समता और एकता अपनाएँ

February 1978

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समस्त मनुष्य जाति एक ही पिता की सन्तान है। सभी की माता धरती है। सभी परस्पर स्वजन और कुटुम्बी है। इस कौटुम्बिक एकता को बनाये रहने में ही मनुष्यता है। विभेद ही जितनी दीवारें खड़ी की जायेंगी और विभिन्न आधारों पर पृथकता के जितने अवरोध खड़े किये जायेंगे उनसे तात्कालिक कोई वर्ग स्वार्थ भले ही सिद्ध होते हों−अन्ततः उनसे विनाश ही उत्पन्न होगा।

कौटुम्बिकता की आधारशिला एकता और समता के सिद्धान्तों को अपनाने से ही जा सकती है। आत्मवत् सर्वभूतेषु और वसुधैव कुटुम्बकम् के महान आदर्शों को स्वीकार करने पर ही सर्वतोमुखी मानवी प्रगति का पथ−प्रशस्त हो सकता है। उज्ज्वल भविष्य की आशा तभी की जा सकती है, जबकि हम विषमता को मिटाकर समता का और विलगता को हटाकर एकता का वातावरण उत्पन्न करने के लिए कटिबद्ध हों। जाति, लिंग, धन क्षेत्र, भाषा, देश, धर्म, संस्कृति आदि के आधार पर चल रहे वर्तमान विलगावों को हटाने और सर्वतोमुखी समता, एकता के आधार खड़े करने पर ही सर्वनाशी उलझनों का समाधान सम्भव हो सकेगा।

विवेक की माँग और समय की पुकार यही है कि हर क्षेत्र में भावनात्मक एकता और व्यावहारिक समता की सार्वभौम एकता के लिए प्रबल प्रयत्न किये जायें। इसके बिना मनुष्य की वैयक्तिक और प्रकृति की भौतिक शक्तियों का सदुपयोग बन ही नहीं पड़ेगा। फलतः जो भी उपलब्धियाँ हस्तगत होंगी वे क्षणिक सुख देती दिखाई पड़ने पर ही अन्ततः विपत्तियाँ और समस्याएँ ही खड़ी करती चली जायेंगी।

भारतीय परम्परा सार्वभौम सर्वजनीन एकता एवं समता की समर्थक रही है। साम्यवाद समाजवाद के नवीन प्रतिपादन उसी आध्यात्मिक प्रतिपादन का एक अंग है जिसे ऋषियों ने सदा से मानवी नीति निष्ठा में सम्मिलित रखा है। कहा गया है−

जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथिवी यथौकसम्। सहस्त्रं धारा द्रविणस्य में दुहाँ ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती॥ अथर्व 12 का॰ 1 सू॰ 45 म॰

यह पृथ्वी माता विविध भाषा भाषी, विविध धर्मावलम्बी, मनुष्यों को एक घर में रहने वाले कुटुम्बियों की तरह धारण करती है। वह बिना झुंझलाये सबका शान्त गौ की तरह पोषण करती है।

“पृथिव्यै समुद्रपर्यन्ताया एकतद्।”

−श्रुति

समुद्र पर्यन्त जितनी सब पृथ्वी है। उस सम्पूर्ण भूभाग का एक ही आर्य राजा हो।

ये समानां समनसो जीवा जीवेषु मामकाः। येषां श्रीर्मयि कल्पता मस्म लोके शतं समाः॥

मुझे अन्य सबमें वे ही प्रिय हैं जो सब में साम्य भाव रखते हैं। उन्हीं की सम्पदा स्थिर रहती है और सुखी रहते हैं।

सहृदयं सामनस्य मविद्वेषं कृणोमि बः। अन्यो अन्वमभि हर्यत वत्सं जातमिताध्न्यो॥

-अथर्व 3।30।1

तुम सबके हृदय में समता हो। मन समान हो। कोई किसी से द्वेष न करे। परस्पर ऐसा प्यार करो जैसा गाय और बछड़े के बीच होता है।

अज्येष्टासो अकनिष्टास एते सं भ्रातरो वादृधुः सौभगाय। युवा पिता स्वपा रुद्रं एषां सुदुघा पृश्निः सुदिना रुद्भ्यः॥

ऋ॰ 5।60।5

जिनमें कोई बड़ा नहीं है और जिनमें कोई छोटा नहीं है ऐसे ये सब भाई एक हैं । ये उत्तम ऐश्वर्य के लिए मिलकर उन्नति का प्रयत्न करते हैं। इन सबका तरुण पिता उत्तम कर्म करने वाला ईश्वर है इनके लिए उत्तम प्रकार का दूध देने वाली माता प्रकृति है, यह प्रकृति माता न रोने वाले जीवों के लिए उत्तम दिन प्रदान करती है।

समानोः मन्त्रः समिति समानी समानमनः सह−चित्तमोषांम्। समानं मन्त्रमभि मन्त्र येवः समानेन वो हविषा जुहामि।

तुम्हारे मन्त्र समान हों, तुम्हारी समिति समान हो तुम्हारे मन तथा चित्त एक से हो मैं तुमको समान मन्त्र में मन्त्रित करता हूँ और तुमसे समान हवि द्वारा हवन कराता हूँ।

समानी वः आकूर्ति समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥

तुम्हारा अभिप्राय एक हो, तुम्हारे हृदय एक हो तुम्हारा मन एक हो जिससे पूर्णरूप से संगठन हो।

समानी प्रया सहवोन्नभागः समानेयोम्भे सहवो युनजि। सम्यंचोऽग्निं सपयंतारा नाभिमिवामितः॥

तुम्हारी जलशाला एक हो और तुम्हारा अन्न का भाग−साथ−साथ हो, मैं तुम्हें एक ही जोते में साथ−साथ जोड़ता हूँ तुम मिलकर चलते हुए मुझ ज्योतिस्वरूप को इस प्रकार पूजो जैसे पहिये के दण्ड नाभि में चारों ओर से सटे रहते हैं।

सं गच्छध्वं वदध्वं सं वो मनांसिजानताम्। देवोभागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते॥

हे मनुष्यों तुम सब मिलकर चलो, मिलकर बातचीत करो, तुम्हारे मन एकसा विचार करें, जैसे पहले विद्वान् सम्यक् जानते हुए अपने धर्म का पालन करते थे वैसा तुम भी करो।

दृते दृहंमा मित्रस्य, चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षत्ताम्। मित्रस्याऽहं चक्षषां−सर्वाणि भूतानि समीक्षे, मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे॥

यजुर्वेद 36।18

हे अविद्या अन्धकार के विनाशक परमात्मन् मुझको ऐसा दृढ़ कीजिये कि समस्त प्राणी मुझको मित्र की दृष्टि से देखें, मैं भी सब प्राणियों को मित्र ही की दृष्टि से देखूँ इस प्रकार हम सब मनुष्य एक दूसरे को मित्र की दृष्टि से देखते रहें।

इहैत तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। निर्दोष हि समं ब्रह्म तस्माद ब्रह्मणि ते स्थिताः॥

जिनका मन इस समतावाद में सुस्थिर हो गया उन्होंने जन्म−मरण की परम्परा रूप सृष्टि पर विजय प्राप्त कर ली, अर्थात् वे जीवन्मुक्त हो गये, क्योंकि उन्होंने दोषरहित ब्रह्म को ही सर्वत्र समरूप में अपनाया।

ज्यायस्वन्ताश्चेत्तिनो मा वि यौष्ठ, संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः। अन्योन्यस्मै बल्गु वदन्तो यात, समग्रास्थ सध्रोचीनाम्॥

श्रेष्ठता प्राप्त करते हुए सब लोग हृदय से एक साथ मिलकर रहो, कभी विलग न होओ। एक दूसरे को प्रसन्न रखकर एक साथ मिलकर भारी बोझ को खींच ले चलो। परस्पर मृदु भाषण करते हुए चलो और अपने अनुरक्त जनों से सदा मिले हुए रहो।

सध्रीचनान्वः समनसः कृणोम्यो। कृश्नुष्टेन् संवनेन सहृदः॥ देवा इवेदमृतं रक्षमाणाः। सायं प्रातः सुसमितिर्वो अस्तु॥

समान गति वाले आप सबको सममनस्क बनाता हूँ, जिससे आप पारस्परिक प्रेम से समान भावों के साथ एक अग्रणी का अनुसरण करें। देव जिस प्रकार समान चित्त से अमृत की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार सायं प्रातः आप सबकी उत्तम समिति हो।

मैत्रीसंस्थापकोयश्च विश्व शान्ति विधायकः। सनातनाय धर्माय तस्मै नित्यं नमो नमः॥

जो विश्व शान्ति तथा सर्वत्र मैत्री की स्थापना करने वाला है। उस सनातन धर्म को प्रतिदिन सदा सर्वदा नित्य निरन्तर ही नमस्कार है।

न वै भिन्ना जातु चरन्ति धर्म न वै सुखं प्राप्नु वन्तीह भिन्ना। न वै भिन्ना गौरवं प्राप्नुवन्ति न वै भिन्नां प्रशमं रोचयन्ति॥

महा॰ उद्योग 36।56

जो आपस में एक दूसरे से भिन्न हो गये हैं, वे धर्म नहीं कर सकते और न भेद को प्राप्त हुए सुख पाते हैं। उनको न गौरव मिलता है और न पृथक हुए मनुष्यों को शान्ति मिलती है।

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