चान्द्रायण तप का एक निषेध पक्ष है- कष्ट सहन। जिसमें आहार घटाने-बढ़ाने की तितीक्षा प्रमुख है। दोषों के प्रकटीकरण में भी पश्चात्ताप करने और लज्जित होने का मानसिक कष्ट है। क्षतिपूर्ति के लिए दान पुण्य करना अर्थदण्ड है। तीर्थयात्रा आदि सत्कार्यों के लिए श्रमदान जैसे परमार्थों में भी कष्ट सहने और त्याग करने की ही बात है। यह सारा समुच्चय आत्म-प्रताड़ना परिकर का है। परिशोधन की प्रक्रिया निषेधात्मक होने के कारण कष्ट सहने की ही हो सकती है।
दूसरा विधायक पक्ष है-योग, जिसमें परित्याग की रिक्तता पूर्ण करनी पड़ती है। यह उपार्जन है। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ना योग है। योग से हर किसी का परिमाण बढ़ता है। परित्याग से जो घाटा पड़ा था उसकी कमी योग की कमाई द्वारा पूरी हो जाती है। शौच जाने से पेट खाली होता है। इस कारण लगने वाली भूख की पूर्ति भोजन से करनी पड़ती है। तभी उस युग्म उपक्रम से शरीर यात्रा का पहिया आगे लुढ़कता है।
ब्रह्मवर्चस् साधना का यह भूमि शोधन पथ चान्द्रायण तप से पूरा होता है। इसके उपरान्त बीज बोने और खाद पानी लगाने की अभिवर्धन उद्देश्य के लिए की जाने वाली प्रक्रिया योग साधना द्वारा सम्पन्न होती है।
ब्रह्मवर्चस् योगाभ्यास पंचमुखी गायत्री की पंचकोशी साधना है। पाँच प्राणों से चेतना का और पाँच तत्वों से काया का निर्माण हुआ है। इन दोनों प्रवाहों के मध्यवर्ती दिव्य शक्ति स्रोतों को पंचकोश कहते हैं। योगशास्त्र के विद्यार्थी जानते हैं कि अन्नमय कोश यह पाँच शक्तिशाली आवरण आत्मा पर चढ़े हैं। इन्हें सुरक्षा कवच, वाहन, आयुध आदि भी कहा जा सकता है। यह रहस्यमय रत्न भण्डार है, जिनमें सिद्धियों और विभूतियों के मणिमुक्तक प्रचुर परिमाण में भरे पड़े है। चाबी न होने पर तिजोरी में भरी धनराशि भी अपने किसी काम नहीं आती और अधिपति को भी अभावग्रस्त रहना पड़ता है। इसी प्रकार इन दिव्य कोशों का द्वार बन्द रहने पर आवरण चढ़ा रहने पर मनुष्य को दुःखी दरिद्रों की तरह गया-गुजरा जीवनयापन करना पड़ता है।
उच्चस्तरीय गायत्री उपासना को पंचकोशों की अनावरण साधना कहते हैं। इस योगाभ्यास की हठयोग की पद्धति के अन्तर्गत चक्रवेधन एवं कुण्डलिनी जागरण साधना कहते हैं। षटचक्रों का नाम सभी ने सुना है। भू-मध्य भाग से मस्तिष्क प्रारम्भ होता है और वह मेरुदण्ड में होकर जननेन्द्रिय क्षेत्र तक चला जाता है। यह समूचा परिधि ब्रह्मलोक या ब्रह्मरंध्र कहलाता है। इसमें सात शक्ति संस्थान हैं। इनमें से छः मध्यवर्ती सक्रिय स्रोत षट्चक्र हैं। एक इन सबका अधिपति नियन्त्रक है, जिसे महाचक्र सहस्रार चक्र कहते हैं। इस प्रकार यह पूरा परिकर गिना जाय तो सप्तचक्र बन जाते हैं। इन्हीं का पिण्ड ब्रह्माण्ड में अवस्थित सप्त ऋषि, सूर्य के सप्त अश्व, सप्त लोक, सप्त सिन्धु, सप्त मेरु, सप्त द्वीप, सप्त तीर्थ आदि अलंकारिक निरूपणों के साथ अध्यात्म शास्त्रों में वर्णन मिलता है।
सप्तचक्रों की भी एक विवेचना यह है कि नीचे का मूलाधार और ऊपर का सहस्रार यह दोनों क्रमशः प्रकृति और पुरुष के, शक्ति और शिव के, रयि और प्राण के धरती और स्वर्ग के प्रतीक हैं। पृथकता की स्थिति में यह दोनों बहुत ही स्वल्प काम कर पाते हैं। मूलाधार प्रायः प्रजनन का ताना-बाना बुनता रहता है और शरीर को ऊर्जा, साहस, उत्साह आदि प्रदान करता है। सहस्रार की अर्धमूर्छित स्थिति में अचेतन और चेतन दोनों मिलकर कायिक गतिविधियों का संचालन और चिन्तन वर्ग के प्रयोजन पूरे करते रहते हैं। यह इन दोनों का निर्वाह मात्र के लिए चलते रहने वाला स्वल्प कार्य है। यदि उन दोनों की तन्द्रा छुड़ा दी जा सके और वे समर्थ सक्रिय हो उठें तो फिर समझना चाहिए कि अनन्त शक्तियों के सिद्धियों के स्रोत खुल पड़ेंगे और मनुष्य साधारण से असाधारण बन जायेगा। ऋषि, देवता और अवतारी मनुष्य इसी स्तर के होते हैं। उनकी आन्तरिक मूर्छना जागृति में परिणित हो गई होती है। कुम्भकरण का पौराणिक उपाख्यान इसी स्थिति की झाँकी कराता है। जब भी वह दैत्य जागता था अपनी सामर्थ्य का हाहाकारी परिचय प्रस्तुत करता था। मूलाधार की सामर्थ्य की सर्पिणी कहते हैं और सहस्रार को महासर्प कहा गया है। इन्हीं शक्तियों को सावित्री और गायत्री नाम से परब्रह्म की दो पत्नियाँ कहा गया है। इन दोनों के मिलन को कुण्डलिनी जागरण कहते हैं, बिजली के अलग-अलग पड़े तार जब भी मिलते है, तो चिनगारी छूटती और शक्तिधारा प्रवाहित होती है। इसी स्थिति को कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। यह सौभाग्य सुअवसर जिन्हें प्राप्त होता है वे भौतिक सिद्धियों और आत्मिक विभूतियों से सुसम्पन्न पाये जाते हैं। वे आत्मोत्कर्ष का परम लक्ष्य प्राप्त करते और अपूर्ण से पूर्ण बनते हैं। ईश्वर प्राप्ति इसी स्थिति का नाम है।
सहस्रार को महासर्प कहा गया है। विष्णु की शेष शैया भी वही है। समुद्रमंथन में रस्सी का काम वही करता है। सर्पिणी के रूप में कुण्डलिनी शक्ति का वर्णन प्रायः होता रहता है। जागृत होने पर ऊपर उठती और अग्नि शिखा के रूप में देवयान मार्ग से ब्रह्मलोक तक पहुँचती है। यह अलंकारिक वर्णन इस बात का है कि जननेन्द्रिय मूल में पड़ी हुई यह महाशक्ति जब ऊर्ध्वगामी बनती है, तो मेरुदण्ड मार्ग से ब्रह्मरंध्र तक जा पहुँचती है और उस क्षेत्र में सन्निहित अगणित दिव्यताओं को अनायास ही जागृत करती है। इसी स्थिति में अतीन्द्रिय, क्षमताओं का जागरण होता है। समुद्र मंथन से चौदह रत्न निकलने के उपाख्यान में मूलाधार के कण्डगह्वर को समुद्र मेरुदण्ड को सुमेरु पर्वत, सूर्यवेधन प्राणायाम के इड़ा-पिंगला संघर्ष को मंथन माना जाता है। समुद्र मंथन कुण्डलिनी जागरण का महा पुरुषार्थ है, जिसमें चेतना के देव पक्ष और काया के दैत्य पक्ष को मिल-जुलकर साधनारत होना होता है। इसका सत्परिणाम समुद्र मंथन से निकले 14 प्रसिद्ध रत्नों की तरह साधक को दिव्य विभूतियों के रूप में प्राप्त होता है।
मूलाधार और सहस्रार को नीचे ऊपर वाले महाचक्रों को यदि कुण्डलिनी जागरण साधना के विशेष वर्ग में गिन लिया जाय तो शेष मध्यवर्ती पाँच चक्र कह सकते हैं। कोश व्याख्या में इन्हें अन्नमय, प्राणमय, मनोमय विज्ञानमय और आनन्दमय कहते हैं। चक्र वर्णन में इन्हीं को स्वाधिष्ठान मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञाचक्र कहा जाता है। यह एक ही तथ्य का दो रूप में वर्णन विवेचन मात्र है। वस्तुतः है एक ही। चक्रों का जागरण या कोशों का अनावरण एक ही बात है। संख्या की दृष्टि से पाँच, छः या सात की गणना से किसी को भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। गायत्री माता के पाँच मुखों की उच्चस्तरीय साधना परम शान्तिदायिनी और महान शक्तिशाली साधना है। इसी प्रक्रिया को ब्रह्मवर्चस् का योगाभ्यास साधना पक्ष समझा जाना चाहिए।