अपनों से अपनी बात

February 1978

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बसन्त पर्व प्रेरणा पर्व है। पदार्थ, वनस्पति, प्राणी और मनुष्य सभी पर इन दिनों उमंगों की वर्षा होती है। विशिष्ट आत्माओं के लिए तो यह अवसर एक प्रकार से जीवन प्राण ही है। उन पर इन दिनों दिव्य लोक से अमृत भरे अनुदान बरसते हैं। युग निर्माण मिशन का उद्गम तो इस धुरी से सम्बद्ध समझा जाना चाहिए।

सन् 78 का बसन्त पुनर्गठन योजना की मध्यवर्ती धुरी है। इस जागृत आत्माओं के लिए महाकाल का−युग देवता का अतिरिक्त संदेशवाहक समझा जाना चाहिए। इसकी तुलना नव−जागृति के एक विशेष उभार से की जा सकती है। इस पुण्य घड़ी में नव युग की ऊषा अभिनव अरुणोदय के साथ झांकती देखी जा सकती है।

प्रस्तुत अरुणोदय की प्रथम उद्बोधन किरण अपने देव परिवार को इस रूप में हृदयंगम करनी चाहिए कि इन दिनों युग परिवर्तन की पुण्य बेला का विशिष्ट समय है। ऐसे उथल−पुथल के समय ऐसे विशेष व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ती है जो विशेष परिस्थितियों का सामना करने में समर्थ हों। ऐसे ही लोग युग पुरुष कहलाते हैं। उन्हें सृष्टा के विशिष्ट पार्षदों का देवदूतों का श्रेय मिलता है। हम में से प्रत्येक को अपनी विशेष स्थिति इसी वर्ग की आत्माओं में समझनी चाहिए और अपने निर्धारित कर्त्तव्यों को पहचानने और अपनाने के लिए जागरुकता का परिचय देना है।

दूसरी प्रकाश किरण हम सबके अन्तःकरण में इस रूप में प्रविष्ट होनी चाहिए कि हमें−विशिष्ट उद्देश्य के लिए इस विशेष अवसर पर विशेष प्रयोजन के लिए भेजा गया है । वर्तमान जन्म हमें उसी प्रयोजन के लिए लगाना चाहिए।

यों मानव जीवन ही परमेश्वर की विशेष धरोहर है। जो सौभाग्य अन्य किसी प्राणी को नहीं मिला, उसे मनुष्य को विशुद्ध अमानत के रूप में दिया गया है। सृष्टा के विश्व उद्यान को अधिक सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत बनाने के लिए ही यह थाती मनुष्य को मिली है, पर जागृत आत्माओं को तो युग परिवर्तन की इस पुण्य बेला में विशेष देवदूत की तरह ही भेजा गया है। हम सब अपने को इसी रूप में मानें और पेट, प्रजनन भर के लिए जीवित न रहकर अपने कन्धों पर आये नव−निर्माण के विशेष उत्तरदायित्व को वहन करें।

एक और तीसरी प्रकाश किरण को भीतर प्रवेश करने के लिए हमें अपना द्वार खोलना चाहिए कि दैवी साझेदारी का आमन्त्रण अवसर सामने खड़ा है। उसे स्वीकार या अस्वीकार करने का निर्णय उन्हीं घड़ियों में किया जाना है। अनिर्णीत स्थिति देर तक चलती रहने वाली नहीं।

इस बसन्त पर्व की साझीदारी के विशेष निमन्त्रण के रूप में ही समझना चाहिए। सामान्य मनुष्य के लिए असामान्य की साझेदारी सदा ही सौभाग्य का चिन्ह सिद्ध होती रही है। सफल व्यवसाय फर्मों के शेयर खरीदकर लोग लम्बा मुनाफा घर बैठे कमाते रहते हैं। राजाओं के सामान्य दरबारी भी जागीरदार बन जाते थे। दैवी तत्वों के साथ साझीदारी बनाकर कितने सामान्य व्यक्ति महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा की स्थिति तक पहुँचते रहे हैं। महामानवों एवं सिद्ध पुरुषों की गणना ऐसे ही, दैव व्यवसाय के साझीदारों में की जा सकती है। स्मरण रखने योग्य तथ्य है कि याचना−प्रार्थना भर से कोई बड़ा प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। भिक्षा वृत्ति से किसी को गुजारे भर के लिए ही कुछ मिल सकता है। बड़ा लाभ तो उद्योग पुरुषार्थ से ही मिलता है। उच्च पद या उच्च अनुदानों में याचना की नहीं पात्रता की शर्त रहती है। ईश्वर से याचना करते रहने में नहीं उसके साथ साझीदारी बना लेने के लिए आवश्यक साहस जुटाने में बुद्धिमानी है।

अच्छा हो हम इस बसन्त पर्व पर ईश्वर के साथ साझीदारी स्थापित करने का साहस जुटायें। इसके लिए कुछ नये तथ्य स्वीकार करने होंगे। समझना होगा कि व्यापक परमेश्वर का स्थानीय प्रतिनिधि हमारे भीतर आत्मा के रूप में बैठा है। मैं हर समय चिल्लाते रहने वाला बकरा यह शरीर भर है। यह शरीरगत अहंता ही आदि से अन्त तक व्यक्तित्व पर बुरी तरह छाई हुई है। उसी ने सारे जीवन क्षेत्र पर अपना अधिकार पूरी तरह जमा रखा है। चिन्तन क्षेत्र पर लोभ और मोह के रूप में वासना और तृष्णा के रूप में शत प्रतिशत आधिपत्य जमाये हुए है। वासना और तृष्णा की, स्वार्थ और अहंकार की पेट और प्रजनन की परिधि से एक इंच आगे बढ़ सकना सम्भव नहीं होता है। शरीरगत सुविधा से आगे की बात न सोचने देने की विवशता को ही माया कहते हैं। उसी की जकड़न भव बन्धन कहलाती है। उसी के निविड़ पाश में दुर्भाग्यग्रस्त बन्दी की तरह प्राणी को अगणित कष्ट सहने पड़ते हैं। लोक और परलोक बिगाड़ने वाले सारे दुर्भाग्य यम दूतों की तरह इसी स्थिति में कष्ट देते हैं। इन निविड़ बन्धनों को जो जितना ढीला कर लेता है, वह उतना ही बड़ा प्रज्ञावान समझा जाता है। जो इन बन्धनों को पूरी तरह काट सकने का पराक्रम कर सके, उसी जीवन भक्ति को परम पुरुषार्थी कहा जाता है।

साझेदारी का आरम्भ यहाँ से होना चाहिए कि हम शरीर की तरह ही आत्मा के अस्तित्व को, उसकी आवश्यकताओं की, उपलब्धियों को, उसके लाभांश को स्वीकार करें। समय, श्रम, मनोयोग, प्रतिभा और साधन यह पाँच ही जीवन व्यवसाय की उपलब्धियाँ है। इनका जितना लाभ शरीर को, जितना आत्मा को देना हो, उसका अनुपात निश्चित निर्धारित कर लेना चाहिए और उस विभाजन वितरण पर फिर आरूढ़ रहना चाहिए। प्रयत्न यह होना चाहिए जो आत्मा−परमात्मा का ही प्रतिनिधि है उसका लाभांश क्रमशः बढ़ाते रहा जाय। भक्ति भावना का−ईश्वर परायणता का यही स्वरूप है। साझेदारी इसी रूप में निभ सकती है कि साझीदारी की भी आवाज सुनी जाय, उसके हित का भी ध्यान रखा जाय और अपनी ही तरह उसका लाभांश भी उसे दिया जाय।

धन के सम्बन्ध में इतना तो करना ही चाहिए कि आत्मा और परमात्मा को घर का एक सदस्य मान लिया जाय और परिवार के प्रत्येक सदस्य के भोजन, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा, विवाह स्वावलम्बन उत्तराधिकार के लिए जितना खर्च किया जाता है उतना ही परमार्थ के लिए, आत्म−कल्याण के लिए निर्धारित रखा जाय। आत्मा का अंश जीवन व्यवसाय में आधा तो है ही । उतना देना न्यायानुकूल है। इतना न बन पड़े तो उसे एक सन्तान के बराबर तो मान ही लिया जाना चाहिए और उसके लिए उस अनुपात से तो धन व्यय किया ही जाना चाहिए जितना कि एक सन्तान के हिस्से में आता है।

परमार्थ आत्म कल्याण की युग साधना के रूप में ज्ञानयज्ञ का महत्व सर्वोपरि है। इन दिनों महाकाल की सामाजिक मांग यही है। इसमें आत्म कल्याण और लोक कल्याण के दोनों तत्वों का समान समावेश है। साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा की चतुर्विधि आत्मोत्कर्ष साधना है आत्मनिर्माण और समाज निर्माण का उचित समन्वय है। अस्तु आत्मा के परमात्मा के हिस्से का लाभांश इसी पुण्य प्रयोजन में लगना चाहिए। इस सन्दर्भ में युग निर्माण परिवार के प्रत्येक सदस्य का न्यूनतम अंश प्रतीक चिन्ह के रूप में आरम्भ से ही सदस्यता शर्त के रूप में निर्धारित है। एक घन्टा और दस पैसा नित्य का अनुदान अपने सम्पर्क क्षेत्र में सद्ज्ञान का आलोक फैलाने के लिए निकालने के लिए कहा जाता रहा है। जिनका इतना भी आरम्भ अभी नहीं हुआ है वे उसे आरम्भ करें । जो कुछ कर रहे हैं वे उसका अनुपात बढ़ाएँ साझेदारी की ईमानदारी का परिचय इसी रूप में दिया जा सकता है। प्रस्तुत बसन्त पर्व की प्रेरणा दिव्य आत्मा की सत्ता के साथ साझेदारी आरम्भ करने के लिए विशेष रूप से है।

इस साझेदारी से लाभ ही लाभ है। मिशन के सूत्र संचालक इसी नीति को अपना कर लाभान्वित हुए है। जो उनसे प्रेरणा ग्रहण करने और साधना का समुचित लाभ उठाने के इच्छुक हों उन्हें ऐसे ही भाव−भरे अनुकरण का साहस जुटाना चाहिए। बड़ी उपलब्धियों के लिए उदात्त चिन्तन, विवेकपूर्ण निर्धारण और सत्साहस की आवश्यकता है। बसन्त पर्व इसी शर्त पर दिव्य सत्ता के साथ साझीदारी करने और प्रचुर लाभ कमाने का सन्देश अनुरोध, आग्रह लेकर उपस्थित हुआ है। इसे स्वीकार करने में ही समझदारी है।

पुनर्गठन वर्ष के समुद्र मन्थन से निकले 14 रत्न

इस विशिष्ट बसन्त पर्व पर जिन्हें कुछ आन्तरिक प्रकाश सचमुच ही उपलब्ध हो उन्हें अपनी गतिविधियों में कुछ तो परिवर्तन करना ही चाहिए। इसके लिए इतने न्यूनतम निश्चय निर्धारण कर ही लेने चाहिए। इन्हें क्रमशः अधिक उदात्त बनाने की उत्कंठा जीवित रहनी चाहिए। पुनर्गठन वर्ष के समुद्र मन्थन से बसन्त पर्व के पुण्य पर्व पर निकाले गये इन्हें 14 रत्न समझा जाय और उन्हें अपनाने का प्रत्येक युग निर्माण परिजन द्वारा सच्चे मन से प्रयत्न किया जाय।

(1) उपासना की भोजन, शयन जैसे नित्य कर्मों में सम्मिलित रखा जाय। उसकी उपेक्षा न की जाय। निर्धारण भले ही न्यूनतम हो, पर उसका पालन दृढ़ता पूर्वक किया जाय। उपासना बिना भोजन या शयन न करने का व्रत धारण किया जाय।

(2) उपासना के समकक्ष ही स्वाध्याय को भी महत्व दिया जाय। आत्म कल्याण की समस्याओं को युग के अनुरूप समाधान प्रस्तुत करने वाला सत्साहित्य ही स्वाध्याय की आवश्यकता पूरी कर सकता है। आज की स्थिति में सत्संग का श्रेष्ठ एवं सुगम रूप यही है। पढ़े लोग युग साहित्य पढ़ें, उसे सुनें।

जिनके पास अखण्ड ज्योति, युग निर्माण योजना महिला जागृति अभियान आदि मिशन की पत्रिकाएँ पहुँचती हैं उनमें से प्रत्येक का पवित्र कर्तव्य यह ठहराया गया है कि उन्हें अपने परिवार तथा सम्पर्क क्षेत्र में कम से कम पाँच व्यक्तियों को पढ़ा या सुना दिया करें। एक पत्रिका का प्रकाश न्यूनतम पाँच दूसरों तक पहुँचना ही चाहिए।

(3) प्रातः आँख खुलते ही दिन का नया जन्म और रात्रि को उसका अन्त मानी जाय। एक दिन के जीवन की श्रेष्ठतम रीति−नीति के आधार पर जीने की उपयुक्त दिनचर्या बनाई और कड़ाई के साथ निवाही जाय। रात्रि को सोते समय निद्रा को दैनिक मृत्यु माना जाय और संन्यासी, वैरागी, अनासक्त, कर्मयोगी, प्रभु समर्पित भगवद् भक्ति की मनःस्थिति लेकर सोया जाय। यह प्रातः ज्ञान का चिन्तन ज्ञान योग दिन भर की कर्त्तव्यनिष्ठा कर्मयोग और रात्रि की प्रभु परायणता भक्तियोग है। इस जीवन साधना में तीनों प्रमुख योगाभ्यासों का समन्वय समझा जाय।

(4) घर में आस्तिकता का वातावरण बनाया जाय। परिवार के प्रत्येक व्यक्ति का सम्बन्ध ईश्वर के साथ जोड़ा जाय। घर में उपासना कक्ष रहे। परिवार का हर सदस्य वहाँ दो मिनट प्रणाम अभिवादन के साथ जप, ध्यान सम्पन्न करके तब भोजन ग्रहण करें। सम्भव हो तो सामूहिक प्रार्थना, आरती की परम्परा चलाई जाय। चौके में पहली रोटी के पाँच छोटे ग्रास अग्नि पर गायत्री मन्त्र के साथ होम कर तब भोजन किया जाय। इस प्रकार भारतीय संस्कृति की जननी गायत्री और भारतीय धर्म के पिता, यज्ञ के साथ पूरे परिवार का किसी न किसी रूप में सम्बन्ध सूत्र जुड़ा रहेगा।

(5) संयम, साधना, तपश्चर्या का न्यूनतम रूप यह रहे कि साप्ताहिक व्रतशीलता का निर्वाह किया जाय। गुरुवार या अन्य कोई दिन व्रत पालन का दिन नियत रहे। उस दिन उपवास, ब्रह्मचर्य एवं मौन व्रत का किसी न किसी रूप में निर्वाह किया जाय। उपवास, शाकाहार, फलाहार या दूध, छाछ पर रखा जाता है पर वैसा न बन पड़े तो अस्वाद व्रत नमक, शकर का त्याग तो निवाहा ही जाय। उस दिन ब्रह्मचर्य का पालन करें। लगभग कम से कम दो घण्टे मौन साधन का नियम बनायें। उस समय यथा सम्भव एकान्त के वातावरण में रहें और आत्म−शोधन एवं आत्म−विकास की समस्याओं पर विशेष रूप से मनन चिन्तन करें।

(6) अंश दान आवश्यक मानें। ज्ञान घट स्थापित करें। एक घंटा समय और दस पैसा ज्ञान यज्ञ के लिए नियमित रूप से निकालें । सम्भव हो तो अधिक समय और अधिक धन निकालने का साहस किया जाय।

(7) परिवार को सुसंस्कारी करने के लिए अनुचित कर्त्तव्य मानें। उन्हें प्रसन्न करने के लिए अनुचित सुविधाएँ न जुटाएँ परिवार के लोगों के साथ हँसने, खेलने, विचार विमर्श एवं साथ−साथ मिल−जुलकर काम करने के लिए समय निकालें । इस नियमित सम्पर्क का उद्देश्य परिवार परम्परा में (1) श्रमशीलता (2) सुव्यवस्था (3) सादगी मितव्ययिता (4) शिष्ट सज्जनता (5) उदार सहकार की सत्प्रवृत्तियों का अधिकाधिक समावेश करना चाहिए। परिवार को सद्गुणों की पाठशाला एवं नर−रत्नों की खदान बनाने की रूप रेखा बनाई और कार्यान्वित की जाय।

(8) पारिवारिक उत्तरदायित्वों से यथा सम्भव जल्दी निवृत्त होकर वानप्रस्थ की महान परम्पराओं को अपनाने का लक्ष्य रखा जाय। सन्तानें बढ़ाई न जायँ। बड़े बच्चों को अपने छोटे भाई−बहिनों का उत्तरदायित्व निभाकर पितृ ऋण चुकाने की आवश्यकता आरम्भ से ही समझाई जाय। यह एक क्षण के लिए ही नहीं आत्मा और परमात्मा के प्रति भी कुछ कर्त्तव्य हैं और उनका निर्वाह सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन में अधिक बड़े अनुदान प्रस्तुत करने पर ही सम्भव हो सकता है।

(9) स्मरण रखा जाय नव−निर्माण जैसे सुविस्तृत कार्य के लिए सामूहिक प्रयत्न ही सफल हो सकते हैं। सेतुबन्ध में रीछ−वानरों का, गोवर्धन उठाने में ग्वाल−बालों का, धर्मचक्र प्रवर्तन में चीवरधारी बौद्ध भिक्षुकों का, स्वतन्त्रता संग्राम में सत्याग्रही सैनिकों का सम्मिलित प्रयास ही सफल हो सकता था। देवताओं की सम्मिलित शक्ति से दुर्गावतरण और ऋषियों के रक्त घट संचय से सीता जन्म की कथा सर्वविदित है। युग परिवर्तन सज्जनों के सामूहिक प्रयत्नों से ही बन पड़ेगा। इसके लिए युग निर्माण संगठन का महत्व समझा जाय और उसके गठन एवं पुष्टिकरण के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहा जाय।

(10) युग निर्माण मिशन के सूत्र संचालक को एक वृक्ष माना जाय और परिवार का प्रत्येक कर्मठ परिजन अपने आपको उसकी शाखा मानें। एक शाखा की न्यूनतम दस टहनी होनी आवश्यक है। इसका अर्थ यह हुआ कि सृजन सैनिकों में से प्रत्येक को अपनी विकास परम्परा में दस साथी सहयोगियों को जोड़ों रहने का प्रयत्न करना चाहिए। युग निर्माण मिशन की वंश परम्परा इसी प्रकार चल रही है। हिमालय का उद्गम केन्द्र शक्ति उगलता है उसकी एक धारा मिशन का सूत्र संचालक तन्त्र है । इस तन्त्र ने अपनी शाखा प्रशाखा हजारों लाखों की संख्या में विकसित की है। यह परम्परा युग निर्माण परिवार की है। सूत्र संचालक वृक्ष, प्रत्येक कर्मठ परिजन उसकी शाखा प्रत्येक शाखा की न्यूनतम दस टहनी । टोली नायक, कार्यवाहक, कर्मठ कार्यकर्त्ता, व्रतधारी वानप्रस्थ आदि सभी वर्गों के नर-नारी परिजन इसी प्रक्रिया को अपनायें । अपना सम्बन्ध सूत्र इसी आधार पर सुदृढ़ परिपक्व बनायें।

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