चांद्रायण तप की शास्त्रीय परम्परा

July 1978

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शास्त्रों, पुराणों में चान्द्रायण तप की महत्ता स्थान-स्थान पर प्रतिपादित की गई है। जीवन में हुई भूलों के कारण अन्तःकरण में छाये मल अवसाद के परिमार्जन की दृष्टि से उसे अमोघ साधन माना गया था। वह प्रतिपादन इस प्रकार है

परम पवित्रता दायक चान्द्रायण तप

धर्मशास्त्रों में प्रायश्चित्तों के अनेक विधि विधान बताये हैं। उन सबमें उपवास की तपश्चर्या को प्रधानता दी गई है। गीता में ‘उपवास से विषयों की निवृत्ति होना बताया गया है। लिप्सा और लालसा, लोभ और मोह, वासना और तृष्णा यही है वे आन्तरिक विष बीज जिनके कारण अनेक प्रकार के दुष्कर्म बन पड़ते हैं। इन्हीं आन्तरिक दुष्ट उभारों के विषय कहा गया है। विषयों की निवृत्ति के लिए उपवास का कठोर अनुशासन अपनाना पड़ता है और उसके उपरान्त आहार में सात्विकता का समावेश करना पड़ता है। मन की प्रवृत्तियों के निर्माण में अन्न ही बीज रूप होता है। आहार की सात्विकता से मन को शान्त और सुसंस्कारों बनाने में सफलता मिलती है। यह सारी प्रक्रिया उपवास मर्यादा के अन्तर्गत आती है। प्रायश्चित्त विधान का प्रथम चरण यही है। किन्तु बात इतने से ही समाप्त नहीं हो जाती।

प्रायश्चित्त के अगले चरण और भी है, जिनमें पाप की प्रकटीकरण-दूसरों को पहुंचाई गई क्षति की पूर्ति इनमें से प्रमुख हैं। जो किया गया था उसकी भविष्य में पुनरावृत्ति न करने की प्रतिज्ञा भी इसी विधान के अन्तर्गत आती है। यह सब तो हुआ दण्ड प्रकरण। यह प्रायश्चित्त का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष है श्रेष्ठता का साधना का समन्वय जिससे हटाये गये संस्कारों का रिक्त हुआ स्थान श्रेष्ठ कुसंस्कार ग्रहण कर सके। इस पुण्य विधान को रचनात्मक प्रयोजन में लगाया जा सके। मात्र पाप बन्द कर देना या उनका दण्ड भुगत लेना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् जो प्रयत्न दुष्कर्मों की हानिकारक प्रक्रिया के लिए चल रहा था वही उलट कर श्रेष्ठता सम्पादन में लग पड़े तब समझना चाहिए कि प्रायश्चित्त प्रक्रिया पूर्ण हुई।

प्रायश्चित्त विधान में चान्द्रायण तपश्चर्या को प्रमुखता दी गई है। उसके दो पक्ष हैं- एक परिशोधन, दूसरा अभिवर्धन। इस साधना से संचित पाप प्रवृत्तियों और कुसंस्कारों का जहाँ शमन होता है वहाँ आत्मोत्कर्ष के लिए प्रबल प्रयत्नों का भी साथ ही नियोजन होता है। अवांछनीयता का ध्वंस और उपयोगिता का सृजन यह दोनों ही कृत्य चान्द्रायण साधना से होते है, इसलिए उसे दण्ड विधान नहीं वरन् तप साधन की संज्ञा दी गई है। पाप निवारण भी उसका महत्वपूर्ण अंग है।

चान्द्रायण का सामान्य व्रत विधान

शास्त्रों में प्रायश्चित्त प्रकरण में कई प्रकार के विधानों का वर्णन है।

कृच्छ, अतिकृच्छ, तप्तकृच्छ, सौम्य कृच्छ, पाद कृच्छ, महा कृच्छ, कृच्छाति कृच्छ, पर्ण कृच्छ, सान्तापन कृच्छ, सान्तापन महा सान्तापन प्राजापत्य पराक ब्रह्मकूर्य आदि विधानों का उल्लेख है। इनमें चान्द्रायण व्रतों को तप में सर्व प्रमुख माना गया है।

उसकी क्रिया-प्रक्रिया सर्वविदित है। मोटे नियम इस प्रकार हैं-

एकैकं ह्रासयेत्पिंड कृष्णे, शुक्ले च वर्द्धयेत्। इन्दुक्षयेन पुंजीत एवचान्द्रायणो विधि॥ -वशिष्ठ

पूर्णमासी को पूर्ण भोजन करके एक-एक ग्राम घटाया जाय। चन्द्रमा न दीखने पर अमावस्या और प्रतिपदा को निराहार रहे। पीछे एक-एक ग्रास बढ़ाकर शुक्ल पक्ष के 14 दिनों में पूर्ण आहार तक पहुँच जाय।

ग्रास से तात्पर्य मुर्गी के अण्डे जितना तथा मुँह में जितना आहार एक बार में आ सके उतना है-

कुक्कुटाण्ड प्रमाणं स्याद् यावद् वास्य मुखे विशेत्। एत ग्रासं विजानीयुः शुद्धयर्थे काय शोधनम्॥ -अत्रि

‘‘मुर्गी के अण्डे के बराबर या जितना सुविधापूर्वक मुख में आ सकता हो उतना बड़ा ग्रास चान्द्रायण में ग्रहण करना चाहिए।’’

ग्रास परिमाण के झंझट में पहुँचने की अपेक्षा यह उत्तम है कि पूर्णिमा वाले आहार का चौदहवाँ अंश कृष्ण पक्ष में घटाता जाय और शुक्ल पक्ष में उसी अनुपात से हर दिनों बढ़ाते चला जाय।

नदी संगम तीर्थेषु, शुचेदिशे अरण्यके। ब्रह्मचारी सदा शान्तोजित क्रोधो जितेन्द्रियः।

अचिन्त्य चिंतनं व्यक्तवा सत्हितमित भाषणम्। सन्ध्ययोस्तु जपेन्नित्यं गायत्री ध्यान पूर्वकम्॥ -आपस्तंव

नदी संगम, तीर्थ, पवित्र स्थान पर, वन प्रदेश में निवास ब्रह्मचर्य पालन, शान्ति चित्त, जितेन्द्रिय, क्रोध रहित, अचिन्तय चिंतन का परित्याग, सत्य हित और स्वल्प भाषण दोनों समय ध्यान पूर्वक गायत्री का जप, यह नित्य नियम रखे।

अरण्ये नियतो जप्त्वा त्रिर्वैदस संहिताम। शुध्यते व मिताशित्वा प्रतिस्रोतः सरस्वतीम्।

‘‘निर्जन वन में संयम पूर्वक रहे, अल्प भोजन करे, किसी पुण्य नदी के उद्गम पर तीन बार सम्पूर्ण वेद का पारायण करे, तभी मनुष्य शुद्ध हो जाता है।’’

सावित्रींच जपेन्नित्यं पवित्राणि च शक्तितः। -सम्वर्त अहोरात्र्यन्तु गायत्र्या जपं कृत्या विशुध्यति। -आपस्तंव

नित्य पवित्र होकर गायत्री का जप करे। दिन-रात उसी उपासना में लगा रहे। उसमें परिशोधन होता है।

सावित्री तुजपेन्नित्यं पवित्राणि च शक्तितः।

पवित्र होकर यथा शक्ति गायत्री का जप करता रहे।

नित्य स्नायी मिताहारी गुरुदेव द्विजार्चकः। पवित्राणि जपेच्चैव जुहुयाच्चैव शक्तिः। ब्रीहिणाष्टिक मुद्गाश्च गोधूम सतीला यवाः। चरुभैक्ष्यं सक्तुव्रणाः शांवांघृत दधि पयः॥ -अग्नि पुराण

नित्य स्नान करे भूख से कम खाये, गुरु देव, ब्रह्मपरायणों का अभिवादन करे, पवित्र रहे, जप करे, हवन करे।

जौ, चावल, मूँग, गेहूँ, तिल, हविष्यान्न, सत्तू, शाक, दूध, दही, घृत पर निर्वाह करे।

चान्द्रायण के चार भेद हैं (1) पिपीलिका (2) यव मध्य (3) यति (4) शिशु। इन चारों के अन्य नियम समान हैं, पर आहार सम्बन्धी कठोरता न्यूनाधिक है। यति तपश्चर्या अधिक कठिन है और शिशु व्रत साधना में शरीर और मन की स्थिति को देखते हुए सरलता रखी गई है।

पाप पर से पर्दा हटाया जाय-

पापों के प्रकटीकरण की प्रक्रिया का एक स्वरूप तो मुण्डन कराने, बाल कटवाने के रूप में प्रतीक चिन्ह की तरह है। दूसरा चरण है प्रकटीकरण। यह मात्र किसी सत्पात्र के सम्मुख ही हो सकता है। सार्वजनिक घोषणा कर सकने का किसी में साहस हो तो और भी उत्तम। पर इस प्रकटीकरण में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि व्यभिचार जैसी प्रक्रियाओं में साथी का नाम, पता आदि प्रकट न किया जाय।

पापों पर खड़े हुए पर्दे का उठाने और प्रकटीकरण की विधा पूरी करने के लिए शास्त्र निर्देश इस प्रकार है -

यथा यथा नरोऽधर्म स्वयं कृत्वाऽनुभाषते॥ तथा तथा त्वचेवाहि स्तेनाधर्मेण मुच्यते। -मनुस्मृति।

जैसे-जैसे मनुष्य अपना धर्म लोगों में ज्यों का त्यों प्रकट करता है, वैसे-वैसे ही वह अधर्म से उसी प्रकार मुक्त होता है जैसे केंचुली से साँप।

समत्वे सति राजेन्द्र तयोः सुकृत पापेयाः। गूहितस्य भवेद् वृद्धि कीर्तितस्य भवेत् क्षयः॥ -महाभारत

राजेन्द्र जब पुण्य-पाप दोनों समान होते हैं, तब जिसको गुप्त रखा जाता है। उसकी वृद्धि होती है और जिसका वर्णन कर दिया जाता है उसकी क्षति हो जाती है।

तस्मात् प्रकाशयेत् पापं स्वधर्म सततं चरेत्। क्लीवादुःखी च कुष्ठी च सप्त जन्मानि वै नरः॥ -पाराशर स्मृति।

पाप को छिपाने से मनुष्य, सात जन्मों तक कोढ़ी दुःखी नपुंसक होता है। इसीलिए पाप को प्रकट कर देना ही उत्तम है।

आचक्षाणेतत्पामेतत्कर्म्मास्मिशाधिमाम।

वह अपने किये हुए पाप को भी मुँह से कहता हुआ दौड़े कि मैं ऐसे कर्म के करने वाला हूँ, मुझे दण्डाज्ञा प्रदान कीजिए।

कृत्वा पापं न गूहेत गुह्यमानं विवर्द्धते। स्वल्पं वाथ प्रभूतं वा धर्म विद्धयो निवेदयेत।

ते हि पापे कृते वेद्या हन्तारश्चैव पाप्मनाम। व्याधितस्य यथा वैद्या बुद्धिमन्तो रुजापहाः। -पाराशर स्मृति

पाप कर्म बन पड़ने पर उसे छिपाना नहीं चाहिए। छिपाने से वह बहुत बढ़ता है। पाप छोटा हो या बड़ा उसे किसी धर्मज्ञ से प्रकट अवश्य कर देना चाहिए। इस प्रकार उसे प्रकट कर देने से पाप उसी तरह नष्ट हो जाते हैं, जैसे चिकित्सा करा लेने पर रोग नष्ट हो जाते हैं।

रहस्यं प्रकाशयं च।

-प्रायश्चितेन्दु शेखर

पापं नश्यति कीर्तनात्।

-धर्म सिन्धु

रहस्य के पर्दे को उठा देना चाहिए। पाप के प्रकटीकरण से वे धुल जाते हैं।

तस्मात् पापं न गुह्येत् गुहमानं विवर्धयेत्। कृत्वातत् साधुरवमेयंतेतत् शमयन्त्युत॥ -महा0 अनु0

अतः अपने पाप को न छिपाएं, छिपाया हुआ पाप बढ़ता है। यदि कभी पाप बन गया हो तो उसे साधु पुरुषों से कह देना चाहिए। वे उसकी शान्ति कर देते हैं।

तद् यदिह पुरुषस्य पाप कृतम्भवति तदा निष्करोति यदि हैन दपि रहसीव कुर्वन्मन्यतेथ हैनदाविरेव करोति। तस्याद्वाव पापं न कुर्यात्। -जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण

जब मनुष्य में दिव्य वाणी प्रकट होती है तब वह अपने पाप प्रकट करती है। मनुष्य ने जो पाप नितान्त गोपनीय रखे थे उन्हें भी वह प्रकट कर देती है।

दुष्कर्मों के कितने ही बुरे प्रभाव अन्तःक्षेत्र पर पड़ते हैं। वे कुकृत्य चेतना की गहराई में पहुंच कर कुसंस्कारों के रूप में जड़ जमा कर बैठ जाते हैं और घुन की तरह उस क्षेत्र की गरिमा को नष्ट करते चले जाते हैं। उनके दुष्परिणाम समय-समय पर आधि-व्याधि और आकस्मिक दुर्घटनाओं के रूप में सामने आते रहते हैं।

मनोविज्ञान शास्त्र के अनुसार अन्तःभूमि को क्षत-विक्षत करने वाला सबसे बड़ा कारण है दुराव। दुष्कर्मों के करते समय सामने वाले छल करना पड़ता है। वस्तुस्थिति जान लेने पर तो आक्रमण सफल ही न हो सकेगा। इसके उपरान्त राज दण्ड तथा समाज दण्ड से बचने के लिए उन कुकृत्यों को छिपा कर रखा जाता है। किसी पर प्रकट नहीं होने दिया जाता। यह दुराव हजम तो होता नहीं। पारा खा लेने पर वह पचता नहीं, वह फूट फूटकर शरीर में से फोड़े और घाव बनकर निकलता रहता है। ठीक इसी प्रकार कुकृत्यों का दुराव भी अनेक प्रकार के मानसिक और शारीरिक रोग उत्पन्न करता और आजीवन कष्ट देता रहता है। अंतर्द्वंद्व, तब तक चलता ही रहता है जब तक उसका प्रकटीकरण और प्रायश्चित्त करके परिशोधन न कर दिया जाय।

परिशोधन प्रक्रिया में प्रकटीकरण भी एक उपचार है। जो कुकृत्य बन पड़े हैं उनका प्रकटीकरण आवश्यक है। पर वह होना उन्हीं के सामने चाहिए जो इतना उदार हो कि चिकित्सक की करुणा से अपराधों को धैयपूर्वक सुन सके और घृणा धारण किये बिना उन्हें अपने भीतर पचा सके। प्रकट करने वाले की निंदा न होने दें। उसे उस प्रकटीकरण के कारण लोक निन्दा के द्वारा होने वाली क्षति न पहुँचने दें, वरन् उसे स्नेहपूर्वक सत्परामर्श देकर सुधरने में सहायता करें। ऐसे व्यक्ति जब तक न मिलें तब तक प्रकटीकरण नहीं ही करना उचित है। ईसाई धर्म में मरने से पूर्व ‘पाप स्वीकृति का वर्णन’ कनफेक्शन आवश्यक धर्मकृत्य माना जाता है। समय रहते पादरी को बुलाया जाता है। एकान्त में मरणासन्न व्यक्ति जीवन भर के अपने सारे पापों को विस्तारपूर्वक बताता है और जी हलका करता है। पादरी को पिता कहते है। उसमें परम करुणा रहती है। वह धैर्य और शान्तिपूर्वक उसे सुनता है और ईश्वर से क्षमा की प्रार्थना करता है। न उसके मन में घृणा होती है और न औरों पर प्रकट करने की क्षुद्रता का परिचय देना ही उसकी गरिमा के उपयुक्त होता है।

चान्द्रायण में केश कटाने का संस्कार-

चान्द्रायण व्रत लेते समय शिर के केश कटाने का, मुण्डन कराने का विधान है। इतना न बन पड़े तो बाल बनाने का तो कृत्य किसी न किसी रूप में करना ही होता है। इसमें मस्तिष्क में भरे हुए पुराने विचारों को बदलने की प्रतीक प्रतिज्ञा है। यहाँ बालों को विचारों को प्रतीक माना गया है। इसलिए उन्हें बालकों के मुण्डन संस्कार की तरह ही चान्द्रायण व्रत में भी आवश्यक माना गया है। बालकों का मुण्डन कराने के पीछे उद्देश्य यह है कि पिछले कुसंस्कार जो मस्तिष्क के भीतर भरे हुए हैं उनका उन्मूलन आवश्यक है तभी मनुष्यता की गौरव गरिमा उपलब्ध हो सकती है। इस परिवर्तन का प्रतीक बालों का कटाना माना गया है। तीर्थ में जाकर भी मुण्डन कराने का तात्पर्य यह है कि वहाँ पहुँचने के उपरान्त कुसंस्कारों की जो अवधारणा मस्तिष्क में थी, वह बदल दी। इसी प्रकार मृत्यु शोक के सन्तापदायी विचारों से छुटकारा पाने के लिए श्राद्ध के समय मुण्डन कराया जाता है।

चान्द्रायण व्रत के समय मुण्डन का विधान है। वैसा जो न कर सके उन्हें प्रतीक रूप में शिर के बालों को हल्के तो करा ही लेना चाहिए। इसके दो उद्देश्य है-एक पशु प्रवृत्तियों के परित्याग की दुर्बुद्धि को निरस्त करने की प्रतीक प्रतिज्ञा है। दूसरे पापों की स्वीकृति एवं घोषणा में। इसमें समाज में प्रतिष्ठा बनाये रहने और पाप छिपाये रहने का दुहरे पाप से निवृत्ति पाने का संकल्प है।

सर्वविदित है कि मुण्डन संस्कार में बालों को गोमूत्र, गोबर एवं पंचगव्य से धोया, सींचा जाता है। चान्द्रायण व्रत के समय भी जब बाल बनवाये जाते है तो मस्तिष्क का संस्कार पंचगव्य से ही किया जाता है। मुण्डन से पूर्व यह गोरस सिंचय किया जाय या पीछे यह सुविधा के ऊपर निर्भर है, पर किसी न किसी रूप में उसे किया जाना आवश्यक है।

बाल कटाने के सम्बन्ध में चान्द्रायण व्रत कर्त्ता के लिए शास्त्र निर्देश इस प्रकार है-

शिरसां कृन्तनं युद्धे मुण्डनं तद्वदेव हि। वेदेऽपि स्थिरमेतद्धि समानं समुदाहृतम्॥ -योगिनी तन्त्र

शिर छेदन और शिर मुण्डन एक कार्य है, वेद में यह दोनों कार्य ही समान कहे गये हैं।

श्मश्रुकेशान् वापयेत् भ्रुवोऽक्षि लोमशिखावर्जम नखाननिकृत्त्य।

-वशिष्ठ

‘व्रत के आरम्भ में दाढ़ी, मूँछ और सिर के बालों को कटा लें। भौंह आदि और शिखा न कटाई जाय।’

सर्वानकेशान् समुधृत्यच्छेयेत्च्छेदयेत् अंगुल द्वयम्।

-यम

आकेशान्तान्नखाग्राच्च तपस्तप्यत उत्तमम्।

-बौद्धायनि

यत्किंचित् क्रियते पापं सर्व केशेषु तिष्ठति।

-पारासर

केशश्ममश्रु लोमनखान् वापयित्वाततः शुचिः।

-पारासर

अर्थात् श्चन्दायणं तस्योक्तो विधिः वपनं व्रतं चरेत्।

इन समस्त अभिवचनों में चान्द्रायण व्रत कर्त्ता के लिए पूर्ण मुण्डन की इच्छा न हो तो बाल कटाने, उनकी लम्बाई घटाने की आवश्यकता तो रहती ही है।

प्रायश्चित्त का अति महत्वपूर्ण पथ-क्षतिपूर्ति -

1- निरपराध सताना, आक्रमण, 2- व्यभिचार, बलात्कार 3- आर्थिक शोषण, अपहरण, चोरी, बेईमानी।

पाप कर्मों का प्रायश्चित्त करने में पश्चात्ताप वर्ग की पूर्ति, व्रत उपवास से शारीरिक कष्ट सहने से, तितीक्षा कृत्यों से होती है। किन्तु क्षतिपूर्ति का प्रश्न फिर भी सामने रहता है। इसके लिए पुण्य कर्म करने होते हैं, ताकि पाप सके रूप में जो खाई खोदी गई थी वह पट सके पुण्य-पाप का पलड़ा बराबर हो सके। दुष्प्रवृत्तियों को सत्प्रवृत्तियों से ही पाटा जा सकता है। इसलिए दुष्कर्म करके जो व्यक्ति विशेष को हानि पहुँचाई गई। समाज में भ्रष्ट अनुकरण की परम्परा चलाई गई। वातावरण में विषाक्त प्रवाह फैलाया गया, उसको निरस्त तभी किया जा सकता है। जब सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन करने वाले पुण्य कर्म करके उसकी पूर्ति की जाय। समाज को सुखी और समुन्नत बनाने वाली सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन आवश्यक माना जाय। इसके लिए समय, श्रम एवं मनोयोग लगाया जाय। धर्म प्रचार की पदयात्रा करके लोक प्रेरणा देने वाले तीर्थ यात्रा जैसे पुण्य कर्म किये जायें। जो घटना चुकी वह अनहोनी तो नहीं हो सकती। आक्रामक कुकर्मों की क्षतिपूर्ति इसी में है कि लगभग उतने ही वजन के सत्मर्म सम्पन्न किये जायें।

व्यभिचार जन्य पापों का प्रायश्चित्त यही है कि नारी को हेय स्थिति से उबारने के लिए उसे समर्थ एवं सुयोग्य बनाने के लिए जितना प्रयास पुरुषार्थ बन पड़े उसे लगाने के लिए सच्चे मन से प्रयत्न किया जाय।

आर्थिक अपराधों का प्रायश्चित्त यह है कि अनीति उपार्जित धन उसके मालिक को लौटा दिया जाय अथवा सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के श्रेष्ठ कामों में उसे लगा दिया जाय। इस अर्थदान को प्रायश्चित्त विधान का आवश्यक अंग इसलिए माना गया है कि अधिकांश पाप अर्थलोभ से किये जाते हैं और उतने न्यूनाधिक मात्रा में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में भौतिक लाभ उठाने का उद्देश्य रहता है। यह अनीति उपार्जित धन अपने लिए और अपने परिवार वालों के लिए समयानुसार भयंकर विपत्तियाँ ही उत्पन्न करता है। भले ही तत्काल उससे कोई कमाई होने और सुविधा मिलने जैसा लाभ ही प्रतीत क्यों न होता हो।

जो कमाया गया है उसे बगल में दबाकर रखा जाय। अनीति उपार्जित सुविधाओं का परित्याग न किया जाय। मात्र घड़ियाल के आँसू बहाकर व्रत, उपवास जैसी लकीर पीट दी जाय तो उतने भर से कुछ बनेगा नहीं। व्रत, उपवास तो अनीति अपनाने से आत्मा पर चढ़ी कषाय−कल्मषों की परत धोने भर के लिए है। क्षतिपूर्ति का प्रश्न तो फिर भी जहाँ का तहाँ रहता है। जो अनीति बरती है उसकी हानि को भरपाई कर सकना वर्तमान परिस्थितियों में जितना अधिक से अधिक सम्भव हो उसके लिए उदार साहस जुटाना चाहिए। घटनाओं की क्षतिपूर्ति अर्थदण्ड सहने से भी हो सकती है। रेल दुर्घटना आदि होने पर मरने वालों के घरवालों को सरकार अनुदान देती है। उसमें क्षतिपूर्ति के लिए आर्थिक प्रावधान को भी एक उपाय माना गया है। प्रायश्चित्त विधानों में क्षतिपूर्ति की दृष्टि से दान को महत्व दिया गया है। दोनों में गौदान, अन्नदान, उपयोगी निर्माण आदि के कितने ही उपाय सुझाये गये हैं। वे जिससे जितने बने पड़े उन्हें वे उतनी मात्रा में करने चाहिए। कुछ भी न बन पड़े तो श्रमदान, सत्कर्मों में योगदान तो किसी न किसी रूप में हर किसी के लिए सम्भव हो सकता है। शास्त्र कहता है-

सर्वस्व दानं विधित्सर्व पाप विशोधनम्कूर्मपुराण

अनीति से संग्रह किये हुए धन को दान कर देने पर ही पाप का निवारण होता है।

दत्वै वापहृतं द्रव्यं धनिकस्याभ्यु पापतः। प्रायश्चित्तं ततः कुर्यात् कलुषस्य पापनुत्तये॥ -विष्णु स्मृति

जिसका जो पैसा चुराया हो उसे वापिस करे और चोर कर्म का प्रायश्चित्त करे।

वापसी सम्भव न हो या आवश्यक न हो तो अनीति उपार्जित साधनों का बड़े से बड़ा अंश श्रेष्ठ सत्कर्मों में लगा देना चाहिए।

आचार्य बृहस्पति के अनुसार, उपवास स्तथदान उमौ अन्योन्याश्रित।

प्रायश्चित्त में उपवास की तरह दान भी आवश्यक है। दोनों एक-दूसरे के साथ परस्पर जुड़े हुए हैं।

प्राज्ञः प्रतिग्रहं कृत्वां तद्धनं सद्गति नयेत् यज्ञाद्वा पतितोद्धार पुण्यात् न्याय रक्षणेवापी कूप तड़ागेषु ब्रह्मकर्म समत्सृजेत।

-अरुण स्मृति

अनुचित धन जमा हो तो उसे यज्ञ पतिद्धार, पुण्य कर्म, न्याय रक्षण बावड़ी कुंआ, तालाब आदि का निर्माण एवं ब्रह्म कर्मों में लगा दें। अनुचित धन की सद्गति इसी प्रकार होती है।

तेनोदपानं कर्त्तव्यं रोपणीयस्तथा वटः। -शाता0।

सच्छास्त्र पुस्तकं दद्यात् विप्राय स दक्षिणम्। -पाराशर

वापी कूप तडागादि देवता यतनानि च। पतितान्युद्धरेद्यस्तु व्रत पूर्ण समाचरित्॥ -यम

सोपि पाप विशुद्धयर्थ चरेच्चान्द्रायण व्रतम्। व्रतान्ते पुस्तकं दधात् धेनु वत्स समन्वितम्॥ -शातायन

सुवर्ग दानं गोदानं भूमिदानं तथैवच। नाशयन्त्याशु पापानि अन्यजन्म कृतान्यपि॥ -सम्वर्त

इन अभिवचनों में सत्साहित्य वितरण, विद्यादान, वृक्षारोपण, कुंआ, तालाब, देवालय आदि का निर्माण यज्ञ दुःखियों की सेवा अन्याय पीड़ितों के लिए संघर्ष आदि अनेक शुभ कर्मों में क्षति की पूर्ति के रूप में अधिक से अधिक उदारतापूर्वक दान देने का विधान है। इस दान शृंखला में गौदान को विशेष महत्व दिया गया है। गौ की गरिमा को शास्त्रों में अत्यधिक महत्व दिया गया है। इसलिए गौदान की महिमा बताते हुए प्रायश्चित्त व्रतों के साथ उसे भी जोड़कर रखा गया है यथा-

गोदानं च तथा तेषु कर्त्तव्यं पाप शोधनम्। यत्र यावत् संख्यया प्राजापत्या न्यावतं नीयानि भवन्ति तत्र तावत् संख्यया गोदान्यावर्तनीयानि। -सूर्यारूपा

जिस प्रायश्चित्त में जितने प्राजापत्यादि व्रतों की संख्या का निर्धारण हो उनमें उतनी ही गौओं के दान का भी समावेश समझा जाना चाहिए।

गावो देयाश्च ऋषिभिः अभिषेक युताः वतः। -बृहस्पति

गोदाने वत्स युक्ता गौ सुशीला पयस्विनी। पृथिवीं तेन दत्रास्यादीदृशीं गान्ददातियः। तेनाग्नयो हुताः सम्यक् पितर स्तने तर्पिताः। देवाश्च पूजिताः सर्वे यो ददाति गवान्हिकम॥ -अत्रि

स दधात् दुग्ध धेनुश्च ब्राह्मणाय यथाविधि। -शाता0

तेन धेनुः प्रदातव्या विशुद्ध यर्थ च विल्विषं। -अंगिरा

इन सभी अभिवचनों में गौदान को चान्द्रायण व्रत के साथ जोड़ा गया है। यह धन से न बन पड़े तो श्रम से तो हो ही सकता है। दलीप और उनकी पत्नी ने महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में रहकर गौ चराने का व्रत लिया था। गौ सम्पर्क में जो प्रभाव रहता है उससे भी सात्विकता की वृद्धि और पापों की निवृत्ति में बहुत योगदान मिलता है।

चान्द्रायण व्रत और गौ सम्पर्क

चान्द्रायण व्रत के साथ गौ सम्पर्क जुड़ा हुआ है। इस तपश्चर्या के अनेक कार्य ऐसे हैं, जिनमें गौ को किसी न किसी प्रकार साथ लेकर चलना पड़ता है।

मुख में कोई अन्य वस्तु जाने देने के पहले, चान्द्रायण व्रत कर्ता को ‘पंचगव्य’ ग्रहण करना होता है। इसके उपरान्त अन्य कोई वस्तु मुँह में जानी चाहिए। पंचगव्य गाय के दूध, दही, घृत, गौमूत्र, गोमय के सम्मिश्रण को कहते है। उसमें तुलसी पत्र और गंगाजल भी मिलाया जाता है।

गव्यं पीत्वा विशुध्यति। तत्राप्यशक्ता चैकेन पंच गव्यं पिवेत्ततः -आपस्तंव

पंच गव्येन शुध्यति -आपस्तंव

शुध्यते पंच गव्येन पीत्वा तोयमकामतः -सम्वर्त

मृत्तिका शोधनं स्नानं पंच गव्यं विशोधनम्। -अंगिरा

गो मूत्रं, गोमयं, क्षीरं, दधि, घृत, कुशोदनम्। निदिष्टं पंच गव्यन्तु पवित्रं पापनाशनम्॥ -सम्वर्त

पतितं प्रेक्षितं वापि पंच गव्येन शुध्यति। -अत्रि

श्रृणु पाण्डव तत्वेन, सर्व पाप प्रणाशनम। पापिनो येकन शुद्धयन्ति तत्ते वक्ष्यामि सर्वशः। यथावत्कुर्त कामोयस्तस्य यं प्रथमनु यः। शोधयेतु शरीरं स्वं पंचगव्ये पवित्रतः। -वृद्ध गौतम

यह चान्द्रायण व्रत समस्त पापों का शमन करने वाला है। कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। उसे आरम्भ करते हुए शरीर को पंच गव्य से पवित्र बनाना चाहिए।

इन सब विधानों के सन्दर्भ में शास्त्रों के अनेक अभिवचन उपलब्ध है। चान्द्रायण व्रतकर्त्ता के लिए नित्य सर्वप्रथम पंचगव्य लेने का विधान है।

चान्द्रायण व्रतकर्त्ता के आहार में हविष्यान्न की प्रधानता रहनी चाहिए। हविष्यान्न जौ, तिल, चावल के सम्मिश्रण को कहते हैं। इनमें से जौ को गौमूत्र के साथ विशेष रूप में संस्कारित किया हुआ होना चाहिए। गौमूत्र में जौ भिगोये जायें। वे उस संस्कार को ग्रहण कर लें तब उन्हें सुखाकर पीसा जाय और दलिया या रोटी बनाई जाय। इस प्रकार भोजन में गौ सम्पर्क आवश्यक हुआ।

गोमूत्र यावकाहारो मासार्धेन विशुद्धयति -अत्रि

गोमूत्र यावाकाहारो। -सम्वर्त गो मूत्र यावकाहारः। -अत्रि

गो मूत्रेणनु संमिश्र यावकं घृतपचितम्। -अत्रि

गो मूत्रेणनु संमिश्रं यावकं चोपजायते। -अंगिरा

गो मूत्र यावकाहारे स्त्रिरात्रेणैव शुध्यति। -शातायन

गो मूत्र यावकाहारः षड़ रात्रेण शुध्यति। -आपस्तंव

गो मूत्र यावकाहरि मासेनैकेन शुध्यति।

–पाराशर

गो मूत्र यावका हरिस्त्रि रात्रेण विशुध्यति। -स्कन्द

गो मूत्रेण समायुक्तं यावकं चोपभोजयेत्। -वशिष्ठ

चान्द्रायण की पूर्णाहुति में गौदान का विधान है। उसे भी प्रायश्चित्त प्रक्रिया का एक अंग माना गया है, जिनके लिए गौदान सम्भव न हो वे गौग्रास (गाय का चारा) भी दान कर सकते हैं। अथवा शरीर से गौ सेवा का श्रम कर सकते हैं। इस प्रकार चान्द्रायण व्रत के साथ गौ सम्पर्क अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रखा गया है।

धर्म-प्रचार की पदयात्रा-तीर्थयात्रा-

पाप निवृत्ति और पुण्य वृद्धि के दोनों प्रयोजनों की पूर्ति के लिए तीर्थयात्रा को शास्त्रकारों ने प्रायश्चित्त को तप साधना में सम्मिलित किया है। तीर्थयात्रा का मूल उद्देश्य है धर्मप्रचार के लिए की गई पदयात्रा। दूर-दूर क्षेत्रों में जनसम्पर्क साधने और धर्मधारणा को लोक मानस में हृदयंगम करने का श्रमदान तीर्थयात्रा कहलाता है। श्रेष्ठ सत्पुरुषों के सान्निध्य में प्रेरणाप्रद वातावरण में रहकर आत्मोत्कर्ष का अभ्यास करना भी तीर्थ कहलाता है। यों गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने के लिए किये गये प्रबल प्रयासों को भी तीर्थ कहा गया है। तीर्थ का तात्पर्य है तरना। अपने साथ-साथ दूसरों का तारने वाले प्रयासों को तीर्थ कहते हैं। प्रायश्चित्त विधान में तीर्थयात्रा की आवश्यकता बनाई गई है।

आज की तथाकथित तीर्थयात्रा मात्र देवालयों के दर्शन और नदी, सरोवरों के स्नान आदि तक सीमित रहती है। यह पर्यटन मात्र है। इतने भर से तीर्थयात्रा का उद्देश्य पूरा नहीं होता है। सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन के लिए किया गया पैदल परिभ्रमण ही तीर्थयात्रा कहलाता है। यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य संवर्धन के लिए श्रेष्ठ उपचार भी है। धर्म प्रचार के लिए जनसम्पर्क साधने का पैदल परिभ्रमण जन-समाज को उपयुक्त प्रेरणायें प्रदान करता है। साथ ही उससे श्रमदान से कर्त्ता की सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन भी होता चलता है। ऐसे ही अनेक कारणों को ध्यान में रखकर तीर्थयात्रा को ऐसा परमार्थ कहा गया है जिसे कर सकना प्रत्येक श्रमदान करने में समर्थ व्यक्ति के लिए सम्भव हो सकता है। तीर्थयात्रा का स्वरूप और महात्म्य शास्त्रकारों ने इस प्रकार बताया है-

नृणां पापकृतां तीर्थे पापस्य शमनं भवेत्। यथोक्त फलदं तीर्थ भवेच्छुद्धात्मनां नृणाम्॥

पापी मनुष्यों के तीर्थ में जाने से उनके पाप की शान्ति होती है, जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, ऐसे मनुष्यों के लिए तीर्थ यथोक्त फल देने वाला है।

तीर्थान्यनुसरन् धीरः श्रद्धायुक्तं समाहितः। कृतपापो विशद्धश्चेत् किं पुनः शुद्ध कर्मकृत्॥

जो तीर्थों का सेवन करने वाला, धैर्यवान् श्रद्धायुक्त और एकाग्रचित्त है, वह पहले का पापाचारी हो तो भी शुद्ध हो जाता है, फिर जो शुद्ध कर्म करने वाला है, उसकी तो बात ही क्या है।

तीर्थानि च यथोक्तेन विधिना संचरन्ति ये। सर्वद्वन्द्वसद्वा धीरास्ते नराः स्वर्गगामिनः॥

जो यथोक्त विधि से तीर्थयात्रा करते हैं, सम्पूर्ण द्वन्द्वों को सहन करने वाले हैं, वे धीर पुरुष स्वर्ग में जाते हैं।

यावत् स्वस्थोऽस्ति में देहो यावन्नेन्द्रिविक्लवः। तावत् स्वश्रेयसां हेतुः तीर्थयात्रां करोम्यहम्॥

जब तक मेरा शरीर स्वस्थ है, जब तक आँख, कान आदि इन्द्रियाँ सक्रिय हैं। तब तक श्रेय प्राप्ति के लिए तीर्थयात्रा करते रहने का निश्चय करता हूँ।

जायन्ते च क्रियन्ते च जलैष्वेव जलौकसः। न च गच्छन्ति ते स्वर्गमविशुद्ध मनोमलाः॥

जल में निवास करने वाले जीव जल में ही जन्मते और मरते हैं, पर उनका मानसिक मल नहीं धुलता इससे वे स्वर्ग को नहीं जाते।

क्रिया क्रर्मेण महता तपसा नियमेन च। दानेन तीर्थयात्राभिश्चिरकालं विवेकतः॥

दुष्टकृतैः क्षयमापन्ने परमार्थ विचारणे। काकतालीय योगेन बुद्धिर्जन्तोः प्रवर्तते॥

बहुत दिनों तक यज्ञ दानादि करने कराने से, कठिन तपस्या, नियम, तीर्थ यात्रा आदि द्वारा विवेक बढ़ता है और इनके द्वारा बुरे कर्मों का नाश हो जाने तक काकतालीय न्याय से मनुष्य में परमार्थ बुद्धि प्रस्फुटित हो जाती है।

मनो वाक् काय शुद्धानां राजस्तीर्थं पदे-पदे। तथा मलिन चित्तानां गंगायि कीटकाधिका॥

हे राजन्! मन, वाणी और काया से शुद्ध हुए मनुष्यों के लिए पग-पग पर तीर्थ हैं, किन्तु मलिन चित्त वालों के लिए गंगा भी एक तलैया है।

याममर्द्ध फलं हन्ति तदद्ध छत्र पादुके। वाणिज्यं त्रींस्तथा भागान् सर्वहनि प्रतिग्रहः। - स्कन्द पुराण

सवारी तीर्थयात्रा का आधा फल अपहरण कर लेती है उसका आधा छत्र तथा पादुका अपहरण कर लेता है। व्यापार पुण्य का तीन चतुर्थांश अपहरण करता है तथा प्रतिग्रह तीर्थ के सारे पुण्य को नष्ट कर देता है।

सर्वेषामेव वर्णानां सर्वाश्रमनिवासिनाम्। तीर्थं तु फलदं ज्ञेयं नात्र कार्या विचारणा॥

तीर्थानुगमने पद्भ्यां तपः परमिहोच्यते। तदेव कृत्वा यानेन स्नानमात्र फलं लभेत्॥

सभी वर्णों तथा सभी आश्रमों के लोगों को तीर्थ फलदायक होता है। इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिए। जो पैरों से पैदल चलकर तीर्थ जाते हैं। वे परम तप करते हैं। जो सवारी से यात्रा करते हैं। उन्हें स्नान मात्र का ही फल मिलता है।

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