शरीर जैः कर्म दोषैर्द्याति स्थावरतां नरः। वाचिकैः पक्षि मृगतां मानसै रन्य जातिताम्॥
इह दुश्चरितैः केचित्केचित् पूर्व कृतैस्तिथा। प्राप्नुवन्ति दुरात्मानों नरा रूपं विपर्ययम्॥
-मनु0
शारीरिक पाप कर्मों से जड़ योनियों में जन्म होता है। वाणी पाप से पशु-पक्षी बनना पड़ता है। मानसिक दोष करने वाले मनुष्य योनि से बहिष्कृत हो जाते हैं। इस जन्म के अथवा पूर्व जन्म के किये हुए पापों से मनुष्य अपनी स्वाभाविकता खोकर विद्रूप बनते हैं।
----***----