प्रारब्ध न तो अन्धविश्वास है और न अकारण।

July 1978

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भाग्यवाद के प्रति विरोध और आक्रोश इसलिए उमड़ पड़ा कि उसके सहारे निहित स्वार्थों ने पाने-खाने के लिए ग्रह नक्षत्रों को बीच में डालकर अपना एक स्वतन्त्र व्यवसाय खड़ा कर लिया। अन्यथा वह एक स्वतन्त्र तत्व ज्ञान समझा जा सकता है और उसके प्रभाव का व्यक्ति के उत्थान-पतन में क्या स्थान रहता है इस पर विचार करते हुए वह उपाय खोजा जा सकता है कि अन्य विपत्तियों की तरह उससे भी किस प्रकार जूझा जाय-किस प्रकार कठिनाइयों को सरल करने के अन्य क्षेत्रों में चलने वाले प्रयत्नों की तरह इस दिशा में भी उपाय ढूँढ़ा जाय।

भाग्य के सम्बन्ध में कितनी ही लोकोक्तियाँ ऐसी प्रचलित हैं जो उसके ऊपर पड़े हुए पर्दे को अनायास ही उठा देती हैं। भाग्य को विधि का या विधाता का विधान कहा जाता है। इस लोकोक्ति वे शब्दार्थ पर विचार करने से भी तथ्य का आभास मिलता है। विधि कहते हैं-कानून को, विधान कहते हैं-व्यवस्था को। विधि का विधान अर्थात् कानून की व्यवस्था। विधान निर्माण कर्त्ता को कहते हैं। विधाता अर्थात् सृष्टा। सृष्टा अर्थात् परमेश्वर। परमेश्वर की व्यवस्था अर्थात् विधि का विधान। कानून का नियम कहा जाय अथवा परमेश्वर का-बात एक ही है। उसका तात्पर्य एक ही है-भाग्य अर्थात् वह प्रतिक्रिया जो किसी सुनिश्चित नियम प्रक्रिया पर आधारित है। इस निर्णय पर पहुँच जाने से वह भ्रम जंजाल सहज ही कट जाता है जो भाग्य व्यवसायियों ने ग्रह-नक्षत्रों की आड़ में रचकर खड़ा कर दिया है और जिसमें दुर्बल मनःस्थिति के लोगों को डराने और लाभ उठाने का कुचक्र चलाया जाता है। बेचारे ग्रह-नक्षत्रों को इस सामान्य सृष्टि व्यवस्था में घसीटना-उन्हें दोष या श्रेय देना सर्वथा निरर्थक है।

खगोल विद्या-अस्टोनोमी एक मान्य विज्ञान है। ग्रह-नक्षत्रों की गतिविधियों की जानकारी कितनी उपयोगी है, उसे विज्ञ समाज में भली प्रकार जाना माना गया है। इसकी खोज के लिए अन्तरिक्षीय और अन्तर्ग्रही खोज खबर लाने के लिए विज्ञान क्षेत्र में कितने महंगे और कितने प्रबल प्रयास किये जा रहे हैं, यह सर्वविदित है। उससे लाभ भी है। रेडियो, टेलीफोन, टेलीविजन जैसे प्रत्यक्ष और कितने ही परोक्ष लाभ खगोल विद्या की जानकारियों के आधार पर मिलते जा रहे हैं। इस विज्ञान की प्रतिष्ठा रही है और रहेगी। किन्तु खगोल विद्या-अस्टोनोमी को-जब फलित वर्णन के रूप में वर्णन किया जाने लगेगा और उससे नये किस्म की भ्रान्तियाँ फैलाकर स्वार्थ साधन का उपक्रम खड़ा किया जायगा तो बिना समाज में उसकी भर्त्सना होती ही रहेगी।

भविष्य कथन एक अतीन्द्रिय क्षमता है। परामनोविज्ञान के आधार पर उसका समर्थन हो रहा है। किन्तु यदि जन्म कुण्डलियों को भविष्य कथन के निमित्त एक नये जंजाल के रूप में खड़ा किया जायगा तो विज्ञ समाज में उसकी प्रतिक्रिया हुए बिना नहीं रह सकती। खगोल विज्ञान की तरह भाग्य विधान को भी विशुद्ध तत्व ज्ञान के रूप में लिया जाय तो उसका उपयोग भी व्यवहार शास्त्र-कर्म प्रतिफल-व्यवस्था विज्ञान की तरह ही उपयोगी हो सकता है। उसके सहारे विपत्तियों के निराकरण और सुविधाओं के संवर्धन में भारी योगदान मिल सकता है।

जान-बूझकर किये गये या अनजान में बन पड़े काम अपनी भली-बुरी प्रतिक्रिया उत्पन्न किये बिना नहीं रहते। इतने पर भी जो बन पड़ा है उसकी प्रतिक्रिया में सुधार संशोधन करने के लिए कुछ तो किया ही जाता है। आहार-विहार सम्बन्धी व्यतिक्रम से रोग उत्पन्न होते हैं। यह सभी जानते हैं पर भूल हो चुकने के उपरान्त जब बीमारी का कष्ट सिर पर आ धमकता तो चुपचाप बैठकर सहन करते रहना भी तो नहीं बनता। उपचार किया जाता है और उससे पूरा-अधूरा कुछ तो लाभ मिलता ही है। इसी प्रकार प्रस्तुत कर्मफल के कष्टों को सरल बनाने और जो अभी तक परिणाम नहीं दे सके हैं उनकी अशुभ सम्भावनाओं से निपटने के लिए पूर्व प्रयास किये जा सकते हैं। इन प्रयासों को शास्त्रकारों ने प्रायश्चित्त नाम दिया है।

कर्म फल की निश्चिंतता का सिद्धान्त अकाट्य है। यदि यह अनिश्चित रहा होता तो संसार की व्यवस्था बिगड़ती और अराजकता फैल जाती। भगवान ने यह संसार बनाया है, पर उसे सुसंचालित और सुव्यवस्थित रखने के लिए जड़ और चेतन के लिए विधान भी बनाया है। पदार्थ सम्बन्धी हलचलों के विधान को-साइंस कहते हैं। प्राणि जगत में विचारणा और क्रिया-प्रक्रिया को सुनियोजित रखे रहने के लिए कर्म विधान का सृजन हुआ है। पदार्थों के सम्बन्ध में काम करने वाले प्रकृति नियम सुनिश्चित हैं। उन्हें बदला नहीं जा सकता है। प्रकृति के अन्य नियमों के अनुसार पदार्थ को सामान्य गतिविधियों को असामान्य बनाया जा सकता है। ईंधन पाकर आग भड़कती है यह सामान्य नियम है। इस ज्वलन प्रक्रिया में ऑक्सीजन का कितना योगदान रहता है यह अप्रत्यक्ष रहने से सर्वसाधारण को विदित नहीं रहता। जब आग तक ऑक्सीजन पहुँचने का अवरोध खड़ा करके अर्थात् कार्बन ऑक्साइड गैस को उड़ेलकर जलती आग बुझा दी जाती है तो आश्चर्य होता है कि आग और ईंधन होते हुए भी यह पटाक्षेप कैसे हो गया उसी प्रकार कर्मफल की सुनिश्चित और अकाट्य व्यवस्था होते हुए भी यह गुंजाइश रहती है कि जो कर्म हो चुका और जिसके परिणाम सामने आ रहे हैं या आने वाले हैं उनमें रोकथाम कैसे की जाय? वर्षा यथा समय होती ही है उसे रोका नहीं जा सकता, पर छाता लगाने से शरीर की और छत बनाने से घर में रखे सामान की सुरक्षा तो हो ही जाती है।

भगवान ने संसार बनाया, साथ ही विज्ञान और विधान की व्यवस्था भी रच दी। चेतन जगत के लिए कर्म व्यवस्था ऐसी बनाई गई जो भगवान की तरह ही सुनिश्चित है। भगवान ने स्वयं अपने आपको उस व्यवस्था बन्धन में जकड़ लिया है और सर्वसाधारण के सम्मुख यह उदाहरण प्रस्तुत किया है कि उस कर्म व्यवस्था को तोड़ सकना सर्वशक्ति मान होते हुए भी उनके लिए उचित अथवा सम्भव नहीं है। भगवान ने राम के रूप में छिपकर बालि को मारा-युद्ध नीति के अनुसार-छिपकर मारना निषिद्ध है। निषिद्ध कर्म का प्रतिफल उस समय तो नहीं मिला, पर जब अगली बार राम ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया तो बालि ने बहेलिया बनकर उसी तरह छिपकर वैसा ही बाण चलाया और कृष्ण को भी बालि की तरह ही प्राण त्यागने पड़े। राम के पिता को पुत्र शोक में बिलख कर मरने का ऋषि शाप लगा था। दशरथ जी के बाण से श्रवणकुमार की मृत्यु हुई थी। मरते समय उन्होंने आक्रमणकारी को पुत्र शोक में बिलखकर मरने का शाप दिया। सच ही हुआ। दशरथ जी की मृत्यु उसी प्रकार हुई। भगवान राम उस शाप को निरस्त करने में समर्थ नहीं हुए। कृष्ण को उनकी बहिन सुभद्रा ने उलाहना दिया था कि उनके भगवान होते हुए उसके पुत्र अभिमन्यु की प्राण रक्षा नहीं की। कृष्ण ने विस्तार पूर्व सुभद्रा का समाधान किया था और बताया था कि वे भगवान होते हुए भी कर्म फल मिटाने में असमर्थ हैं। ऐसे-ऐसे अनेक पौराणिक-ऐतिहासिक एवं आधुनिक प्रसंगों से स्पष्ट होता है कि इस संसार में कर्म व्यवस्था का, उसकी सुनिश्चितता का कितना स्थायित्व और कितना महत्व है।

जो लोग साधारण क्षमा प्रार्थना, स्रोत-पाठ, कथा-कीर्तन, स्नान-दर्शन जैसे छुटपुट कर्मकाण्डों के सहारे कर्मफल के विधान को झुठला देने की बात सोचते हैं वे भूल करते हैं। इतने सस्ते में यदि यह विधि-व्यवस्था उलट जाया करे तो फिर उसे उपहासास्पद ही माना जायगा। इतनी सस्ती तरकीब भिड़ाकर तो कोई भी दुष्कर्मों के दण्ड से बच जाया करेगा और निर्भयतापूर्वक अपनी दुष्वृत्तियों को दुहराया करेगा। भाग्य विधान को सुनिश्चितता के साथ-साथ ईश्वरीय व्यवस्था के उच्च नियमों के आधार पर उनमें परिवर्तन तो हो सकता है, पर वह परिवर्तनकारी उपक्रम भी इतने सरल और सस्ते नहीं हो सकते जैसे कि आज धर्मोपदेशकों द्वारा बताये जाते हैं। तनिक-तनिक से कर्मकाण्डों से एक नहीं सैकड़ों जन्मों के पाप दूर होने के महत्व आये दिन सुने जाते हैं। गंगा स्नान से लेकर सत्यनारायण कथा सुनने तक की सरल प्रक्रिया मात्र से सैकड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाने की जन श्रुतियाँ आये दिन सुनने को मिलती हैं। परिशोधन विधान को इतना सस्ता कर देने से तो उसका मखौल ही बन जायगा। परलोक पुनर्जन्म में कठोर कर्मफल मिलने तक की बात का भी मजाक हो जायगा। सम्भव है उन कर्मकाण्डों का महत्व बढ़ाने के लिए पा नाश होने की बात कही गई हो, पर कहने वालों ने यह तो भुला ही दिया कि इसमें पाप दण्ड का भय ही समाप्त हो जायगा और जीवन में धर्म धारणा के महत्व को समझाने के स्थान पर उलटे उपेक्षा होने लगेगी और अधर्म पनपेगा। जो हो यह मान्यता किसी भी कसौटी पर सही नहीं बैठती कि छुटपुट कर्मकाण्डों से ही बड़े-बड़े पापों का दण्ड भुगतने से छूट मिल जायगी। अधिक से अधिक इतना कहा जा सकता है कि पाप प्रवृत्ति में परिशोधन होगा। पाप न करने की आस्था जगेगी। इतने भर को पाप निवृत्ति कहा जाय तो उसे सारगर्भित कहा जा सकता है। पाप में प्रवृत्ति से छुटपुट पूजा-पत्री द्वारा भी छुटकारा पाने की बात समझ में आ सकती है, पर पाप दण्ड से बच निकलने के लिए सस्ते धर्मोपचारों की असाधारण महिमा बताया जाना न केवल अत्युक्ति है वरन् उसके पीछे धर्माचरण की उपेक्षा का भी परोक्ष प्रतिपादन है। अत्युक्ति भले ही सदुद्देश्य से की गई हो अन्ततः उसकी प्रतिक्रिया अवांछनीय ही होती है।

दुष्कर्मों के संग्रहीत प्रतिफल को, प्रारब्ध एवं भाग्य विधान को सुधारने और सरल बनाने के लिए भारतीय धर्म शास्त्रों में एकमात्र विधान प्रायश्चित्त का ही है। प्रायश्चित्त का एक सुविस्तृत तत्वज्ञान और सुनिश्चित विधि-विधान है। यों सस्तेपन की बचकानी घुस-पैठ ने इस क्षेत्र को भी अछूता नहीं छोड़ा है और प्राचीन विधि-विधानों को ओछी और बचकानी नकलें बनाकर उस महान प्रयोजन को भी उपहासास्पद ही बना दिया गया है। वस्तुतः प्रायश्चित्त विधान का वजन किये गये पाप कर्मों के फलस्वरूप मिलने वाले दण्ड के समतुल्य ही जा पहुँचता। अन्तर थोड़ा-सा ही रह जाता है। किसी की चोरी करने पर पुलिस और अदालत द्वारा कठोर जेल दण्ड भुगतना पड़ता है या अपनी भूल स्वयं समझकर जिसकी चोरी की है उसके सामने दुखी होने और जितना सम्भव है उतना लौटा देने से अपेक्षाकृत कम कष्ट सहने में काम चल जाता है। यही बात प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में भी है। भूल स्वीकार करने, किये का पश्चाताप करने और भविष्य में वैसा न करने की भावभरी मनःस्थिति में अपराधी मनोवृत्ति का परिवर्तन का चिह्न है। यह चिह्न ही पाप दण्ड को हलका करने का प्रधान आधार होता है। उसके उपरान्त क्षति-पूर्ति का प्रश्न सामने आता है। जो हानि पहुँचाई गई है। अनाचरण से अन्तःकरण को कलुषित और वातावरण को दूषित करने का सदाचार बन पड़ा है। उसकी क्षति पूर्ति दो प्रकार से हो सकती है एक तो अनाचार का जितना गहरा गड्ढा खोदा गया है उसे पाटा जाय अर्थात् क्षति पूर्ति कर सकना वर्तमान परिस्थितियों में जितना कुछ सम्भव रह गया है उसे पूरा किया जाय। उसके अतिरिक्त अन्तःकरण पर उन कुकर्मों के जो कुसंस्कार जमे हों उन्हें कुछ नये पुण्य कर्म करके सुसंस्कारों की नई स्थापना की जाय। जिनका श्रेष्ठ प्रभाव नये सिरे से अन्तःकरण पर जमे और मलीनता की संचित परतों को हटा सकने में समर्थ बन सके। इसी नीति को अपनाने में समाज की पहुँचाई गई क्षति पूर्ति भी सम्भव हो सकती है।

इन्हीं सब तत्वों का सम्मिश्रण प्रायश्चित्त विधान है। उसमें वे सिद्धान्त बीज रूप से मौजूद हैं जो अशुभ भाग्य विधान को काट सकने में, अन्धकारमय भविष्य की विभीषिका को निरस्त करने में समर्थ हो सकते हैं। अपराधकर्त्ता की इसी में शालीनता, सज्जनता और साहसिकता भी है। जिस दुस्साहस से प्रेरित होकर कुकर्म किये थे। उसी स्तर का सत्साहस जुटाने वाला हो अपने संचित दुष्प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह करते और उसके उन्मूलन में जुट जाने का सत्साहस कर सकता है। उस साहस में वीरता और शालीनता के चिन्ह हैं। इसलिए उसका परिणाम परिवर्तनकारी, सुधार परायण एवं मंगलमय सिद्ध होता है तो यह उचित ही है।

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