आकस्मिक विपत्तियों और दुर्घटनाओं की परोक्ष पृष्ठभूमि

July 1978

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कितनी ही बार मनुष्य के सामने आकस्मिक विपत्तियों और दुर्घटनाओं का एक ऐसा कुचक्र सामने आ खड़ा होता है कि उनने जूझने वाला यह नहीं समझ पाता कि आखिर संकटों के बरसने का कारण क्या हो सकता है? अपनी कोई तात्कालिक भूल ऐसी दिखाई नहीं पड़ती जिसके फलस्वरूप वह विपत्ति सिर पर टूटती। व्यक्तियों द्वारा पहुँचाई गई हानि को शत्रुता कहा जा सकता है और शत्रु को नरम करने के लिए ठण्डा या गरम उपाय बरता जा सकता है। पर जिस संकट में प्रत्यक्षतः किसी व्यक्ति का हाथ नहीं दीखता उसके लिए निमित्त का क्या अनुमान लगाया जाय?

ईश्वर का अव्यवस्था नियम विधान में अन्धेरगर्दी न कहते बन पड़े तो फिर दूसरा विकल्प देवी-देवताओं का ग्रह नक्षत्रों का प्रकोप सूझता है। संयोगवश उसकी पूरी शतरंज बिछाकर बैठे हुए ऐसे एजेन्ट भी मिल जाते हैं जो आकस्मिक विपत्तियों को भूत-पलीतों, देवी-देवताओं, ग्रह-नक्षत्रों का प्रकोप बताकर उनसे सन्धि समझौता करा देने की फीस वसूल करते हैं और अपने को उन अदृश्य सत्ताओं का प्रतिनिधि बताते है। यह सब करते हुए भी वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाते कि उन अदृश्य शक्तियों ने ऐसा निर्मम आक्रमण आखिर किया क्यों? उनका जब कुछ बिगड़ा ही नहीं गया था तो उन्हें मनुष्य की तुलना में अच्छी स्थिति प्राप्त कर लेने पर भी ऐसी निर्दयता का व्यवहार अकारण ही क्यों करना चाहिए था?

शंकाशील मन और भी ऐसे ही बैठे-ठाले अन्य विसंगतियाँ सोचता रहता है। अमुक्त ने उनके ऊपर जादू मन्त्र चला दिया है। तन्त्र क्रिया कर दी है। ऐसे लोक तांत्रिकों डाकिनों की करतूत की आशंका करते हैं। प्रश्न यहाँ भी यही उठता है जब हमने उनकी कोई हानि नहीं की तो फिर वे हमें क्यों त्रास देते है। पूजा उपासना करने वाले, तन्त्र-मन्त्र जानने वाले को आखिर इतना विचारशील तो होता ही चाहिए किसी को अकारण क्षति न पहुँचाये। गाड़ी यहाँ अटक जाती है तो दूसरा अनुमान लगाते हैं। किसी ने लोभ देकर उनसे ऐसा कराया होगा वे डराकर कुछ प्राप्त करना चाहते होंगे। दुर्भाग्य जैसी आकस्मिक दुर्घटनाओं के सम्बन्ध में प्रायः इसी स्तर के अनुमान लगाये जाते रहते हैं। इतने पर भी तथ्यतः निरर्थक होने के कारण उनसे किसी का वास्तविक समाधान नहीं होता। निदान के लिए इन कुकल्पनाओं का सहारा लेने पर भी असमंजस बना ही रहता है। आधे-अधूरे मन से ऐसी विसंगतियाँ बिठाने पर भी चित्त का वास्तविक समाधान होता नहीं। औंधे सीधे अनुमान सदा संदेहास्पद ही बने रहते हैं।

अप्रत्याशित ओर आकस्मिक दुर्घटनाओं के पीछे प्रायः संचित कर्मों का, सामयिक प्रतिक्रिया का यकायक बरस पड़ना ही कारण होता है। जलाशय से भाप उठती है। सघन होकर बादल बनती है, बादल हवा के साथ इधर-उधर भ्रमण करते रहते हैं। जब वे भारी होकर घटा बनते हैं और परिस्थितियाँ उन्हें नीचे उतरने के लिए विवश करती हैं तो भूमि के समीप आकर बरसना आरम्भ कर देते है। भाप उठने के स्थान और समय की बरसने के स्थान और समय के साथ तुलना की जाय तो दोनों के बीच बहुत दूरी और विसंगति दीखती है। फिर भी जानकारों को यह स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं होती कि एक समय का भाप उठाना ही दूसरे समय का घटा बरसना है। मनुष्य के प्रारब्ध कर्म अपने परिपाक का समय बीतने पर जब विपत्ति के रूप में बरसते है तो उनको दुर्भाग्य या दुर्घटना का नाम दिया जाता है। मनुष्य कृत पहुंचाई गई हानि की तो शत्रुता, आक्रमण, अत्याचार, प्रतिशोध आदि कहा जा सकता है, पर जिसमें किसी का हाथ नहीं है जो विपत्तियाँ अप्रत्याशित रूप से बरसीं, उन्हें सृष्टा की अव्यवस्था न मानना हो तो फिर सुनिश्चित और समाधान कारक उत्तर एक ही हो सकता है। संचित प्रारब्ध कर्मों की प्रतिक्रिया। इसी का प्राचीन ऋषि प्रणीत नाम भाग्य प्रारब्ध कर्म परिपाक आदि है।

तत्काल कर्मफल न मिलने पर भी किसी को यह अनुमान नहीं लगा लेना चाहिए कि परिपाक की अवधि पूरी होने पर इसी प्रकार बिना दण्ड पाये, छुट्टल घूमते रहने का अवसर मिलता रहेगा। अनेक को जन्म से ही अन्धे, अपंग स्थिति में जन्म लेते देखा जाता है। कई मानसिक दृष्टि से अविकसित और विपन्न परिस्थितियों में जकड़े होते हैं। इनमें उनका सामयिक दोष कुछ भी नहीं होता। इसी प्रकार कितने ही कला-कौशल बुद्धि चातुर्य, प्रतिभा, सुन्दरता, उत्तराधिकार जन्य सुविधा आदि की विशेषताएँ जन्म से ही लेकर आते है। इसमें उनके अभिभावकों अथवा परिस्थितियों का श्रेय सहयोग नहीं वरन् दैवी अनुग्रह ही काम कर रहा होता है। यह दैवी अनुग्रह और कुछ नहीं मनुष्य के संचित शुभ-अशुभ कर्म ही होते है। दैवी अनुग्रह शब्द का उपयोग करते समय इस स्थान पर प्रारब्ध हो ही प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए और उसे ही श्रेय मिलना चाहिए। दुर्भाग्य के दैवी प्रकोप को भी अशुभ प्रारब्ध का परिपाक कहना ही उचित है। देवता स्वेच्छाकार नहीं बरत सकते। अकारण कोप परितोष करना उनकी सामर्थ्य में ही नहीं है। सृष्टा वे सुनियोजित विविध व्यवस्था में जब अपने आप तक को कड़े बन्धनों में बाँध कर रखा है तो वह मनुष्यों से लेकर देवताओं तक को अकारण स्वेच्छाकार बरतते रहने की छूट नहीं दे सकता है। देवता भी इस विश्व व्यवस्था का उल्लंघन नहीं कर सकते। आकस्मिक दुर्घटनाओं, विपत्तियों और संकटों के पीछे और कोई नहीं मात्र मनुष्य के अपने कृत कर्म ही काम कर रहे होते हैं। भाग्योदय के सम्बन्ध में भी यही बात है। आकस्मिक उपलब्धियाँ और सफलताएँ वे कहलाती है जो बिना पर्याप्त पुरुषार्थ किये सहज ही अपनी ओर बढ़ती चली जाती हैं जबकि प्रबल पुरुषार्थ करने वाले भी अभीष्ट सफलता प्राप्त कर नहीं पाते तब कितने ही व्यक्ति आशातीत उपलब्धियाँ नाम मात्र के प्रयत्न से ही प्राप्त कर लेते हैं। तब इस अप्रत्याशित को संचित प्रारब्ध के अतिरिक्त और नाम नहीं दिया सकता। अन्य कारण ढूँढ़ना हो तो अव्यवस्था और नास्तिकता ही विकल्प रह जाता है।

प्रारब्धवश जो संकट आ गये- जिनके आने की आशंका या सम्भावना है, उनका पूर्व निराकरण करने के लिए उसी स्तर की रोकथाम की जा सकती है। उस उपचार प्रक्रिया में तपश्चर्या ही एक मात्र उपाय है। तपश्चर्याओं में सरलता और प्रमुखता चान्द्रायण साधना का दी गई है। यह एक प्रबल पुरुषार्थ है जिसकी गर्मी से कुसंस्कारों को जलाना और बीज रूप में विद्यमान सुसंस्कारों को विकसित कर सकना सम्भव हो सकता है। चान्द्रायण किसी की मनुहार नहीं है और उसके सहारे किसी देवता को प्रसन्न करके सस्ते मोल में बड़े वरदान पाने की विडम्बना है। इसे विशुद्ध विज्ञान सम्मत प्रयास पुरुषार्थ कहा जा सकता है और यह आशा की जा सकती है कि उससे प्रारब्ध विधान में आवश्यक उलट पुलट किया जा सकना सम्भव है। जब गोली लगे घायलों की जान बचाई जा सकती है और कुरूपों की प्लास्टिक सर्जरी करके उनके अवयवों को सुन्दर बनाया जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि विधि के विधान को- सृष्टि के उच्चस्तरीय सिद्धान्तों को अपनाकर उनमें आवश्यक हेर फेर न किया जा सके। इससे कर्मफल के सिद्धान्त को काटने जैसी कोई बात नहीं है। आगत और अनागत विपत्तियों से जूझने का- उनका समाधान और निराकरण करने के लिए मनुष्य को सत्साहस मिला है। तलवार की मारक शक्ति सर्वविदित है, पर उससे आत्म-रक्षा करने के लिए ढाल का भी आविष्कार हुआ है। कर्म विधान को, प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलने के लिए चान्द्रायण जैसी तपश्चर्याओं का आदेश शास्त्रकारों ने दिया है और वे तथ्य एवं अनुभव पर आधारित हैं।

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