ब्रह्मवर्चस् साधना में ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्तियोग का समन्वय

July 1978

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पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच प्राणों की परिचायक हैं। पाँच कर्मेन्द्रियों पाँच तत्वों की। पाँच तत्व जड़ प्रकृति के अंग हैं। पदार्थ में हलचल है। कर्मेन्द्रियाँ हलचल प्रधान हैं। चेतना में चिन्तन, विवेक एवं रस सौन्दर्य है। यह विशेषतायें ज्ञानेन्द्रियों में विद्यमान हैं। ज्ञानेन्द्रियों में प्राण सत्ता और कर्मेन्द्रियों में तत्व क्षमता ही उभरती उछलती दृष्टिगोचर होती है। जब जड़ तत्व, चेतन प्राणों के साथ मिलते हैं, तब उनकी प्रतिक्रिया भी संयुक्त होती है। इस प्रतिक्रिया को तन्मात्रा कहते हैं। ‘शब्द’ अग्नि की रूप, जल की रस, पृथ्वी की गन्ध और वायु की स्पर्श है। इनका परिचय क्रमशः कान, नेत्र, जिह्वा, नाक और त्वचा से होता है।

साधना का उद्देश्य आत्म सत्ता को परिष्कृत करना है। जीव अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण से उत्पन्न हुआ पूर्ण ही होना चाहिए। ज्वाला और चिनगारी के आकार भर में अन्तर है। मूल क्षमता की दृष्टि से दोनों की स्थिति में कोई अन्तर नहीं। जीव, ब्रह्म का ही एक अंश है। अंश में अंशी के गुण बीज रूप में विद्यमान रहते हैं। शुक्राणु में पूर्ण पुरुष की और बीज में पूर्ण वृक्ष की सत्ता विद्यमान रहती है। विकसित होने का अवसर पाकर ही उनकी प्रसुप्ति जागती है और बीज का विस्तार होने लगता है। जीवात्मा साधारणतया शरीर निर्वाह के गोरख धन्धे में ही उलझा रहता है। वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति में ही उसकी प्रत्यक्ष क्षमता चुक जाती है। कोई ऐसा महत्वपूर्ण काम बन ही नहीं पाता जिसे विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण कहा जा सके। श्रेय और प्रजनन के कुचक्र में ही इस सुर-दुर्लभ सौभाग्य का अन्त हो जाता है। सृष्टि का सर्वोपरि उपहार जिस प्रयोजन के लिए मिला था। उसे पूरा करने को न इच्छा उठती है और न क्रिया बन पड़ती है। लोभ और मोह के कोल्हू में पिलते-पिलते जीवन रूपी गन्ने का रस निचुड़ जाता है और निरर्थक छिलका सृष्टा के दरवाजे पर जा पहुँचता है। उत्तर एक ही देना था कि उस बहुमूल्य अमानत का क्या हुआ? जो विश्व के अन्य किसी प्राणी को नहीं मिली थी। आत्मिक पूर्णता प्राप्त करना और सृष्टा के उद्यान को समुन्नत बनाना ही इस महान अनुदान का उद्देश्य था। वह नहीं बन पड़ा तो परमेश्वर के दरबार में पहुँचकर पश्चात्ताप के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं रहता। प्रायश्चित्त की प्रताड़ना ही चिरकाल तक सहन करनी पड़ती है। इस विडम्बना से बचना ही साधना की उद्देश्य हैं।

इसके लिए उपयुक्त बोध, साहस और कौशल प्राप्त करने के लिए विभिन्न अध्यात्म साधनायें की जाती हैं। प्रसुप्ति को जागृति में परिणत करने के लिए आत्म साधना का पुरुषार्थ किया जाता है। इस मार्ग पर चलते हुए जो सफलतायें मिलती हैं। उन्हें सिद्धियों के नाम से जाना जाता है। इन्हें अतीन्द्रिय क्षमता के नाम के जाना जाता है। सामर्थ्य का मूल्यांकन करने वाले इसे आत्मबल या ब्रह्मतेज कहते हैं। यह क्षमता के चमत्कारी क्रिया-कलाप भौतिक क्षेत्र में सम्पदायें, सफलतायें और आत्मिक क्षेत्र में सिद्धियाँ, विभूतियाँ कही जाती हैं। यह आत्मिक क्षेत्र का उत्पादन है। जागृत आत्माओं का पुरुषार्थ उसी क्षेत्र में होता है। सामान्य प्राणी जहाँ सुख-सुविधाओं की स्वल्प मात्रा भर उपार्जित कर पाते हैं, वहाँ अध्यात्म क्षेत्र का पुरुषार्थ महानता का गौरवास्पद प्रतिफल उत्पन्न करता है। उसके सहारे साधक को सन्तोष सम्मान और सहयोग का लाभ मिलता है। उपार्जित सामर्थ्य के बलबूते वह स्वयं पार होता है और अपनी नाव पर बिठाकर असंख्यों को पार करता है। मानव जीवन की सार्थकता इसी में है। इस सिद्धि को प्राप्त करने के लिए साधना मार्ग का अवलम्बन करना होता है।

साधना का प्रत्यक्ष पक्ष वह है जिसमें अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत किया जाता है। दृष्टिकोण में दूरदर्शी विवेकशीलता का समन्वय करने का तत्व दर्शन ब्रह्म विद्या के नाम से प्रख्यात है। स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन की साधना इसी प्रयोजन के लिए की जाती है। इसे ज्ञानयोग कहते हैं। अध्यात्म विवेचना के ग्रन्थ इसी निमित्त रचे गये हैं।

प्रत्यक्ष साधना का व्यवहार पक्ष है- क्रियाकलाप में आदर्शवादिता का समन्वय। चरित्र निष्ठा और समाज निष्ठा के अनेक क्रिया-कलाप इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए होते हैं। कषाय कल्मषों की निवृत्ति के लिए अपने कुसंस्कारों को निरस्त करने के लिए तपश्चर्या की नीति अपनानी पड़ती है और अन्तःक्षेत्र का कुसंस्कार विरोधी विद्रोह खड़ा करना पड़ता है। साथ ही निर्वाह से बचने वाली सामर्थ्य को परमार्थ प्रयोजनों में लगाना होता है। इसे सेवा धर्म कहते हैं। पीड़ा और पतन के निवारण में अपने भाव भरे अनुदान प्रस्तुत करने में चरित्र निष्ठा और समाजनिष्ठा के दोनों उद्देश्य पूरे होते हैं। प्रभु समर्पित जीवन की साधु और ब्राह्मण शाखाएँ इसी उद्देश्य को पूरा करने को प्राणपण से जुटी रहती हैं। यह प्रत्यक्ष साधना का व्यवहार पक्ष हुआ। इसे नीति शास्त्र, धर्मशास्त्र, समाज शास्त्र के नाम से जाना जाता है। इस सारे क्षेत्र को कर्मयोग कह सकते हैं।

तीसरा योग है भक्तियोग, इससे कारण शरीर का परिष्कार होता है। स्थूल शरीर कर्मयोग से सूक्ष्म शरीर को सुसंस्कृत बनाने के लिए भक्तियोग का विधान है। भक्तियोग के अन्तर्गत वे विधि-विधान आते हैं, जिन्हें उपासना कहते हैं। उपासना क्षेत्र में वे सभी क्रिया-कलाप किये जाते हैं, जो जप, ध्यान आदि के पूजा पद्धतियों के रूप में अनेक परम्पराओं के अनुसार अनेक क्षेत्रों में अनेक क्रिया-प्रक्रियाओं के साथ प्रचलित देखे जाते हैं। इन दिनों साधना शब्द से अभिप्राय इसी क्षेत्र की गतिविधियों तक सीमित होता है। जबकि ज्ञानयोग और कर्म को प्राथमिकता मिलनी चाहिए थी और भक्तियोग को उच्चस्तरीय प्रयोजन समझते हुए उसे सीमित परिमाण में ही प्रयुक्त किया जाना चाहिए था।

ब्रह्मवर्चस् साधना में ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का सन्तुलित समन्वय है। आत्म-चिन्तन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास की चारों प्रक्रियाएँ किस प्रकार सम्पन्न की जानी चाहिए इसका कार्यक्रम साधन की स्थिति के अनुरूप बनाया जाता है। साधना के साथ-साथ स्वाध्याय, संयम और सेवा के तीन अवलम्बन भी अपनाये जाने चाहिए और उनकी अनिवार्य आवश्यकता को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह प्रत्येक साधक को विस्तारपूर्वक समझाया और करने को सुव्यवस्थित कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है। समग्र जीवन में उत्कृष्टता भर देने वाली रीति-नीति को ही आत्मोत्कर्ष की सफलता के लिए अनिवार्य बताकर उसका समुचित मार्ग-दर्शन किया जाता है।

भक्तियोग की साधना को उपासना एवं योग साधना का नाम दिया गया है। ब्रह्मवर्चस् साधना में चान्द्रायण तप के साथ इसी प्रयोजन के लिए पाँच प्रकार की उपासनाएँ कराई जाती हैं। (1) त्राटक (2) सूर्यवेधन (3) खेचरी (4) बंध मुद्रा (5) सोऽहम्। इनसे पाँच तत्वों का, पाँच प्राणों का, पाँच तन्मात्राओं का परिष्कार जागरण एवं उन्नयन सुनियोजित रीति से सम्पन्न होता है। सुव्यवस्थित साधना का सदा सत्परिणाम प्रस्तुत करना सुनिश्चित है।


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