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पिछले दिनों एकांगी अध्यात्म अपनाया गया और आर्ष संस्कृति के उन मूल सिद्धान्तों को भुला दिया गया जिसमें नीति के परिपोषण और अनीति के विरुद्ध प्रचण्ड संघर्ष करने की बात को समान रूप से महत्व दिया गया है और उन दोनों को समान प्रगति के दो अविच्छिन्न रथ चक्र बताया गया है। सज्जनता के उदार पथ भर को देखना और दुष्टता की भयंकरता से आँखें मीच लेना न तो अध्यात्म है और न धर्म । एकांगी चिन्तन अपूर्ण ही नहीं अनुपयुक्त भी है। मध्यकाल में अहिंसा के प्रतिपादन में कुछ सम्प्रदायों ने अतिवाद बरता। किसी से भी बैर न करना−किसी से भी न लड़ना−हर किसी को क्षमा करने जैसी एक पक्षीय मान्यता पनपी तो सज्जनता का पक्ष अति दुर्बल हो गया और दुष्टता को आतंकवादी अनाचार को निर्वाध रूप से बरतते रहने की खुली छूट मिली और सामाजिक अधःपतन सामने आया।
प्राचीन काल में प्रबुद्ध वर्ग को ब्राह्म और क्षात्र दोनों का साथ−साथ निर्वाह करना पड़ता था। परशुराम, विश्वामित्र, द्रोणाचार्य आदि सभी ऋषियों के क्रिया−कलाप में धर्म के दोनों ही पक्ष समान रूप से प्रयुक्त होते रहे हैं। पीछे सुविधा की दृष्टि से इन दो कार्यों के लिए दो पृथक−पृथक वर्ग बना दिये गये । उदार पक्ष ज्ञान पथ का विस्तार करने वाले ब्राह्मण और अनीति से जूझने वाले क्षत्रिय कहलाने लगे। इसमें अपेक्षाकृत सुविधा भी रही। दोनों वर्ग अपने−अपने उत्तरदायित्वों में अधिक तन्मयता तथा तत्परतापूर्वक संलग्न हुए और प्रवीणता प्राप्त करने−पारंगत बनने में सफल रहे। फिर भी माना यही जाता रहा कि एक ही धर्म की यह दोनों धारायें परस्पर पूर्णतया संयुक्त है। एक शरीर के दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो कान, दो नथुने, दो फेफड़े, दो गुर्दे आदि होते हैं, ठीक उसी तरह धर्म शरीर में ब्राह्म−उदारता और क्षात्र−प्रताड़ना दोनों का समान महत्व है। एक दूसरे की अपूर्णता दूर होती है। बिजली के तारों की तरह उनके समन्वय से प्रखरता की शक्ति धारा प्रवाहित होती है।
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