व्यक्तित्व को प्रखर और भविष्य को उज्ज्वल बनाने की साधना

July 1978

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आरोग्य शास्त्र की दो धाराएँ हैं (1) स्वास्थ्य संवर्धन (2) रोगोपचार। दोनों ही आवश्यक हैं। रोग का निवारण तो आवश्यक है ही यदि शरीर को अधिक बलिष्ठ सुन्दर और दीर्घजीवी न बनाया जा सका तो भी गई-गुजरी काया से काम चलाते भर रहने से क्या काम बने? कष्ट पीड़ित, अशक्त और दयनीय दुर्दशा में पड़ी हुई विपत्तिग्रस्त रुग्णावस्था से छुटकारा और समर्थ दीर्घजीवन प्राप्त करना दो ही उद्देश्य पूरे कर सकने में ही आरोग्य शास्त्र की सार्थकता है।

मानसोपचार में उन्माद अर्धविक्षिप्तता मूढ़ता जैसी विकृतियों का निवारण ही नहीं-मानसिक दक्षता का अभिवर्धन भी अंग है। अभिवर्धन और परिशोधन दोनों ही लाभ मनः संस्थान को दे सकने में ही समग्र मनोविज्ञान की पूर्णता है।

सरकार भीतरी तस्करों, दुष्ट दुरात्माओं का दमन करती है बाहरी शत्रुओं से जूझती है, साथ ही देश की समृद्धि एवं सुव्यवस्था बढ़ाने के लिए भी प्रयत्नशील रहती है। दोनों ही उसके कर्तव्य हैं।

ठीक इसी प्रकार अदृश्य शास्त्र का उत्तरदायित्व है कि वह मनुष्य के सामने प्रस्तुत अप्रत्याशित विपत्तियों से छुड़ाने और भविष्य का उज्ज्वल सम्भावनाओं का पथ प्रशस्त करने में अपनी भूमिका निवाहें। अदृश्य शास्त्र से तात्पर्य सूक्ष्म जगत को प्रभावित करने वाले विज्ञान से है। उपासना और तपश्चर्या उसके दोनों ही पक्ष हैं। अध्यात्म विद्या में योग और तप दोनों का ही समावेश है। योग अपनी सामर्थ्यों के साथ दैवी शक्तियों का सहयोग बनाकर अधिक सक्षमता प्राप्त करता है। तप का तात्पर्य अवांछनीयताओं को हटाना और दुर्बलताओं को निरस्त करना है। दोनों क्रिया-प्रक्रियाएँ मिलकर ही समग्र अदृश्य शास्त्र एवं अध्यात्म शास्त्र का निर्माण हुआ है।

प्रत्यक्षतः तो बातें मनुष्य के हाथ में दिखाई नहीं पड़ती किन्तु परोक्षतः होती उसी से सम्बन्धित हैं, उन्हें सूक्ष्म कहते हैं। स्थूल को आसानी से समझा जा सकता है और तदनुरूप उपाय भी किया जा सकता है। पर अदृष्ट के सम्बन्ध में मोटी बुद्धि कुछ काम नहीं करती। न निदान समझ में आता है और न उपचार करते बनता है। इस संदर्भ में सूक्ष्म विश्लेषण ब्रह्म विद्या का तत्वज्ञान ही कर पाता है। विपत्तियों के अदृष्ट कारणों को हटाना और उज्ज्वल सम्भावनाओं के लिए परोक्ष ताना-बाना बुनना भी उसी का काम है। यह क्रिया-प्रक्रिया परोक्ष विद्या अध्यात्म विद्या के अन्तर्गत ही आती है।

अध्यात्म के दो पक्ष हैं- एक ज्ञान, दूसरा विज्ञान। ज्ञान पक्ष में स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन की गणना होती है। विज्ञान पक्ष में उपासना और साधना का समावेश है। इन्हें योग और तप भी कह सकते हैं। योग धारा में मस्तिष्कीय क्षेत्र में होने वाले प्रयोगों की गणना है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के चिन्तन परक चारों ही उपचार योग है। तप में वे सभी क्रियाएँ आती हैं, उनमें अभ्यस्त अवांछनीयताओं के विरुद्ध विद्रोह किया जाता है और उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष किया जाता है। शरीर पर छाई हुई अनुपयुक्त आदतों और मन पर छाई गई मान्यताओं को उलटने में समझने समझाने की सामान्य पद्धति बहुत अधिक कारगर सिद्ध नहीं होती। बहुत बार ऐसा प्रतीत होता है कि मस्तिष्क तर्क तथ्य, प्रमाण सामने प्रस्तुत करने पर किसी बात को सिद्धान्ततः स्वीकार कर लेता है, पर भीतरी मान्यताओं एवं आदतों की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि उन्हें बदलना, उस सैद्धान्तिक सहमति से भी बन नहीं पड़ता। ऐसी दशा में तीखे उपाय और पैने प्रहार की उस गहराई तक पहुँचने और आवश्यक परिवर्तन कर सकने में समर्थ होते हैं। इन्हीं उपचारों की क्रिया-प्रक्रिया को तपश्चर्या कहते हैं।

योग और तप के दर्शन और व्यवहार का विवेचन एवं मार्ग-दर्शन प्रस्तुत करने वाले अनेक शास्त्र एवं व्यक्ति प्रायः उपलब्ध रहते हैं। इनमें कठिनाई एक ही रहती है कि देश, काल, पात्र का ध्यान रखा जाता है। प्राचीन काल की मनःस्थिति और परिस्थिति में आज भिन्नता है। उस भिन्नता को ध्यान में रखते हुए परम्परा और सामयिकता का समन्वय होना चाहिए। यही कौशल है।

आज के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक क्षेत्रों में छाये हुए शोक सन्तापों और विग्रहों को निरस्त करने के बहुत कुछ प्रयत्न हो रहे हैं। इतने पर भी एक क्षेत्र अछूता ही रह जाता है- वह है अदृष्ट। इसे आधि दैविक कहते हैं। इसी हलचलों और प्रतिक्रियाओं को भाग्य अथवा दैव कह कर सन्तोष करना पड़ता है। इसके निवारण का प्राचीन काल में एक व्यवस्थित शास्त्र था। आज उस व्यवस्था के स्थान पर अन्य क्षेत्रों की ही तरह विडम्बना की भरमार है।

इस क्षेत्र में अभिनव प्रयत्न ब्रह्मवर्चस् अभियान के अन्तर्गत चल रहे हैं। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का महान् प्रयास ही युग परिवर्तन है। इतना व्यापक और विस्तृत काम करने के लिए प्रचण्ड ऊर्जा की आवश्यकता है। उसे युग शक्ति कह सकते हैं। इसका उपार्जन करने से ही वातावरण का परिशोधन और सूक्ष्म जगत की अनुकूलता सम्भव हो सकती है। ब्रह्मवर्चस्, तत्वज्ञान और साधना विधान के पीछे यही प्रयास चल रहा है। इसे सामूहिक सम्भावनाओं को श्रेष्ठता की दिशा में घसीट ले चलने की महान प्रक्रिया कह सकते हैं। धरती पर स्वर्ग के अवतरण प्रयासों की दृष्टि से इसे अदृष्ट उपचार की संज्ञा दी सकती है।

व्यक्ति की कठिनाइयों के निराकरण और सुविधाओं के सम्वर्धन के अदृष्ट का उपयोग करने का विज्ञान और विधान भी ब्रह्मवर्चस् अभियान के अन्तर्गत चल रही साधना में समन्वित रखा गया है। यह प्रयास समय साध्य है। इसकी पूर्ण सफलता के लिए अनवरत और सतत प्रयत्न जिस श्रद्धा और तत्परता के साथ चलेंगे उसी अनुपात से सफलताओं का पथ-प्रशस्त होता चला जाएगा।

आरम्भिक प्रयोग, परीक्षण एवं अभ्यास की दृष्टि से इन दिनों ब्रह्मवर्चस् आरण्यक में एक-एक महीने की जो साधन पद्धति चल रही है उसमें चान्द्रायण व्रत की तपश्चर्या और पंचकोशी उच्चस्तरीय गायत्री उपासना का समन्वय किया गया है। चान्द्रायण व्रत को तपश्चर्या का और पंचकोषों के अनावरण और कुण्डलिनी जागरण को योग साधना का इसमें समान रूप से समावेश है। फलतः उससे परिशोधन और अभिवर्धन के दोनों ही उद्देश्य पूरे होते हैं। शरीर और मन को समर्थ सुव्यवस्थित रखने में परिस्थितियों को सुधारने में, प्रतिकूलता को अनुकूलता बनाने में, समग्र परिवर्तन परिष्कार में जो अदृश्य तथ्य काम करते हैं। उन सबका समुचित समावेश इस एक महीने के साधना क्रम में मौजूद है जो व्यक्तित्व को प्रखर और भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए आवश्यक हैं।

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