती ही जाती है। अपने तीर्थों में छान के धन पर कुछ लोगों को गुलछर्रे उड़ाते भर ही देखा जा सकता है। इसी दशा में जन-विवेक को झुठलाया नहीं जा सकता। अन्धश्रद्धा को फुसला लेना एक बात है और विचारशील वर्ग के सम्मुख उपयोगिता प्रमाणित करके उनकी आन्तरिक श्रद्धा अर्जित करना दूसरी। कहना न होगा कि आज के तीर्थ इस कसौटी पर खरे सिद्ध नहीं हो रहे है। फलतः उन्हें देखने के लिए बहुतों के पहुँचते रहने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि उनके आगमन का श्रम भावश्रद्धा में बदलने में अभिवृद्धि करके वापिस लोटा। यदि ऐसा नहीं हो सका तो तीर्थ यात्रा का प्रयोजन कहाँ पूर्ण हुआ?

अनुपयुक्तता के कारण बढ़ती अश्रद्धा को कलियुग का प्रभाव या नास्तिकता का दौर कह कर आत्मप्रवंचना तो की जा सकती है, पर उससे उस दुःखद संभावना की रोकथाम नहीं हो सकती, जिसमें तीर्थ तत्व की अनुपयुक्तता के कारण तिरस्कार एवं आक्रोश के तत्व निरन्तर बढ़ते हुए दृष्टिगोचर होते हैं यह क्रम चलता ही रहा तो कुछ दिन पश्चात् तीर्थ परम्परा का रहा बचा प्राण भी निकल जायगा और उन्हें मात्र कौतूहल की दृष्टि से ही देखने जाने की विडम्बना भर बच जायेगी।

सही उपाय यही है कि वर्तमान तीर्थ वस्तुस्थिति को समझते और समय से पूर्व ही जग कर अपना रवैया बदलते। ईसाई मिशनों का अनुकरण करते और उपलब्ध साधनों का धर्मचेतना उत्पन्न करने वाली लोकोपयोगी प्रवृत्तियों में उपयोग करते। वर्तमान स्थिति में ऐसा सम्भव नहीं दीखता। निहित स्वार्थों की उन पर काली छाया बहुत गहरी छाई हुई है। लोभ और मोह की जंजीरों ने उनके संचालकों को इस तरह जकड़ लिया है कि उन्हें सुधार परिवर्तन के लिए हम करना असंभव जितना ही कठिन है। प्रयत्न कर्ताओं ने अपनी पूरी शक्ति इस संदर्भ में पिछले चालीस साल से लगाई है ओर संकोच छोड़ कर अपनी पूर्ण पराजय स्वीकार की है।

ऐसी दशा में दूसरा उपाय यही बच जाता है कि नये तीर्थ ऐसे विनिर्मित किया जाँय; जिन्हें देख कर तीर्थों को “धर्म व्यवसायियों का षड्यंत्र “ कहने वालों को नये सिरे से विचार का अवसर मिले और वे यह अनुमान लगा सकें कि प्राचीनकाल में इस महान स्थापना का क्या प्रयोजन रहा होगा और वे जिन दिनों जीवन्त रहे होंगे उन दिनों उनके द्वारा कितने उच्चस्तर की लोक सेवा होती रही होगी।

तुलना का अवसर मिलने पर ही जन विवेक को स्वस्थ समीक्षा करने और उपयुक्तता, अनुपयुक्तता के मध्य अन्तर करने की सुविधा होती है। अनुपयुक्त को कोसते रहना निषेधात्मक कृत्य है। काम उतने भर से नहीं चलेगा। इसका रचनात्मक पक्ष भी प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। अभी बढ़ती हुई अश्रद्धा की रोकथाम हो सकती है। अवांछनियताओं का विरोध ही एक मात्र उपाय नहीं है उसकी तुलना में वाँछनीय क्या हो सकता है उसका भी प्रस्तुतीकरण होना चाहिए। वरन् निषेध की प्रबलता किसी तथ्य का पूर्णतया उन्मूलन भी कर सकती है। तीर्थों के प्रति बढ़ती हुई अनास्था किसी दिन उस प्रक्रिया की जड़ें की उखाड़ कर फेंक सकती है। भले ही उसे नास्तिकता या कुछ और कहते रहा जाय। दूर दर्शिता इसी में है कि जिस तथ्य को जीवित रखना हो उसकी उपयोगिता समझने का अवसर भी जनसाधारण को मिलता रहें। इसी सामयिक आवश्यकता को पूरा करने में गायत्री तीर्थों के प्रति सनातन श्रद्धा को नष्ट होने से बचाने वाले जागरूक प्रहरी कहला सकेंगे। भले ही उन पर निहित स्वार्थों के द्वारा आक्षेप और आक्रमण होते रहें।

गायत्री तीर्थों की स्थापना के प्रथम चरण में जिन चौबीस स्थानों की घोषणा की गई है; उनका निर्धारण पत्थर की लकीर नहीं है। यह संख्या भी बढ़ सकती है और नये स्थानों का निर्धारण भी हो सकता है तभी यात्रा की योजना बनाते समय रास्ते बनाते समय रास्ते के विराम स्थानों की भी रूपरेखा बना ली जाती है। 24 तीर्थों का संकल्प एक विराम हैं आरंभ है अन्त नहीं। यह यात्रा तो बहुत लम्बी है। लक्ष्य की चरम पूर्ति तक ऐसे-ऐसे अनेकों संकल्प बनते और पूरे होते रहेंगे। उन्हें पूरा करने के लिए वर्तमान सू. संचालक तो जीवित न रहेंगे पर इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। महाकाल का आवेश जिन्हें भी इस प्रयोजन का आगे बढ़ाने के लिए वरण करेगा वे साधन रहित दीखते हुए भी हनुमान अंगद और नल-नील जैसी ऐतिहासिक भूमिकाएँ सम्पन्न करते देखे जायेंगे।

संख्या की दृष्टि से चौबीस इसलिए चुने गये हैं कि प्रज्ञावतार गायत्री मन्त्र के 24 अक्षर है। ब्रह्मवर्चस् में बनी गायत्री शक्ति पीठ में चौबीस प्रतिमाएँ स्थापित की गई है। साथ ही चौबीस तीर्थ स्थानों पर गायत्री शक्ति पीठें बनाने का संकल्प भी। यह एक विराम है। पंचवर्षीय योजनाएँ तो कितनी ही बन चुकीं। चौबीस महीने से चौबीस तीर्थ बनाने की योजना में से वर्तमान संकल्प को प्रथम कह सकते हैं इसके उपरान्त भी यह सिलसिला जारी रहेगा। 108 और 240 के अंकों को उपासना क्षेत्र में 24 की तरह ही महत्वपूर्ण माना जाता है। तीर्थ स्थापना की संख्या भी क्रमशः बढ़ती ही जायगी।

परम्परागत तीर्थों के अतिरिक्त जहाँ धर्मचेतना को अग्रगामी बनाने जैसा उत्साह पाया जायगा- जहाँ के क्षेत्रीय लोग अपने यहाँ इसका महत्व समझेंगे और उसके लिए श्रम सहयोग प्रस्तुत करेंगे, वहाँ भी इसी श्रृंखला में नये निर्माण में सम्मिलित होते चलेंगे। यह पंक्तियां लिखे जाते समय तक ऐसे नये स्थानों में उड़ीसा के राउर केला और काटाभाजी दो स्थान बढ़ा दिये गये है और सम्मिलित कर लिए गये है। इस प्रकार 24 के स्थान पर 28 तो इस प्रथम संकल्प में ही बढ़ गये। जहाँ तीर्थ नहीं है-वहाँ भी नये तीर्थ स्थापित करने की गुंजाइश रहने के कारण सम्भव है। 24 महीने में 24 तीर्थ बनाने का संकल्प पूरा होने के साथ-साथ संख्या की दृष्टि से इतना बढ़ जाय जिसको आश्चर्यजनक और अप्रत्याशित कहा जा सकें। व्यक्ति के संकल्प अधूरे रहते है। महाकाल के संकल्प तो महा पुरश्चरण अभियान के घोषित लक्ष्य की तुलना में बीस गुना अधिक हो जाने की तरह तीर्थ स्थापना का विस्तार भी कई गुना हो सकता है।


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