ब्रह्मवर्चस् साधना के लिए आमन्त्रण

July 1978

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युग निर्माण परिवार का सृजन किसी दिव्य शक्ति की योजनानुसार इसी निमित्त हुआ है कि उसे सृजन शिल्पियों के उत्पादन का श्रेय मिले। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण सचमुच ही अपने समय का इतना बड़ा काम है जिसे अवतारी सामर्थ्य ही सम्पन्न कर सकती है। इसी सामर्थ्य से सुसम्पन्न नर रत्नों का समुदाय युग की पुकार करने के लिए आगे आ सकता है। भौतिक दृष्टि से स्वल्प साधन होते हुए भी बहुत कुछ कर सकने की, आत्म बल के धनी रीछ जानवरों की तरह अपने परिजनों की भी बहुत बड़ी भूमिका हो सकती है। नव सृजन के महान प्रयोजन को पूरा करने के लिए असंख्यों द्वारा असंख्य कार्य किये जाने हैं। प्रश्न अग्रगमन का है। झंडा हाथ में लिए बिगुल बजाते हुए अग्रगामी जब प्रयास करते हैं तो पीछे-पीछे महारथी भी अपने चतुरंगिनी को हंकाते हुए मोर्चे पर जूझने के लिए बढ़ते चले आते हैं। युगान्तरकारी प्रस्तुत प्रयत्नों को भी अपने समय का महाभारत ही मानना चाहिए। पांचजन्य बज रहा है। गाण्डीव की प्रत्यंचा चढ़ने में भी अब बहुत देर नहीं है।

इस बार के प्रेरणा प्रद बसन्त पर्व पर ‘‘जागृत आत्माओं को युग निमंत्रण’’ उतरा है। उसे पूरे परिवार ने बहुत ध्यान पूर्वक पढ़ा और विचारा है। वह इतना हलका नहीं था कि मनोरंजक पाठ्य सामग्री की तरह मनोरंजन की आवश्यकता पूरी करने के उपरान्त उपेक्षा और विस्मृति के गर्त में चला जाता। जीवित मृतकों की अथवा वितृष्णा के दलदल में बेतरह फंसे हुए लोगों की बात दूसरी है, पर जिनमें प्राण तत्व की चिंगारी गरम थी, उन्होंने अपने भीतर समुद्र मन्थन जैसा कुहराम पाया है। हर प्राणवान की आत्मा ने पूछा है कि इस सृजन बेला में उसकी भी कुछ भूमिका हो सकती है या नहीं।

ज्वार भाटे अपना-अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। ज्वार कहता है- ‘‘संसार के हर महामानव ने वैयक्तिक कठिनाइयाँ सहन करते हुए भी युग निमन्त्रण स्वीकार करके दूसरों के सामने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। फिर अपने लिए ही कौन बड़ा अवरोध है, जो क्षुद्रता के बन्धनों में जकड़कर असमर्थता व्यक्त करते रहा जाय?’’ भाटा कहता है- ‘‘आदर्श कहने सुनने तक ही सीमित रहने चाहिए व्यवहार में उतारने से घाटा पड़ेगा। हमें अपना स्वार्थ साधना चाहिए। परमार्थ के लिए दूसरों को उपदेश देते रहना ही पर्याप्त है। बहुत मन करे तो धर्मात्मा की चादर ओढ़ी जा सकती है। बात वहाँ तक न बढ़ने देनी चाहिए जहाँ स्वार्थ पर किसी प्रकार की चोट पहुँचती हो।

पुनर्गठन वर्ष के आरम्भ में यह समुद्र मन्थन आरम्भ हुआ और बसन्त पर्व पर उसमें तूफानी चक्रवात उभरा। अब निष्कर्ष का नवनीत सामने आ रही है। हर प्राणवान परिजन का युग सृजन में अपनी भूमिकाएँ निभानी होंगी। जो नल-नील की तरह सेतुबन्ध बाँध सकेंगे, हनुमान की तरह पर्वत उठा सकेंगे, जटायु की तरह प्रखरता का परिचय दे सकेंगे, वे वैसा करेंगे। जिनसे कुछ भी न बन पड़ेगा उन्हें भी गिलहरी की तरह बालों में समा सकने वाली बालू तो ढोनी ही पड़ेगी। परीक्षा की इस घड़ी में अकचका कर खोटा सिद्ध होने के लिए कोई भी तैयार नहीं है। पूरे या अधूरे मन या साधना से हमसे से हर किसी को अपनी-अपनी मनःस्थिति और परिस्थितियों के अनुरूप युग धर्म के निर्वाह के लिए युग साधना के लिए कुछ न कुछ तो करना ही होगा। मूकदर्शक बने रहना अब किसी जागृत आत्मा के लिए सम्भव न रह जाएगा।

हथियारों का प्रयोग करने से पूर्व उनकी धार तेज की जाती है। विजयादशमी के अनेक प्रयोजनों में से एक यह भी था कि योद्धा अपने-अपने हथियारों की धार तेज कर लें। टूट-फूट की मरम्मत कर लें और चलाने की कला यदि अभ्यास से उतर गई हो तो उसे फिर से ठीक कर लें। युग सृजन में छोटी-बड़ी भूमिका जिन्हें निभानी हैं वे सभी सृजन सैनिक कहे जायेंगे। उनका प्रधान हथियार उनका अपना व्यक्तित्व है, यदि उसमें प्रखरता मौजूद होगी तो फिर हाथ में लगे हुए प्रचारात्मक-रचनात्मक-सुधारात्मक जो भी काम हाथ में लिए जायेंगे वे सभी सफल होंगे। व्यक्तित्वहीनों के लिए युग नेतृत्व का दुस्साहस करना उपहासास्पद है। रंगमंच पर लड़ाई के पैंतरे बदलना एक बात है और रणभूमि में भवानी की बिजली की तरह चमकाना दूसरी। अभिनेता के रूप में तो वक्ता, नेता का कार्य कोई मसखरा भी कर सकता है, किन्तु प्रभावोत्पादक परिणाम उत्पन्न कर सकना तो मात्र साहसी शूरवीरों के लिए ही सम्भव हो सकता है। युग सृजन के लिए एकमात्र साधन उस पुण्य प्रयोजन को हाथ में लेने वाले प्रखर व्यक्तित्व ही हो सकते हैं। इन दिनों सर्वोपरि आवश्यकता उन्हीं की है। ब्रह्मवर्चस् सत्र को इसी निर्माण की प्रयोगशाला कहा जा सकता है। खदानों से लोहा मिट्टी मिला हुआ कच्चा निकलता है। उसे बड़ी भट्टियों में डालकर शुद्ध किया जाता है। यही बात अन्य धातुओं के सम्बन्ध में भी है। उसमें बहुत-सा कचरा मिला रहता है जो अग्नि संस्कारों से ही शुद्ध किया जाता है। उसके बिना धातुएं काम में लाने योग्य हो ही नहीं सकतीं, भले ही उन्हें खदानों से कितनी ही बड़ी मात्रा में निकाल कर जमा कर लिया जाय।

पहलवान बनने वालों की रगड़ाई बहुत दिनों तक व्यायामशाला में होती है। विद्वान बनने से पूर्व वर्षों पाठशाला का अनुशासन सहना पड़ता है। सैनिकों की भर्ती होते ही युद्ध मोर्चे पर नहीं भेज दिया जाता, छावनी में वर्षों ट्रेनिंग होती है। काम छोटा-बड़ा कोई भी क्यों न हो उसकी सफलतापूर्वक कर सकने के लिए उपयुक्त कौशल उत्पन्न करना होता है। भावनाओं के आधार कुछ कर गुजरने के साहस की तरह ही यह भी महत्वपूर्ण कुशलता भी प्राप्त कर ली जाय। युग सृजेताओं को अपना व्यक्तित्व उस महान प्रयोजन के उपयुक्त बनाना प्रथम कार्य है। कार्य पद्धति की शिक्षा तो बोझ उठाते-उठाते अनुभव के सहारे भी मिलती रहती है। कौशल की कमी पूरी कर लेना अत्यन्त सरल है। महत्व तो व्यक्तित्व का है। वही अपंग रहा तो फिर लकड़ी की तलवार के सहारे प्रबल शत्रु से जूझकर विजय श्री वरण करते हुए लौट सकना कठिन है।

सामान्य जीवन की सफलता-महामानवों की भूमिका- आत्मिक प्रगति की साधना, ये सभी बातें व्यक्तित्व की प्रखरता से सम्बन्धित है। ओछे व्यक्ति प्रचुर साधन हाथ में रहते हुए भी किसी भी क्षेत्र में कहने लायक सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। युग सृजन जैसा महान कार्य तो आन्तरिक तेजस्विता प्राप्त किये बिना सम्भव नहीं हो सकता। स्वार्थ और परमार्थ दोनों का ही समन्वय इस तथ्य पर आधारित है कि किसी भी क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य करने के इच्छुक अपना व्यक्तित्व निखारें उसमें ओजस्, तेजस् और वर्चस् की ऊर्जा का समुचित समावेश करें।

इस स्तर की आवश्यकता पूरी करने के लिए ब्रह्मवर्चस् साधना की व्यवस्था बनी है। उसे अग्नि दीक्षा कह सकते हैं। शान्तिकुंज में पिछले वर्षों में जिन्हें किसी सत्र में बुलाया जा चुका है। इस प्रशिक्षण में प्राथमिकता उन्हें दी जायेगी। यों नयों के लिए द्वार सर्वथा बन्द नहीं है, प्रश्न प्राथमिकता और प्रमुखता का है। अब तक प्रत्यावर्तन सत्र, जीवन साधना सत्र, परामर्श सत्र, वानप्रस्थ सत्र, समय-समय पर सम्पन्न होते रहे हैं। उनमें जो सम्मिलित हो चुके हैं प्रथम आह्वान उन्हीं का है। जिन्हें आरम्भिक ज्ञान और अनुभव पहले से ही मौजूद हों। उनकी प्रगति अधिक सरल रहती है और अपेक्षाकृत अधिक सफल भी होती है।

ब्रह्मवर्चस् साधना के उद्देश्य और स्वरूप की संक्षिप्त जानकारी इस अंक में मौजूद है। यों प्रस्तुत साधना का तत्व ज्ञान गत वर्ष मार्च अप्रैल, मई, जून के चार अंकों में अधिक विस्तारपूर्वक भी समझाया जा चुका है। वस्तुतः इस गायत्री महाशक्ति की उच्च स्तरीय साधना हैं। जिसे पंचाग्नि विद्या अथवा पंचकोशों साधना कहते हैं। गायत्री माता का पाँच मुखी सहित चित्रित करने वाले तत्व ज्ञानियों का संकेत इसी रहस्यमयी तपश्चर्या के सन्दर्भ में है।

ब्रह्मवर्चस् आरण्यक की इमारत लगभग पूर्ण हो चली। प्रथम सत्र अप्रैल, मई में सम्पन्न भी हो चुका है। प्राणवान आत्माओं की इस अग्नि दीक्षा के लिए आतुरता बहुत है। स्थान सीमित है- आग्रह भरा अनुरोध बहुत। इस असमंजस के समाधान का एक ही उपाय निकला- ‘समय की कसौटी।’ बसन्त पर्व के उद्घाटन सत्र भी 14 दिन के स्थान पर सात-सात दिन के करने पड़े थे और दो सत्रों को छह बनाना पड़ा था। फिर भी 400 की स्वीकृति लक्ष्य नियंत्रण में न रह सका। उन सत्रों में उपस्थिति एक हजार से लेकर तेरह सौ तक पहुँचती रही। ब्रह्मवर्चस् साधना में सम्मिलित होने का अनुरोध भी प्रायः इसी स्तर का है। अस्तु यहाँ भी विवशता में प्रयुक्त होने वाले उसी उपाय का अवलम्बन करना पड़ा है। ब्रह्मवर्चस् सत्र दो-दो महीने के स्थान पर सन 85 के लिए एक-एक महीने के कर दिये गये हैं। हर सत्र अंग्रेजी महीने से आरम्भ होकर भारतीय महीनों के अनुसार पूर्णिमा तक चला करेगा। दस-दस दिवसीय सत्र फिलहाल तो अक्टूबर में ही दो हैं। एक नवरात्रि का 3 अक्टूबर से 12 अक्टूबर तक दूसरा दशहरा, दिवाली के अवकाश का 13 से 21 अक्टूबर तक। इनमें 24 हजार गायत्री पुरश्चरण तो रहेगा ही ब्रह्मवर्चस् साधना का संक्षिप्त दिशानिर्देश एवं अभ्यास भी जितना सम्भव हो सकेगा सम्मिलित रखा जाएगा।

अब ब्रह्मवर्चस् सत्रों के लिए उपयुक्त साधन बन गये हैं। अस्तु इस अंक के द्वारा उसकी वर्तमान साधना पद्धति की जानकारी इस अंक में कराई गई है। यह कठिन दीखते हुए भी सरल है। चान्द्रायण की कठोरता में शिशु स्तर की जितनी सरलता सम्भव थी कर दी गई है। यति चान्द्रायण विशिष्ट लोगों के लिए ही सुरक्षित है। इतने पर भी उसे अनिवार्य नहीं- स्वेच्छा स्वीकृति के रूप में ही रखा गया है। पांचों योगाभ्यास भी इसी आरम्भिक स्तर के हैं जिन्हें दुर्बल शरीर और मन वालों के लिए भी कर सकना बहुत कठिन न पड़े। यह समूची साधना सौम्य वर्ग की है जिसमें भूल रहने पर भी किसी को किसी प्रकार की हानि की आशंका नहीं है। फिर जिस संरक्षण और नियन्त्रण में इतने महान प्रयोजन के लिए यह साधना क्रम चल रहा है, उसमें किसी को किसी प्रकार की आशंका करने या असमंजस में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। विश्वास किया गया है कि जो इस साधना को करके लौटेंगे वे अपने भीतर कुछ आंतरिक विशेषता उत्पन्न हुई अनुभव करेंगे। यह उपलब्धि भौतिक सुख-शान्ति और आत्मिक सिद्धि प्रगति की दृष्टि से समान रूप से महत्वपूर्ण है।

ब्रह्मवर्चस् सत्र के आने वाले आवेदनों को क्रमशः स्थान दिया जायगा। स्थान और शिक्षण की सुविधा के अनुसार एक बार में जितने शिक्षार्थी जिस महीने बुलाये जा सकेंगे उसी आधार पर अगले-अगले महीनों को स्वीकृति देने का क्रम चलता रहेगा। जिन्हें आना हो अपनी सुविधा का समय बताते हुए शान्तिकुँज की व्यवस्था में तालमेल बिठाते हुए अपना स्थान सुरक्षित करा लें।

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