पूर्व जन्म जनित पुराविदः कर्म दैवमिति संप्रचक्षते। सुखस्य दुःखस्य न कोपिदाता, परोददातीति कुबुद्धिरएषा।
स्वयं कृतं स्वेन फलेन पुज्यते शरीर हे! निस्तदयतत्वयाकृतम्॥ –गरुड़ पुराण
कर्मणैव हि रुदत्वं विष्णुत्वं च लमेन्नरः। -देवी भगवत नमस्तत कर्मेभ्यो विधिरपि नएभ्यप्रभवति। -भर्तृहरि
ब्रह्म भी जिस कर्म के अधीन है, उस कर्म को ही नमस्कार है। पहले जन्मों में किया हुआ अपना ही कर्म इस जन्म में प्रबल दैव बन जाता है और कहलाता है। सुख-दुःख देने वाला कोई दूसरा नहीं अपना किया कर्म ही अपने नैसर्गिक फल का पाता है। अपने कर्म से ही जीव को रुद्रत्व, विष्णुत्व आदि मिलता है। पूर्व जन्म का कर्म ही इस जन्म का दैव है।
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