कर्मफल की सुनिश्चितता बनाम आस्तिकता

July 1978

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कर्मफल मिलने में विलम्ब होने के कारण ही सत्कर्मों के प्रति उत्साह शिथिल होता है और दुष्कर्मों के प्रति साहस बढ़ता है। यदि तत्काल कर्मफल मिलने का विधान रहा होता तो फिर किसी को भी अनास्था न होती। चोर के हाथ में लकवा मार जाता, झूठे की जीभ बोलने में असमर्थ हो जाती, कुदृष्टि देखने वाले अन्धे हो जाते, कुमार्गगामियों की चलने-फिरने की शक्ति चली जाती तो षडयन्त्र रचने वाले स्मरण शक्ति खो बैठते, उद्दण्डता बरतने पर क्षय जैसे असाध्य रोग घेर लेते तो फिर किसी को भी कुकर्म करने का साहस न होता। इसी प्रकार सज्जनों द्वारा अपनाई गई सत्प्रवृत्तियों के फलस्वरूप उन्हें अच्छी आरोग्यता, विद्वत्ता, सम्पदा, सफलता जैसे लाभ तत्काल मिला करते तो फिर किसी को भी धर्मशिक्षा सुनने या सुनाने की आवश्यकता न रहती। प्रत्यक्ष फल प्राप्त होने की कठोर व्यवस्था बनी रहती तो फिर अवांछनीय गतिविधियों का कहीं दर्शन भी न होता। नाम भी सुनाई न पड़ता। फिर न धर्मोपदेशकों की आवश्यकता होती, न शास्त्रों का कोई प्रयोजन रह जाता। पुलिस, कचहरी, कानून, जेल, वकील, गवाह आदि का जंजाल भी कहीं दिखाई ही न पड़ता। जब तत्काल दण्ड मिलने की व्यवस्था ही चल रही होती तो फिर अधर्म के उन्मूलन और धर्म के संस्थापन के लिए ईश्वर को अवतार लेने की भी कोई आवश्यकता न पड़ती। सुधारकों और सेवाभावियों का क्षेत्र भी समाप्त हो जाता। उनका उद्देश्य विकृतियों का निराकरण और सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन ही तो होता है, पर जब तत्काल ही कर्मफल मिलने की व्यवस्था रहती तो किसी को यह साहस ही न पड़ता कि मर्यादा तोड़ें और सन्मार्ग छोड़ें। आग छूने पर जलने की बात प्रत्यक्ष है। फलतः कोई भी जान-बूझकर उसे छूने और जल मरने का प्रयत्न नहीं करता। अनजाने कोई दुर्घटना हो जाय तो बात दूसरी है। ठीक इसी प्रकार अधर्म करने की भी कोई गुंजाइश नहीं रहती। ठण्डा पानी पीते हैं तत्काल प्यास बुझती है, उसी प्रकार यदि सत्प्रवृत्तियों के सत्परिणाम मिला करते तो फिर उनका लोभ छोड़ना उसी तरह सम्भव न रहता जिस प्रकार भोजन, विश्राम आदि प्रत्यक्ष सुविधाओं की कोई उपेक्षा नहीं करता।

विचारणीय यह है कि यदि कर्मफल सचमुच ही नहीं मिलता है-जैसा कि विलम्ब लगने के कारण आभास होता है तो फिर यह स्पष्टीकरण भी साफ होना चाहिए ताकि या तो सभी लोग अनैतिकता के लाभों को समझकर वैसी ही नीति अपनायें। सर्वसाधारण को भी यह अवसर मिले कि कर्मफल जैसी कोई बात ही जब नहीं है तो फिर न्याय, शासन, ईश्वर आदि के सहारे आत्म-रक्षा की आशा न करें और अपने बचाव के जो कुछ उपाय सम्भव हों उसे अपनायें। इस स्पष्टीकरण से उथल-पुथल तो बहुत मचेगी, पर सच्चाई तो सामने आ ही जायगी। इससे मनुष्य यथार्थवादी ढंग से सोचने का और परिस्थिति का सामना करने का कोई कारगर रास्ता तो सोचने लगेगा।

किन्तु सृष्टि व्यवस्था के बारे में इतनी दूर तक जाने और असमंजस में पड़ने की आवश्यकता है नहीं। इस विश्व का निर्माणकर्त्ता बहुत ही दूरदर्शी और व्यवहार कुशल है। उसने इतना बड़ा सृजन किया है। जड़ में हलचल और चेतन में चिन्तन की इतनी अद्भुत सत्ता का समावेश किया है कि किसी सूक्ष्मदर्शी को आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। निर्माण, व्यवस्था और परिवर्तन की जो रीति-नीति विनिर्मित की है उसके तारतम्य को देखते हुए मनीषियों ने कला की कल्पना और विज्ञान की धारणा का मूर्त रूप दिया है। ऐसे सर्व सम्पन्न सृष्टा से कर्म व्यवस्था के सम्बन्ध में चूक होगी यह सोचना अपनी ही बाल बुद्धि का खोखलापन दर्शाना है। जिसकी दुनिया में दिन और रात की, ग्रह-नक्षत्रों के उदय-अस्त की, पदार्थ की प्रकृति और प्राणियों की परम्परा की विधि-व्यवस्था में कहीं राई-रत्ती अन्तर नहीं पड़ता- वह कर्मफल को सन्देहास्पद बनाकर अराजकता का और आत्मघात का विग्रह खड़ी नहीं कर सकती।

फिर देर से कर्मफल क्यों मिलता है? इस प्रश्न के कितने ही उत्तर हैं। पहला तो यही है कि अधिकतर ऐसा होता नहीं है। विलम्ब होने के अपवाद अधिक नहीं कम ही दिखाई पड़ते हैं। सामान्य सृष्टि व्यवस्था में-लोक-व्यवहार में अधिकांश कर्मों के फल यथा समय मिलते रहते हैं। यदि न मिलने तो कृषि, पशु-पालन, व्यवसाय, शिक्षा, चिकित्सा आदि की जो अनेकानेक उपयोगी गतिविधियाँ चल रही हैं उनमें से किसी का भी क्रम अनिश्चितता की स्थिति में चल नहीं पाता। परस्पर व्यवहार में भी सज्जनता, दुर्जनता की कोई निश्चित प्रतिक्रिया न होती तो मनुष्यों के लिए अपने स्वभाव और आचरण को किसी निश्चित ढाँचे में ढालने की आवश्यकता न होती। कार्यों के परिणामों पर विश्वास न होता तो फिर किसी की योजना की रूपरेखा बन ही न पड़ती। फिर सब कुछ यहाँ अनिश्चित, अविश्वस्त, अस्त-व्यस्त ही दृष्टिगोचर होता। सभ्यता, संस्कृति, नीति, धर्म, न्याय आदि का कोई रूप ही खड़ा नहीं हो सकता था। फिर विज्ञान की शोधों का, आविष्कारों का, क्रिया-प्रक्रिया का कोई तारतम्य ही नहीं बैठ सकता था। पदार्थों में पाई जाने वाली हलचल की एक सर्वांगपूर्ण विधि-व्यवस्था है। उसी की रूपरेखा प्रस्तुत करने के लिए भौतिक विज्ञान का ढाँचा खड़ा हुआ है। प्राणियों की इच्छा, विचारणा एवं क्रिया के पीछे भी कुछ प्रकृति प्रेरणा काम करती है, तालमेल बिठाने वाली व्यवस्था रहती है। जीव विज्ञान, मनोविज्ञान एवं तत्वज्ञान की शाखा-प्रशाखाओं में चेतना के स्वरूप और प्रवाह का ही विवेचन किया जाता है। यह विश्व हर दृष्टि से एक नियत व्यवस्था में बंधा हुआ है। फिर यह हो ही नहीं सकता कि कर्मों का फल न मिले। पुण्य का फल सुख और पाप का फल दुःख मिलने की बात भी इतनी ही स्पष्ट है। अपने ही चारों ओर हम में से प्रत्येक को अनेकानेक प्रमाण उदाहरण सहज ही उपलब्ध हो सकते हैं।

प्रश्न व्यवस्था का नहीं अपवादों का है। ऐसा कभी-कभी ही होता है। कहीं-कहीं ही देख जाता है कि अनीति करने वाले फले-फूले हों और नीति को पराभव का मुँह देखना पड़ा हो। यदि यह अपवाद अधिक संख्या में बनते हैं तो उस असन्तुलन से सार्वभौम संकट खड़ा होता है। उस सम्भावना के लिए सुधारकों और देवदूतों की सेना को समय-समय पर महाभारत रचने, समुद्र बाँधने और गोवर्धन उठाने जैसे प्रचण्ड पुरुषार्थ करने पड़ते हैं।

इतने पर भी यह मानना पड़ेगा कि इन अपवादों का अस्तित्व है और वे देखने को मिलते रहते हैं। वे इतने परिमाण में अवश्य होते हैं कि उतने से भी भ्रम उत्पन्न हो सके। दुष्टता की दिशा में साहस बढ़ सके और सदाशयता के प्रति निराशा उत्पन्न हो सके। विचारणीय तथ्य इतना ही है कि आखिर इतना भी होता क्यों है?

दृश्यमान बुराई के पीछे भी कई बार भलाई के तत्व छिपे रहते हैं। स्पष्ट है कि हर बीमारी कष्टकारक होती है, पर यह भी स्पष्ट है कि उसके पीछे प्रकृति की परिशोधन अनुकम्पा का हाथ रहता है। देह में घुसे हुए विजातीय द्रव्य से, जीवनी शक्ति के प्रचण्ड संघर्ष का नाम ही बीमारी है। यह एक प्रकार की प्रकृति चिकित्सा है। यदि प्रकृति को अपना काम करने दिया जाय और उसके प्रयास में यत्किंचित् अनुकूलता बनाई जाय तो उतने भर से रोग ही अच्छे नहीं हो जाते। भविष्य के लिए संग्रहित मलिनता से उत्पन्न होने वाले संकटों से भी छुटकारा मिल जाता है। ठीक इसी प्रकार विलम्ब से कर्मफल मिलने की बात को प्राणियों में सजगता, प्रखरता और दूरदर्शिता बनाये रहने का एक बहुत बड़ा आधार समझा जा सकता है। यदि इतना व्यतिक्रम न रहता तो प्राणियों को विकास मार्ग पर चलने का अवसर ही न मिलता। सजगता की कोई आवश्यकता ही न रहती। पराक्रम करने की जरूरत ही क्या थी? चिन्तन बहुत ही सामयिक रह जाता। बुद्धिमत्ता का विकास उचित-अनुचित का-लाभ-हानि का विचार करने पर ही होता है। यदि संसार में सब कुछ ठीक ठाक ही चलता रहता, व्यतिक्रम न होते तो फिर बुद्धि-बल को विकसित करने की आवश्यकता ही न पड़ती। फलतः प्राणी अविकसित स्थिति में ही पड़े रहते। अवांछनीयता के दुष्परिणाम का भय और सत्प्रवृत्ति के सत्परिणामों का लोभ ही है जो प्राणी को क्रमशः आगे धकेलते और ऊँचा उठाते हुए विकास की वर्तमान सीमा तक घसीट लाया है। प्रतिकूलताओं का-विपत्तियों का भय भी इतना ही बड़ा प्रगति आधार है जितना कि सृजन प्रयोजनों में संलग्न होने पर मिलने वाले लाभों का प्रलोभन। दिन का महत्व रात्रि के अस्तित्व से ही है। रात न होती तो दिन का आनन्द और लाभ ले सकना ही सम्भव न हो पाता। अवांछनीयताएं जहाँ वे कष्ट पहुँचाती और अव्यवस्था फैलाती हैं वहाँ उनसे एक लाभ भी है कि तुलनात्मक अध्ययन करने का, गुण-दोष समझने का अवसर मिल जाता है। यदि कर्मफल में अपवाद न होते, पराक्रम सुनिश्चित विधि से चल रहा होता तो फिर अनौचित्य अपनाने के लिए कहीं गुंजाइश ही न रहती और विग्रह का कोई चिन्ह कहीं दिखाई न पड़ता। फलतः सतर्कता और प्रखरता विकसित करने की आवश्यकता ही न होती। जागरुकता और साहसिकता को, दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता को प्रश्रय देने वाला एक बहुत बड़ा आधार नष्ट हो जाता। ऐसी दशा में सरलता और व्यवस्था तो बनी रहती, पर प्रबल पुरुषार्थ के लिए न आवश्यकता पड़ती, न चेष्टा होती। ऐसी दशा में निश्चित रूप से प्रगति क्रम अवरुद्ध हो जाता और मनुष्य को इस स्तर तक पहुँचाने का सौभाग्य न मिलता, जहाँ कि वह इस समय पहुँच सका है। इसमें उसकी सुखेच्छा ही नहीं उन व्यवधानों को हटाने की अभिलाषा भी है, जो अनौचित्य अपनाने के कारण ही संकट बनकर सामने आते हैं। तुलना करने पर ही भले-बुरे का परिचय मिलता है। तुलना से प्रेरणा मिलती है। अच्छाई की गरिमा जानने के लिए बुराई से उत्पन्न दुर्गति को भी जानना चाहिए। संसार में फैली हुई दुष्प्रवृत्तियों का यह एक लाभ भी है। यों हानियाँ तो उनकी असंख्यों ही हैं।

जिस प्रकार अनास्था से आतंकवादी उच्छृंखलता अपनाने का उत्साह मिलता है। ठीक इसी प्रकार उस अनौचित्य को निरस्त करने के लिए देव मानवों को अधिक प्रखरता उत्पन्न करने, संगठित होने और अनाचार से जूझने की अन्तःप्रेरणा उभरती है। इन प्रयासों के फलस्वरूप न केवल सत्प्रवृत्तियों की मात्रा और सज्जनों की संख्या ही बढ़ती है, वरन् वह शौर्य, साहस, त्याग, बलिदान भी उमड़ता है जो मानवीय शालीनता का पक्ष मजबूत करता है और सर्वतोमुखी प्रगति के अनेकानेक आधार खड़े करता है। भूकंप, महामारी, बाढ़, विपत्ति, युद्ध आदि के कारण जो क्षति असंख्यों को होती है उसे सभी जानते हैं, किन्तु उसका एक पक्ष यह भी विचारणीय है कि उन संकटों से अनेक की करुणा उभरती है-सेवा वृत्ति जगती है और परमार्थ में जुट पड़ने के लिए भाव भरी प्रतिस्पर्धा भी उमड़ पड़ती है। उसे कहते हैं बुराई के पीछे अच्छाई का झाँकना।

कर्मफल देर से मिलने के अपवादों की हानियों से इनकार नहीं किया जा सकता। उससे अनास्था उत्पन्न होती है और चरित्र संकट खड़ा होता है। इतने भर भी उसका किसी रूप में बने रहना इनके सूक्ष्म कारणों से सृष्टा ने आवश्यक समझा। फलतः उसका नियति क्रम में एक छोटा-सा अस्तित्व बना हुआ है।

सामान्यतया यह देरी वाली परम्परा भी अपनी नियति व्यवस्था का एक साधारण क्रम है। समझदार लोग उसकी धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं और विलम्ब लगने की बात को स्वाभाविक समझ कर अधीर नहीं होते। किन्तु कर्मफल में तनिक-सा विलम्ब होते देखकर मनुष्य न जाने क्यों धीरज खो बैठते हैं और अनास्था के संकट में न जाने कैसे जा फँसते हैं। आज का दूध कल दही बनता है। अब का बोया बीज कई महीने बाद फसल बनता है। आरोपित किये गये पौधे वृक्ष बनने और फलित होने में कई वर्ष का समय ले जाते हैं। व्यायामशाला में प्रवेश करने और पहलवान बनने के बीच लम्बा मध्यान्तर रहता है। विद्यार्थी को पाठशाला में प्रवेश पाने के उपरान्त स्नातक बनने की सफलता पाने के लिए वर्षों की अध्ययन साधना करनी पड़ती है। कारखाना खड़ा करने से लेकर लाभ मिलने लगने की प्रक्रिया के बीच समय की काफी लम्बाई रहती है। जब हर बड़ा काम समय माँगता है तो कर्मफल मिलने में थोड़ा विलम्ब लगते देखकर धीरज खो बैठना और यह मान बैठना- तत्काल परिणाम नहीं मिला तो कभी मिलेगा ही नहीं-बाल-बुद्धि का चिन्ह है।

बच्चा अभी कमाता नहीं है, उलटे सेवा और खर्च कराता है तो यह समझ बैठना उचित नहीं कि यह जीवन भर ऐसे ही सेवा लिया करेगा कभी कुछ कमाने और घर का उत्तरदायित्व संभालने लायक न हो सकेगा। साधना आरम्भ करने से लेकर सिद्धि तक पहुँचने में समय लगता है। यात्रा आरम्भ करने के दिन नहीं लक्ष्य तक कौन पहुँचता है? लम्बी मंजिल पूरा करने में समय तो लग ही जाता है। मुकदमा चलने से लेकर फैसला होने तक में अदालतें बहुत दिन गुजार देती हैं। कर्मफल मिलने में यदि विलम्ब लगे तो समझदारी का परिचय देने वाले मनुष्य को यह विश्वास भी रखना चाहिए कि इस सुनिश्चित सृष्टि व्यवस्था में जो बोया है वही काटना होगा।

स्वर्ग-नरक, दुर्गति, सद्गति, मरणोत्तर जीवन, पुनर्जन्म आदि में मनुष्य को मिलने वाले सुख-दुःख यह सिद्ध करते हैं कि कुछ समय पहले किये गये कर्म समयानुसार फलित हो रहे हैं और परिपक्व होने के बाद अपने फल दे रहे हैं।

समाज की सुव्यवस्था इस बात पर निर्भर है कि मनुष्यों के बीच पारस्परिक सद्भावना और सहकारिता के सूत्र सुदृढ़ बने रहें। सामूहिक प्रगति के पथ पर चलने और सुख-शान्ति की परिस्थितियाँ बनी रहना इसी वातावरण में सम्भव हो सकता है। समाज व्यक्तियों का समूह है। व्यक्ति अच्छे रहेंगे तो उनका सम्मिलित समुदाय भी समुन्नत और विकसित दिखाई पड़ेगा। व्यक्ति के सज्जन और सुसंस्कृत बनाये रहने के लिए कर्मफल को सुनिश्चितता का तत्व-दर्शन हर किसी की आस्थाओं में गहराई तक प्रतिष्ठापित होना चाहिए।

कर्मफल के समर्थन में हजार तर्क, तथ्य और प्रमाण मौजूद हैं। पर उसमें एक ही खामी रहती है कि अपवाद स्वरूप कई बार भले कर्मों का सत्परिणाम और बुरे कर्मों का दुष्परिणाम उत्पन्न होने में विलम्ब लग जाता है। इस विलम्ब में ही अदूरदर्शी लोग अपना धैर्य खो बैठते हैं और अनास्था अपना लेते हैं। इसे बाल-बुद्धि की क्षुद्रता और विवेकहीनता का अभिशाप ही कहना चाहिए। यह उतावली जीवन की दिशाधारा को भटका देने का प्रधान कारण बनती देखी गई है। इसलिए इस मनःस्थिति की शास्त्रकारों ने तीव्र भर्त्सना की है। ‘नास्तिकता’ का मोटा अर्थ ईश्वर को न मानना समझा जाता है और किसी को ‘नास्तिक’ कहना इसकी सदाशयता पर लांछन लगाना समझा जाता है। विचारणीय है कि ईश्वर को मानने न मानने, से उसके अनुदानों में कोई अन्तर नहीं आता। फिर ‘नास्तिकता’ की इतनी तीव्र भर्त्सना क्यों की गई? इसकी तात्विक विवेचना से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर को न मानने से अभिप्राय वस्तुतः उसकी कर्मफल व्यवस्था के प्रति अनास्था रखना है। पूजा-पाठ करने और ईश्वर के गुणानुवाद गाने पर भी यदि कोई कर्मफल के क्रम को झुठलाता है तो भजन, पूजन करते रहने पर भी उसे नास्तिक ही कहा जाना चाहिए। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति ईश्वर की चर्चा नहीं करता किन्तु कर्मफल का अनुशासन सुनिश्चित मानकर अपनी गतिविधियों को सज्जनोचित रखे रहता है तो तात्विक दृष्टि से उसे आस्तिक कहने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए। ‘आस्ति’ और ‘नास्ति’ का मोटा अर्थ ईश्वर है, और नहीं है, यह समझा जाता है। यह उथला अर्थ है। सच्चा अर्थ है-कर्म व्यवस्था सुनिश्चित है या नहीं। आस्तिक वह है जो कर्मफल की अकाट्य ईश्वरीय व्यवस्था पर विश्वास करके अपना हित अनहित निश्चित करता है। ऐसा व्यक्ति बुराई से बचने वाला चरित्र-निष्ठ और उदार परमार्थ परायण समाज-निष्ठ ही हो सकता है। पाप से बचकर दुःखों से छूटने और पुण्य अपनाकर सुखी बनने का यही राजमार्ग है।


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