साधना का पारस (kavita)

July 1978

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‘‘छुए साधना का पारस’’, जीवन का लोहा। तो वह शुद्ध, दमकता कंचन बन जाएगा॥

आत्म-पथिक ने कितने लक्ष्य वरण कर छोड़े। कितने बंधन बांधे, कितने नाते तोड़े॥

कितने पथ नापे, कितनी गलियों में भटका। लिया सहारा कितनी सरि, कितने ही तटका॥

मात्र ‘‘साधना’’ से यह भटकन-क्रम टूटेगा। ‘प्राण-दीप’ यह ‘‘प्रभु का अर्चन’’ बन जाएगा॥

जीवन के मल, विक्षेपों की खाद बनालो। सद्-वृत्तियों के अंकुर रोपो, चैन उगालो॥

और ‘साधना’- जल से हर गहराई को भर। एक बनालो ‘आत्म-शान्ति’ का ‘मानसरोवर’॥

‘दिव्य चेतना’ से अनुप्राणित ऐसा जीवन। धरती पर ‘हिमगिरि का नन्दन’ बन जाएगा॥

तेज ‘साधना’ का जब जीवन में आता है। तभी अज्ञता-जड़ता का तम मिट पाता है॥

जगती ‘दीप्ति’ ज्ञान की ‘ज्योति’ भावना-बल की। ‘कांति’ फैलाती ‘श्रद्धा’ ‘निष्ठा’ के शतदल की॥

‘ममता’, ‘करुणा’ की पावन सुगन्ध फैलाए। ‘अन्तःचेतन’ ऐसा ‘चन्दन’ बन जाएगा॥

-माया वर्मा

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*समाप्त*


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