शारीरिक रोग मानसिक विक्षेप, दरिद्रता, दुर्घटना, अकाल मृत्यु, विपत्ति, संकट आदि अनेक आकस्मिक आपत्तियों के कारण प्रायः पूर्व संचित पाप ही होते हैं। उनका कारण मात्र व्यवहार व्यतिक्रम ही नहीं होता वरन् संचित पाप प्रारब्ध की भी बहुत बड़ी भूमिका होती है। मरने के उपरान्त नरक, प्रेतयोनि, निकृष्ट योनियों में जन्म जैसी दुर्गतियों का कारण भी यह कुसंस्कारी संचय ही होता है। शास्त्र कहता है -
पापेन जायते व्याधिः पापेन जायते जरा। पापेन जायते दैन्यं दुःखं शोको भंयकरः॥
पाप से व्याधि वृद्धत्व, दीनता, दुःख और भयंकर शोक की प्राप्ति होती है। छोटे और बड़े पापों के क्रम से छोटे और बड़े फल प्राणी को भोगने पड़ते हैं।
आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्। दारिद्रयदुःखरोगानि बन्धनव्यसनानि च॥ -चाणक्य
मनुष्यों को अपने अपराध रूपी वृक्ष से दरिद्रता, रोग दुःख बन्धन और विपत्ति आदि फल मिलते है।
उभयमेव तत्रोपयुज्जते फलं धर्मस्यैवेतरस्य च॥ -महाभारत
राजन! धर्म और पाप दोनों के पृथक-पृथक फल होते हैं और उन दोनों का ही उपभोग करना पड़ता है।
आचराल्लभते ह्यायुराचारादीपप्सिताः प्रजाः। आचाराद्धनमक्षयमाचारो हन्त्यलक्षणम्॥ दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः। दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरवे च॥ -मनु0
श्रेष्ठ आचरण का जीवन जीने वाला दीर्घजीवी होता है। श्रेष्ठ सन्तान पाता और सम्पन्नता प्राप्त करना है। बुरों को भी सुधार देता है।
दुराचारी निन्दित होता है। दुःख भोगता है। अल्पजीवी होता है। रोगी रहता है।
पादन्यासकृतं दुःखकण्टकोत्थंप्रयच्छति। तत्प्रभूतरस्थूलशकुकीलसम्भवनम्॥ दुःखंयच्छतितद्वच्चशिरोरोगादिदुःसहम्। अपथ्याशनशीतोष्णश्रमतापादिकारकम्॥ -मार्कण्डेय पुराण
पैर में काँटा लगने पर एक ही जगह पीड़ा होती है। पर पाप कर्मों के फल से तो शरीर और मन में निरन्तर शूल उत्पन्न होते रहते हैं।
स्वमलप्रक्षयाद्यद्वदग्नौ धास्यन्ति धावतः। तत्र पापक्षयात्पापा नराः कर्मानुरुपतः॥ -शिव पुराण
धातुओं के मैल को हटाने के लिए जैसे उन्हें तीक्ष्ण अग्नि में रखते हैं, उसी तरह पापी प्राणियों को पाप-नाश के उद्देश्य से ही अपने कर्मों के अनुसार ही नरकों में गिराया जाता है।
कलौ प्रेतत्वमाप्नोति तार्क्ष्याशुद्ध क्रिया परः। रूतादौ द्वापरं यावन्न प्रेतौ नैव पीडनम्॥ -गरुड़ पुराण
कलियुग में मनुष्यों के रहन-सहन के अशुद्ध हो जाने से वे प्रेतत्व को प्राप्त होते हैं। सतयुग द्वापर आदि में न कोई प्रेत बनता था न किसी को प्रेत सम्बन्धी पीड़ा होती थी।
दुर्भिक्षादेवदुर्भिक्षक्लेशात्क्लेशंभयाद्भम्। मृतेभ्यः प्रमृतायान्तिदरिद्राः पापकर्मिणः॥18॥
जो पापी हैं, वे दरिद्र होते हैं। क्लेश, भय और संकट संतापों से घिरे रहते हैं और बेमौत मरते हैं। पुण्यात्माओं के उनके शुभ कर्मों के सत्परिणाम अनेक सुख-साधनों के रूप में उपस्थित होते रहते हैं।
आधिक्षयेणाधिभवाः क्षीयन्ते व्याधयोऽप्यलम्। शुद्धया पुण्यया साधो क्रियया साधुसेवया।
मनः प्रयाति नैर्मल्यं निकषेणेव कांचनम। आनन्दो वर्धते देहे शुद्धे चेतसि राधव।
सत्वशुद्धता वहन्त्येते क्रमेण प्राणवायवः। जरयन्ति तथान्नाति व्याधिस्तेन विनश्यति॥
-योग वशिष्ठ
शरीर के रोग ‘व्याधि’ और मन के रोग ‘आधि’ कहलाते है। इन दोनों के उत्पन्न होने का कारण विवेक की कमी और मूर्खता की प्रबलता ही है।
जब अविवेक के कारण मनुष्य का मन बेकाबू हो जाता है तो नाना प्रकार की तीव्र वासनाएँ उठती हैं। उन्हें पूरा करने के लिए अखाद्य करता है। अगम्य गमन (अनुचित काम सेवन) करता है। अनियमितता और अस्त व्यस्तता बरतता है, दुष्ट संग करता है और मस्तिष्क में बुरे विचार भरे रहता है।
इससे उसकी नाड़ियाँ शिथिल हो जाती हैं, अंग काम करना छोड़ देते हैं। प्राण शक्ति का संचार अस्त व्यस्त हो जाता है। इन परिस्थितियों में शरीर की स्थिति गड़बड़ा जाती है और नाना प्रकार के दुखदायक रोग उत्पन्न होते है।
मानसिक विकारों से शरीर रुग्ण होता है। उन विकारों के दूर होने से शरीर निरोग हो जाता है।
ब्रह्महा नरकस्यान्ते पाण्डुः कुष्ठी प्रजायते। कुष्ठी गोवधकारी……
बालघाती च पुरुषो मृतवत्सः प्रजायते। गर्भपातनजा रोगा यकृत्प्लीहा जलोदराः।
प्रतिमाभंगकारी च अप्रतिष्ठः प्रजायते।
विद्यापुस्तकहारी च किल मूकः प्रजायते। ओषधस्यापहरणे सूर्यावर्तः प्रजायते। -शातातपस्मृति
अर्थात् ब्रह्म हत्या करने वाला नरक भोगने के अन्त में श्वेतकुष्ठी, गो हत्यारा गलिककुष्ठी, बालकों की हत्या करने वाला, मृत सन्तान वाला, गर्भपात कराने वाला, यकृत तिल्ली एवं जलोदर का रोगी, मूर्ति खण्डित करने वाला अप्रतिष्ठित विद्या और पुस्तकों को चुराने वाला गूँगा, औषधियों को चुराने वाला आधाशीशी का रोगी होता है।
योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः। स्थाणुमन्ये ऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथा श्रुतम्॥
अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार कितने ही देहधारी तो शरीर धारण करने के लिए किसी देव, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनि को प्राप्त होते हैं और कितने ही स्थावर भाव (कृक्षादियोनि) को प्राप्त होते हैं।
तद् य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योतिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनि वा क्षत्रिययोनिक वा वैश्वयोनिवाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयाँ योनिमापद्येरन -छांदोग्य 5-10-7
अर्थात् अच्छे आचरण वाले उत्तम योनि प्राप्त करते हैं और नीच कर्म करने वाले नीच योनियों में जन्मते हैं।
‘पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन।’
अर्थात् निश्चय ही यह जीव पुण्य कर्म से पुण्यशील होता। पुण्य-योनि में जन्म पाता है और पाप कर्म से पाप शील होता- पाप योनि में जन्म ग्रहण करता है।
‘साधुकारी साधुर्भवति पापकारी पापो भवति।’
अर्थात् अच्छे काम करने वाला अच्छा होता है सुखी एवं सदाचारी कुल में जन्म पाता है और पाप करने वाला पापात्मा होता है- पाप योनि में जन्म ग्रहण करके दुःख उठाता है।
महाभारत वन पर्व में कहा है :-
जातिमृत्युजरादुःखै, सततं समाभिद्रुतः। संसारे पच्यमानश्च दोषैरात्मकृतैर्नरः॥33॥
मनुष्य अपने ही किये हुए अपराधों के कारण जन्म-मृत्यु और जरा सम्बन्धी दुःखों से सदा पीड़ित हो बारम्बार संसार में पचता रहता है।
जन्तुस्तुकर्मभिस्तैस्तैः स्वकृतै प्रेत्य दुःखितः। तददुःखप्रतिघातार्थमपुण्यां योनिमाप्नुते॥35॥
प्रत्येक जीव अपने किये हुए कर्मों से ही मृत्यु के पश्चात् दुःख भोगता है और उस दुःख का भोग करने के लिये ही वह पाप योनि में जन्म लेता है।
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