ज्ञान की सार्थकता श्रद्धा में है।

February 1978

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कुछ थोड़े से लोग आज की वैज्ञानिक प्रगति का तर्क देकर आस्तिकता, आध्यात्मिकता तथा धार्मिकता जैसे महान् सिद्धान्तों का प्रतिवाद करने लगे हैं। यदि वस्तुस्थिति का गम्भीर अन्वेषण करें तो यह पता चलेगा कि विज्ञान की दुहाई देने वाले इन लोगों की विज्ञान सम्बन्धी जानकारियों अत्यल्प है। जिन्होंने गहन परीक्षणों के बाद कोई उल्लेखनीय निष्कर्ष निकाले हैं उन वैज्ञानिकों में से शायद ही कोई ऐसा रहा हो जिसने इन मानवीय अस्तित्व को गरिमा प्रदान करने वाले तथ्यों को नकारा हो। अधिकांश ने सिद्धांततः उस परम सत्ता और उसकी नियामक व्यवस्था को हृदय से स्वीकार किया है।

इसमें सन्देह नहीं कि विगत दो शताब्दियों में ज्ञान−विज्ञान के अनेक क्षेत्रों का तेजी से विकास हुआ है उससे निकट भविष्य में और अधिक महत्वपूर्ण उपलब्धियों की आशा बँधी है। फोटोग्राफी का प्रचलन 112 वर्ष पूर्व हुआ था और आज उसके प्रति विकसित रूप त्रिविमीय और रंगीन फोटोग्राफी के रूप में देखा जा सकता है। टेलीफोन ने विकास के लिए 56 वर्ष लिये रेडियो ने 35 वर्ष तथा रैडार ने 15 वर्ष, टेलीविजन 12 तथा अणु शक्ति ने 6 वर्ष लिए हैं। यह घटती हुई सीमा अवधि इस बात का प्रतीक है कि ज्ञान की विभिन्न दिशाओं को जितना विकास होता है विज्ञान की उतनी ही प्रगति तेज होती है। इन तथ्यों ने ज्ञान की सार्थकता सिद्ध कर दी है और यह बात दिया है कि ज्ञान के अभाव में मनुष्य किसी भी दिशा में बढ़ नहीं सकता। ज्ञानार्जन की प्रवृत्ति को एक मर्म भरी आवश्यकता के रूप में स्वीकार करके ही उन्नति सम्भव है।

किन्तु इतने मात्र से ही पूर्णता का अहंकार बौद्धिक औद्धत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं। ज्ञान का क्षेत्र इतना अगाध है जितना अमेद्य है ब्रह्माण्ड और यह अब विज्ञान भी मानने लगा है कि ब्रह्माण्ड की व्यापकता को मशीनों और यन्त्रों के द्वारा खोज सकना मनुष्य को गम्भीर समस्याओं में उलझा सकता है। अतएव जीवन के अस्तित्व की समस्या का समाधान किसी और तरह ढूँढ़ना पड़ेगा।

ऐसी परिस्थिति में भी बुद्धिवाद की चुनौती देना कोरे दम्भ के अतिरिक्त कुछ नहीं। बौद्धिक दृष्टि से आज संसार ने जितनी प्रगति की है अपने पूर्वज उससे एक इंच पीछे नहीं थे। धर्म और अध्यात्म ने पुनीत उपहार हमें जिन महान आत्माओं ने प्रदान किये हैं उनकी ज्ञान की सामर्थ्य अतुलनीय थी। यदि विज्ञान को, टेक्नालॉजी को ही ज्ञान का मापक माना जा रहा हो तो इस क्षेत्र में भी पूर्वज अग्रगामी थे। कदाचित इतिहास पूर्व की उपलब्धियों पर दृष्टिपात करे तो यह तथ्य स्पष्ट हो जाते हैं।

आज जो इतिहास उपलब्ध है वह अधिकतम ईसा से 1000 वर्ष पूर्व तक ही है। इससे पूर्व युग को आदिम युग, प्रस्तर युग जैसे भ्रामक नामों से सम्बोधित किया जाता है, पर वास्तव में वह अतीत इतिहास का, विज्ञान और टेक्नालॉजी का स्वर्णिम युग था। हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु संहार की तरह की किसी दुर्घटना ने एकाएक यह परिवर्तन ला दिया अन्यथा उपलब्ध प्रमाण इस बात के प्रतीक है कि उस युग की तुलना में आज की उपलब्धियाँ पासंग−सदृश हैं।

कपास की खेती का पेरू में 1000 वर्ष पूर्व का ही इतिहास मिलता है किन्तु इनका सभ्यता के जो अवशेष मिलते हैं उससे पता चलता है कि 3000 वर्ष पूर्व भी कपास की उन्नत कृषि होती थी। हैलवान् में कपड़े का एक अति प्राचीन टुकड़ा मिला है वह इतना बारीक है कि आज की इतनी एडवांस टेक्नालॉजी भी उस तरह का वस्त्र बनाने में असमर्थ है।

मानवीय मस्तिष्क की क्षमता असीम है वह जैसा इस युग में है प्राचीनकाल में भी वैसा ही था। आज तो मारक विष, पर्यावरण, दूषण, मानवीय समस्याओं का बोझ इन सबसे मनुष्य के मस्तिष्क को दुर्बल ही बनाया है जबकि उस समय यह कोई कारण भी न थे। फिर वे उन्नति क्यों न करते? गार्ड कौवे (टिहानको) में 40000 वर्ष पूर्व चकमक बनाने की फैक्ट्री थी उसी तरह की फैक्ट्री 30000 वर्ष पूर्व बारा डोस्टियन में होने के प्रमाण मिले है। आज के गैलवानिक तथा केमिकल पद्धति से जिस तरह के ड्राई सेल बनते हैं ठीक उसी तरह के बने सेल बिजली के इलेक्ट्री लाइट, कॉपर इलेक्ट्रोड्स तथा लीड्स बगदाद म्यूजियम में सुरक्षित है अर्द्ध कार्बन जीवन−पद्धति से इनकी आयु 40000 वर्ष पूर्व की मानी जाती है।

गोबी रेगिस्तान तथा प्राचीन ईराक में इसी अवधि के लगभग बालू से काँच बनाने का विधिवत् शिल्प शालाएँ स्थापित थी। आज जो लेन्सेस बनते हैं इन्हें −इलेक्ट्रो प्रोसेसिंग क्रिया द्वारा तैयार किया जाता है। इस तरह के क्रिस्टल लेन्सेज असीरियन सभ्यता से 700 वर्ष पूर्व ईराक और इजिप्ट में बनते थे। और उस समय के लोगों द्वारा प्रयुक्त किये जाते थे। यह चश्मे के लेन्सेस विभिन्न शक्ति (पावर) के सूक्ष्म गतीय सिद्धान्तों पर नाभ्यान्तर दूरी ज्ञात करके बनाये जाते हैं इसका अर्थ यह हुआ कि उस समय प्रकाश परावर्तन के सारे भौतिकी नियमों की लोगों को निश्चित जानकारी थी।

धातु विज्ञान की आधुनिकतम जानकारियों से भी कई गुनी आगे की जानकारियाँ उस समय के लोगों को थी। ग्वाटेमाला के टिकाल पिरामिड में हरित मणि की 5 लड़ियों वाला हार उपलब्ध है। हरितमणि केवल चाइना (चीन) में मिलती है इसका यह अर्थ हुआ कि दूरवर्ती व्यापार भी प्रचुर मात्रा में होता था। आज अधिक से अधिक स्वर्णाभूषणों का रिवाज है, पर पेरू के पठार में प्लैटिनम के गहने मिले हैं। दिल्ली में अशोक लाट के नाम से बना लौह स्तम्भ जो 40000 वर्षों से भी अधिक वर्षा के थपेड़े सह रहा है उसमें जंग का धब्बा तक नहीं, वह कैसा धातु सम्मिश्रण है यह आज के धातु विशेषज्ञ तक बता सकने में असमर्थ हैं। लोहे में जंग न लगना मात्र तभी सम्भव है जब उससे सल्फर और फास्फोरस पूरी तरह निकाल लिया जाये आज का विकसित विज्ञान अभी तक भी इस रहस्य को खोज नहीं पाया। पश्चिमी वैज्ञानिकों का मत है इसे बनाने वाले बहुत कुशल इंजीनियर्स रहे होंगे।

वैमानिकी भी इस युग की वृहत्तर उपलब्धियों में से एक है जब कि प्राचीन भारत ने इस दिशा में जो उन्नति की डॉ॰ एरिच के शब्दों में वहाँ तक पहुँचने में आधुनिक विज्ञान को अभी कई शताब्दियाँ लग जायेंगी। भारद्वाज मुनि प्रणीत यन्त्र सर्वस्व के 40 प्रकरणों में से 28वाँ प्रकरण वैज्ञानिक प्रकरण के नाम से है इसमें शकुन, रुक्म, सुन्दर, त्रिपुर आदि 25 प्रकार के विमानों की किस्में दी गई हैं सुन्दर विमान शुँडालु से निकलने वाले धुएँ से चलते थे। त्रिपुर आकाश, जल, थल तीनों में चलते थे इसमें लगा ‘सीत्कारी यन्त्र’ उसे पनडुब्बी की स्थिति में बदल देता था। जिससे पानी के अन्दर भी लोगों को शुद्ध व शीतल वायु मिलती रहती थी इस प्रकरण में विमानों के रेखा पथ, दम्भोक्ति, गुहादर्भादर्श यन्त्र ‘त्रास्यवात निरसन’ आदि यन्त्रों का विस्तृत उल्लेख है जो दूरवर्ती ग्रहों की यात्रा के अवरोधों को भी हटाने में सक्षम होते थे। यह सब अत्यधिक वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर ही सम्भव रहा होगा फिर आज के लोगों का अपनी बौद्धिक क्षमता का अहंकार उचित प्रतीत नहीं होता।

प्रश्न यह होता है कि यदि यह सब था तो आज वह क्यों नहीं, अब तक तो यह विकास पूर्णता की स्थिति में होना चाहिए था। उत्तर के लिए हमें फिर उस युग से इस युग में आना पड़ता है। उस युग में विज्ञान का चरम विकास होने पर भी लोगों ने आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता के मूल मानवीय लक्ष्य का परित्याग नहीं किया था। विचार शीलता ने तर्क की गुंजाइश नहीं रखी थी। विज्ञान विराट् के साकार परिकल्पना का माध्यम मात्र था उसे भौतिक दम्भ का आधार नहीं बनाया गया। यह ज्ञान श्रद्धा भूत था। विश्वास की शक्ति के लिए तर्क से अधिक सम्मान और मान्यता थी इसी कारण सामाजिक जीवन में नैतिकतापूर्ण मर्यादा, पारस्परिक एकता और भाईचारे की भावना थी इसी कारण तब लोग अधिक सुखी और प्रसन्न थे।

किन्तु धीरे−धीरे इन भौतिक उपलब्धियों ने अपनी वास्तविकता दर्शायी। टेक्नालॉजी ने मानवीय क्षमताओं को इन्द्रियोन्मुख बनाया, लोग आलसी होने लगे, प्रमाद छाने लगा। स्वाभाविक था कि कुछ लोगों में अनैतिकता पनपी होगी और जिस तरह आज सारा संसार परमाणविक युद्ध के सम्भावित खतरे से थर−थर कांप रहा है उसी तरह तब भी इस तरह का कोई विश्व युद्ध हुआ होगा और उसने उन सारी उपलब्धियों को ध्वस्त कर मनुष्य को फिर प्रस्तर युग में ला दिया इतिहास जहाँ अपने आपको दोहराता है वही वह अतीत के अनुभवों का लाभ उठाने की भी प्रेरणा देता है। हम भौतिक विज्ञान की प्रगति से होने वाले दुष्परिणामों से समय रहते सजग और सावधान हो सके तो आज वैयक्तिक व सामुदायिक जीवन में जो विकृतियाँ उठ खड़ी हुई हैं उनसे छुटकारा मिल सकता है मशीनीकरण की अपेक्षा लोग प्राकृतिक सामंजस्य बनाये रख सकें तो स्वास्थ्य ही दृष्टि, मनोविकारों की दृष्टि और मर्यादाओं की दृष्टि से वह अधिक सुखी और सुव्यवस्थित हो सकता है अथवा उस समय के सर्वनाश की तरह आगे भी यह संकट आ सकता है कल्पना की जानी चाहिए कि तब फिर अगला युग विज्ञान का नहीं आदिम सभ्यता का ही युग होगा।

यह कथा प्रमाण भूत है। लेबनान के शीशे की तरह चट्टान के टुकड़े के जिन्हें टेक्सीटेस कहते हैं, मिले हैं। अमेरिका के वैज्ञानिक डॉ. स्टेयर ने इनमें रेडियो धर्मो अल्युम्युनियम समस्यानिक (आइसोटोपों) का अध्ययन किया तो उनके मुँह से एकाएक यही निकला−हमसे पहले भी परमाणु युद्ध हो चुके लगते हैं आस्ट्रेलिया, फ्रांस, भारत तथा लेबनान दक्षिणी अफ्रीका व चिली में ऐसे काले पत्थर मिले हैं इनमें अल्युम्युनियम तथा बैरीलियम काफी मात्रा में मिला है इनके अध्ययन से पता चलता है कि यह अत्यन्त उच्च ताप वाले भयंकर अणु विस्फोट के परिणाम स्वरूप बने हैं। विशेषज्ञों का मत है कि महाभारत के युग की बात हो सकती है। महाभारत में युद्ध का जो स्वरूप दिखाया गया है वह टेक्नोलॉजी युक्त वर्तमान युद्धों से बिलकुल मिलता−जुलता है। वह स्थिति फिर से आ सकती है यदि दुर्योधन की सी दुर्बुद्धि, न्याय, नीति और मानवता के मार्ग का अनुसरण करने को तैयार न हो।

आज का मनुष्य इतिहास से कुछ शिक्षा ले सके तो उसका सौभाग्य अन्यथा श्रद्धा विहीन ज्ञान और भौतिक प्रगति अन्ततः हमारी आज की साधन सामग्री और प्रगति को उस युग के विनाश की तरह ही नष्ट−भ्रष्ट कर सकती है।

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