कर्मफल की अस्त-व्यस्तता एवं अपवाद शृंखला

July 1978

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हर मनुष्य चाहता भी यही है और उपयुक्त भी यही है कि कठिनाइयों का सामना न करना पड़े-संकट सतायें नहीं और प्रगति के लिए आवश्यक सुविधाएं एवं परिस्थितियाँ उपलब्ध होती रहें। संकटों का सामना करने में कितना कष्ट उठाना पड़ता है और उनसे जूझते रहने में कितना समय, मस्तिष्क एवं धन खर्च होता है यह सभी जानते हैं। यदि वे न आते तो विपन्न समय चैन से व्यतीत होता और किसी उपयोगी काम में लगने से प्रगति के कुछ नये आधार खड़े करता। शरीर को कष्ट, मन को दुःख, साधनों का अपव्यय किसी को अच्छा नहीं लगता, पर अनचाहे संकट जब सिर पर आ ही जाते हैं तो उनसे जूझने और सहने की व्यथा वेदना सहन करनी ही पड़ती है। यदि यह संकट न आते अथवा सहज ही टल जाते तो कितना अच्छा होता, यही हर कोई सोचता है।

सुख सुविधा हर किसी को अभीष्ट है। अनुकूल परिस्थितियाँ मिलतीं तो अधिक उपार्जन सम्भव हो सकता था। दूसरे सहयोग करते, आवश्यक साधन उपलब्ध होते तो सम्पन्नता और सफलता की कमी न रहती। किन्तु प्रयत्न करने पर भी अनुकूलता मिल नहीं पाती। अभीष्ट सफलता पीछे हटती और दूर भागती जाती है तो निराशा से मन खिन्न रहने लगता है। दूसरे लोग अपनी ही योग्यता के थे-अपने जितना ही प्रयत्न करते थे-पर उन्हें उपयुक्त सफलताएं मिल गईं और वैसे साधन एवं अवसर न मिलने के कारण अपना प्रगति पथ अवरुद्ध ही बना रहा। परिस्थितियाँ अनुकूल हुई ही नहीं, अवसर मिले ही नहीं, साधन जुटे ही नहीं, सहयोग रहा ही नहीं, फिर एकाकी प्रयत्न से भी क्या बनता। हाथ मलते हुए, दुर्भाग्य का रोना रोते हुए, मन मसोस कर बैठा रहना पड़ा। समुन्नत परिस्थिति प्राप्त करने के स्वप्न धरे के धरे रह गये।

इन निराशाजनक परिस्थितियों में प्रायः मनुष्य का अपने कौशल और पुरुषार्थ की कमी का दोष ही प्रधान होता है। सूक्ति है कि- असफलता मिलने पर यही सोचना चाहिए कि उसे प्राप्त करने के लिए जितने प्रयत्न की आवश्यकता थी उसमें कमी रही। अगली बार दूने उत्साह और साहस के लिए नया प्रयत्न करना चाहिए और बार-बार असफलताएं आने पर भी पुरुषार्थ तब तक जारी रखना चाहिए जब तक कि सफलता सामने ही आकर खड़ी न हो जाय यह उत्साहवर्धक परामर्श साधारण को पुरुषार्थ की शक्ति और भविष्य की आशा के प्रति आस्थावान बनाये रहने की दृष्टि से उपयुक्त और आवश्यक है। ऐसे कथनों का समर्थन ही किया जाना चाहिए। अनवरत श्रम, अथक पुरुषार्थ और अडिग साहस और अविचल धैर्य की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी ही कम  है। लोक शिक्षण की दृष्टि से पुरुषार्थ परायणता का ही समर्थन किया जाना चाहिए। नीतिकारों का यही प्रयत्न भी रहा है। इस प्रकार के प्रतिपादनों की उपयोगिता के सम्बन्ध में दो मत हो ही नहीं सकते।

किन्तु तात्विक दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक जब तथ्यों पर विचार करते हैं तो एक दूसरा पक्ष भी उभर कर आता है। वह यह कि कितने ही लोगों के सामने ऐसे अप्रत्याशित संकट आ खड़े होते हैं जिनके लिए उन्हें किसी भी प्रकार दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उनने ऐसा कोई काम नहीं किया था जिससे वह मुसीबत सिर पर टूट पड़ती। दुर्घटनाएं कौन न्यौत बुलाते हैं? अनाचारियों के आक्रमण से होने वाली क्षति में किसका क्या दोष होता है? चोर, उचक्के जिस ढंग से हाथ साफ करते हैं उसमें सामान्य सजगता की कमी नहीं, वरन् कुटिलता के कुचक्र ही प्रधान होते हैं। प्रकृति प्रकोपों की तरह कई बार परिस्थितियाँ अकारण ही इतनी प्रतिकूल हो जाती हैं कि उनमें अपना दोष क्या रहा होगा? अपनी किस भूल ने यह विपत्ति की होगी? ऐसा बहुत खोजने पर भी कुछ हाथ नहीं लगता और भाग्य का खेल कह कर किसी प्रकार जी हल्का करना पड़ता है।

ऐसे ही अपवाद कई बार प्रगति प्रयासों के असफल होने के सम्बन्ध में भी सामने आते रहते हैं। उसी योग्यता के, उसी मार्ग पर चलने वाले, उसी उपाय का अवलम्बन करने वाले दूसरे लोग बाजी पर बाजी जीतते, सफलता पर सफलता पाते चले जाते हैं। पर पूरी ईमानदारी और समझदारी के साथ किये गये अपने प्रयत्न बहुत ही स्वल्प परिणाम दे पाते हैं। कई बार तो बुरी तरह निराशा ही हाथ लगती है। यदि अपनी ही भूल से ऐसा हुआ तो वह भूल क्या थी? यदि थी तो क्या वह जानबूझ कर की गई? इन प्रश्नों पर बहुत ढूंढ़ खोज करने पर भी कुछ ऐसे तथ्य हाथ नहीं लगते, जिन्हें असफलता का कारण ठहराया जाय, भूल माना जाय और भविष्य में उसे सुधारने का प्रयत्न किया जाय। अनेक बार मनुष्य स्वयं बिलकुल निर्दोष होता है। परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी विचित्र बन जाती हैं कि सब कुछ किया कराया मिट्टी हो जाता है। अतिवृष्टि, पाला, टिड्डी, कीड़े आदि के कारण किसान का तत्परतापूर्वक किया गया श्रम जब निरर्थक चला जाता है तो उसकी समझ में नहीं आता कि उससे कहाँ क्या भूल हुई? और वैसी भूल भविष्य में न होने पाये, इसके लिए वह भविष्य में क्या सावधानी बरतें? ऐसे ही अगणित प्रसंग सामने आते रहते हैं जिनसे पुरुषार्थ की सर्व समर्थता के पक्ष में प्रस्तुत किये गये प्रतिपादनों की यथार्थता के सम्बन्ध में सन्देह होने लगता है।

इन्हीं आशंकाओं के मध्य भाग्यवाद का जन्म होता है। कहा जाता है-” मनुष्य नियति के हाथ की कठपुतली है। भाग्य टलता नहीं। विधि का विधान अकाट्य है। जो होनी है सो होकर रहती है।” इसी प्रकार के और भी बहुत से कथन, उप कथन तब कहे जाते हैं जब प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं। कोई अप्रत्याशित संकट सामने आ खड़ा होता हैं। अथवा सफलता मिलते-मिलते अपना रुख बदलती और बिजली की तरह आशा की चमक दिखा कर कहीं से कहीं चली जाती है। ऐसा ही तब भी कहा जाता है जब अन्धे के हाथ बटेर लगती है। कितनों को ही ऐसी सफलताएं हाथ लग जाती हैं जिसके लिए उनके पुरुषार्थ को श्रेय किसी भी प्रकार नहीं दिया जा सकता। पूर्वजों की बड़ी सम्पत्ति उत्तराधिकार में मिल जाय तो इसमें प्राप्तकर्ता का श्रेय क्या है? लाटरी खुल जाने जैसी सफलताओं में किस कौशल या पौरुष को सराहा जाये? तेजी-मन्दी के चक्र में कई व्यापारी देखते-देखते लखपति होते देखे जाते हैं। उसमें किसको मूर्ख, किसको बुद्धिमान कहा जाय? नदी की बाढ़ आती है। किसी का खेत काट कर उसकी आजीविका को उदरस्थ कर जाती है। किसी के ऊपर खेत में कहीं से लाकर ऐसी उपजाऊ मिट्टी पटक दी जाती है कि वह उसकी पैदावार से देखते-देखते अमीर बन जाता है। नदी द्वारा एक की भूमि को काट ले जाना और दूसरे को समृद्धि का वरदान बरसा जाना। इसे क्या कहा जाय? इसके लिए दोष या श्रेय किसे दिया जाय? आँधी तूफान में जिसका छप्पर उजड़ गया और घर बिगड़ गया इसमें उसकी क्या भूल बताई जाय? और भविष्य में क्या सावधानी बरतने का परामर्श दिया जाये?

यह ठीक है कि यह अपवादों की शृंखला है। सामान्य क्रम नहीं है। फिर भी अपवाद भी सर्वथा उपेक्षणीय नहीं है। उनका भी कारण खोजना होगा। विशेषतया ऐसी दशा में जबकि वे अत्यधिक परिमाण में आये दिन देखने को मिलते हैं। अत्युक्ति न समझी जाय और पौरुष समर्थकों को बुरा न लगे तो नम्रतापूर्वक दबी जुबान से यहाँ तक कहा जा सकता है कि ‘भाग्य का खेल’ प्रायः 30 प्रतिशत घटनाक्रमों में काम कर रहा होता है। यों महत्ता तो कर्मनिष्ठा की ही रहेगी और खुला समर्थन उसी को दिया जायगा। पर इन अप्रत्याशित परिणामों के सम्बन्ध में भी विचार तो किया ही जाना चाहिए।

विज्ञान कहता है कि-”इस संसार में ऐसा कभी कुछ नहीं हो सकता जो प्रकृति नियमों के विपरीत हो।” भूकंप, बिजली गिरना, ज्वालामुखी फटना, तूफान जैसी घटनाएं सामान्य बुद्धि को आकस्मिक लगती हैं और उनके पीछे विपर्यय दीखता है, पर वस्तुतः वैसा कुछ होता नहीं है। उनके पीछे भी प्रकृति के सूक्ष्म नियम ही काम करते हैं। यह दूसरी बात है कि उन नियमों की जानकारी सर्वसाधारण को न हो अथवा उस तरह के घटनाक्रम आये दिन घटित न होने के कारण वे आश्चर्यजनक लगते हों। चमत्कार उन्हीं को कहते हैं जो दृश्य आमतौर से देखने को नहीं मिलते। जब भी विज्ञान के आविष्कार प्रथम बार हुए तो उन्हें भारी चमत्कारों के रूप में देखा गया था। रेल, टेलीफोन, बिजली, रेडियो, सिनेमा आदि पूर्वकाल में अप्रचलित आविष्कार जब सामने आये तो सामान्य बुद्धि हतप्रभ रह गई और उसे जादू या भूत देव की करामात समझा गया। पीछे अब जब विज्ञान और आविष्कारों का सिलसिला समझ में आ गया हो तो अन्तर्ग्रह यात्रा पर निकले यानों, अणु आयुधों, लेसर किरणों जैसी आश्चर्यजनक उपलब्धियों तक को साधारण बात मान लिया गया है।

जादू नाम की कोई वस्तु दुनिया में नहीं है। लोगों की आँखों को परख क्षमता को चकमा दे सकने की सफलता का नाम ही जादूगरी है। अध्यात्म क्षेत्र में सिद्धि चमत्कारों का वर्णन बहुत होता रहता है। उन्हें देखकर आश्चर्य तो किया जा सकता है, पर ऐसा नहीं माना जा सकता है कि यह आकस्मिक है। इनके पीछे प्रकृति की सामान्य नियम परम्परा का हाथ नहीं है। सच तो यह है कि यह सृष्टि पूर्णतया सुव्यवस्थित है। इसमें अव्यवस्था के लिए रंच मात्र भी गुंजाइश नहीं है। यहाँ ऐसा कुछ हो ही नहीं सकता जिसे अप्रत्याशित असंभव या चमत्कारी कहा जा सकेगा। जिसे हम नहीं जानते उस अविज्ञात को ही चमत्कार की संज्ञा दी जाती रही है। इस अविज्ञात को ही अपवाद कह सकते हैं। वस्तुतः उन अपवादों के पीछे भी प्रकृति का परिपूर्ण व्यवस्थाक्रम काम कर रहा होता है। आदि काल में सूर्य, बिजली, आग, वर्षा आदि आँख मिचौनी खेलने वाले तथ्यों को देवता माना जाता था। उनकी मनौती मनाई और बलि चढ़ाई जाती थी। चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण किन्हीं राक्षसों का आकस्मिक आक्रमण समझा जाता था, पर अब वह बात रही नहीं है। विज्ञान के शोध निष्कर्षों ने भली प्रकार समझा दिया है कि यहाँ अप्रत्याशित कुछ नहीं है। अविज्ञात को ही अपवाद कहते हैं। वस्तुतः इस सृष्टि में अन्धेरगर्दी के लिए, व्यतिक्रम के लिए, कहीं रत्ती भर भी गुंजाइश नहीं है।

अविज्ञात-अप्रत्याशित को ही अपवाद कहा जाता है। वस्तुतः यहाँ यथार्थवाद का ही अस्तित्व है अपवाद का अर्थ इतना ही है कि जिस आधार पर वह असामान्य घटनाक्रम उपस्थित हुआ उसकी जानकारी अपने पल्ले नहीं पड़ी है। यों अपवादों का सिलसिला चलता ही रहेगा क्योंकि सामान्य व्यवस्था की ही हमें जानकारी है और उसी को देखने समझने की आदतें भी है। सृष्टि के अविज्ञात नियमों के आधार पर जब भी कुछ असामान्य घटित होगा तभी उसे अपवाद कह दिया जाया करेगा। प्रकृति के रहस्य अनंत हैं और मनुष्य की बुद्धि अत्यन्त स्वल्प। ऐसी दशा में असाधारण तो घटित होता ही रहेगा। उचित यही है कि उसके सम्बन्ध में हम अपना दृष्टिकोण साफ कर लें। अपनी ससीमता को स्वीकार करें और असमंजस में न पड़कर तथ्यों तक पहुँचने का यथा सम्भव प्रयत्न करते रहें।

पिछले दिनों एक सस्ता तरीका अपनाया जाता रहा है कि हर अपवाद को देव-दानवों के क्रिया-कृत्य मान कर समाधान कर लिया जाता रहा है। भाग्यवाद भी कुछ इसी प्रकार का दर्शन है जिसमें देवताओं के द्वारा भाग्य निर्माण की बात कह कर एक विचित्र प्रकार की भ्रान्ति उत्पन्न कर दी गई है। विचारशील वर्ग में अपवादों को-‘चान्स’ ‘लक’ आदि कहा जाता रहा है। उसे ‘अप्रत्याशित अवसर’ मात्र ठहराया गया है। उसके लिए किसी देवता को श्रेय या दोष नहीं दिया गया है। उसमें अविज्ञात को, अपवाद को मान्यता भर दी गई है और उसका कारण विदित न होने पर उसे किसी देवता का कोप या अनुग्रह कह कर एक नया भ्रम गढ़ने की चेष्टा नहीं की गई है। यह समझदारी का चिन्ह है। सर्वज्ञ होने का, दावा करना मिथ्या अहंकार है। जो ज्ञात नहीं है उसे जानने के लिए मस्तिष्क खुला रखा जाय और धैर्यपूर्वक रहस्योद्घाटन के सूत्र खोज निकालने का प्रयत्न करते रहा जाय। इसी में बुद्धिमानी है।

भाग्य को देवताओं के साथ, ग्रह-नक्षत्रों के साथ जोड़ना सर्वथा उपहासास्पद है। देवता किसी का भाग्य बुरा लिखे और किसी का भला तो उन्हें विक्षिप्त ही कहा जायगा। मनुष्यों में अधिक न्यायशील और विवेकवान होने की मान्यता अपनाकर ही तो देवताओं को श्रद्धास्पद माना गया है यदि भाग्य लेखन में किसी मर्यादा का ध्यान न रखेंगे और चाहे जिसका भाग्य भला और चाहे जिसका बुरा लिखने लगेंगे तो उनकी वह गरिमा टिकेगी ही नहीं, जिसके कारण उन्हें श्रद्धास्पद और पूजनीय ठहराया गया है। ग्रह-नक्षत्रों की गणना भी ज्योतिषियों ने देवताओं के रूप में की है। इसीलिए तो वे उनकी पूजा-पत्री करते और अनुग्रह माँगते हैं। खगोलवेत्ताओं की तरह यदि वे ग्रहों को निर्जीव पदार्थ पिण्ड मानते तो उनके प्रभाव का समूची धरती या किसी भूखण्ड पर उनके किसी व्यापक प्रभाव की परिकल्पना करते और यदि अनुकूलता, प्रतिकूलता की बात सोचते तो उसका आधार इतना ही तो होता कि अन्तर्ग्रही आदान-प्रदान को न्यूनाधिक करने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है। इसके विपरीत जब उनकी प्रसन्नता-अप्रसन्नता से व्यक्ति विशेष को कष्ट मिलने की मान्यता बनाई गई और पूजा-पत्री से उनका रोष शान्त करने एवं अनुकम्पा पाने की समझी समझाई गई तो स्पष्ट है कि इन देवताओं को खगोल सम्पदा के स्थान से हटाकर देव संज्ञा दे दी गई। होता भी यही रहा है। ग्रह-नक्षत्रों को देव प्रतिमाओं के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता और पूजा जाता है। देववाद और भाग्यवाद की विसंगति को संगति के रूप में बिठाकर एक अनोखे बुद्धि-कौशल का ही परिचय दिया गया है। इसमें चमत्कार अवश्य है। ग्रह-नक्षत्रों का देवताओं का न सही इस परिकल्पना को गढ़ने वाली बुद्धि को तो निश्चय ही चमत्कारी कहा जायगा। इस उद्योग को चलाने वाले और उसके चंगुल में फँसने वालों को भी अपने ढंग के चमत्कारी ही कहा जा सकता है। इतने पर भी यह प्रश्न तो यथा स्थान बना ही रहेगा कि यदि यह देवता और ग्रह-नक्षत्र सचमुच ही देवता है तो फिर अकारण किसी को दुःख किसी को सुख देने की अव्यवस्था क्यों फैलाते हैं ? अपने क्रिया-कलाप में अन्धेरगर्दी की भरमार क्यों करते हैं? उनके रोष से विपन्न हुए दुखियारों की हाय, उन पर क्यों नहीं पड़ेगी? उनके अनुग्रह से सम्पत्तिवान लोग कर्म और पुरुषार्थों को अँगूठा क्यों नहीं दिखायेंगे? फिर नया एक और प्रश्न उठ खड़ा होता है कि पूजा-पत्री के छुटपुट उपहार पाकर वे क्यों अपनी गतिविधियों को उलट देते हैं? पूजा मिलने पर वे दोष को अनुग्रह में बदल देते हैं और न मिलने पर त्रास देते ही रहते हैं। इसका क्या कारण हो सकता है? पूजा के नाम पर मिलने वाली प्रशंसा और सस्ती उपहार सामग्री मात्र से उनकी नीति और क्रिया में भारी उलट-पुलट हो जाती है? कोई पत्थर अँगूठी में पहन लेने से किस कारण कोई ग्रह-नक्षत्र किसी पर अनुग्रह बरसाने लगता है ? आदि ऐसे असंख्य प्रश्न है जो भाग्यवाद की अपवाद स्थिति को स्वीकार करते हुए भी यह समाधान नहीं होने देते कि उस सबके लिए देवताओं का लिखा विधान अथवा ग्रह-नक्षत्रों का रोष अनुग्रह किस प्रकार कारण हो सकता है? यदि कोई कारण है तो उसका किस तर्क और तथ्य के आधार पर समर्थन किया जाय?

देवताओं और ग्रह-नक्षत्रों के अस्तित्व और अनस्तित्व के सम्बन्ध में बुद्धिपूर्वक तर्क और तथ्यों के आधार पर बहुत कुछ कहने, सोचने और खोजने की गुंजाइश है। दैवी शक्तियों को मानव-जीवन में कोई विशेष प्रभाव हो सकता है। इसी प्रकार ग्रह-नक्षत्र भी पृथ्वी के पदार्थों और प्राणियों को प्रभावित कर सकते हैं। इन सम्भावनाओं पर विचार करने के लिए व्यापक शोध क्षेत्र खुला पड़ा है। किन्तु इस प्रसंग पर तो गाड़ी एक दम रुक जाती है कि देवता किसी भाग्य विधान बिना ऐसे ही मनमर्जी से भला-बुरा लिखते चले जायं? अथवा ग्रह-नक्षत्र किसी पर रोष और अनुग्रह के अकारण वर्षा करते हुए अपने को अनाचारियों की स्थिति में ला पटके। यदि वस्तुतः वे लोग ऐसे ही जैसा कि उनके बारे में मूढ़ मान्यताएँ समझाती हैं तो फिर उनके और हम सबके लिए बड़े दुर्भाग्य और शर्म की बात है। सृष्टि की सुव्यवस्था के सिद्धान्त का तो उसमें खुला उल्लंघन और उपहास है ही।

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