क्या ईश्वर सचमुच ही मर गया

February 1978

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अठारहवीं सदी में फ्रांसीसी दार्शनिक ने ईश्वर के अनस्तित्व के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा और लिखा था। उनने न केवल तर्क ही प्रस्तुत किये वरन् उत्साहपूर्वक बढ़ी−चढ़ी घोषणाएँ भी कीं। वायरिन के संकेतों का नीत्से ने तीखे स्वर से प्रतिपादन किया। उसने घोषणा की−ईश्वर अन्तिम रूप से मर गया। सुनने वालों में से अगणित ऐसे भी थे जिनने इस उद्घोष पर विश्वास किया उनने आश्चर्यचकित होकर महान घटना−‘ए विग ईवेण्ट’ के रूप में स्वीकारा, किन्तु नीत्से का इस खण्डन भर से समाधान न हुआ उसके आस्तिकवादी स्वर फिर मुखर हुए और अपने लहजे में उसने नये शब्दों में कहा− “अब हम सब लोग ही वैसे हीरो बनेंगे जैसा कि अब तक ईश्वर था।” उसका यह संकेत ‘अति मानव’ की नई सृष्टि होने की ओर था। ईश्वर कैसा हो मतभेद इतना भर रहा। काम तो नीत्से का भी ईश्वर के अस्तित्व के बिना न चला उसने जिस अति मानव की कल्पना की वह सर्वथा मौलिक नहीं थी। अवतारों का उल्लेख बहुत पहले से ही होता चला आया है। उसमें और इस नये अति मानव में मौलिक अन्तर नहीं विशेषताओं सम्बन्धी ही यत्किंचित् अन्तर रहा है।

नीत्से ने ईश्वर के मरने की घोषणा तो की पर उसके अन्तरंग का देवदूत इस कुकृत्य पर रो पड़ा। उस फ्रांसीसी दार्शनिक ने इस सिसकते हुए देवदूत को एक अभिव्यंजना का रूपक देते हुए व्यक्त किया है। वह लिखता है- एक पगला, दिन−दोपहर सड़क पर लालटेन लिए दौड़ रहा था−लोगों ने उससे कारण पूछा−तो बोला मैं ईश्वर को ढूँढ़ रहा हूँ। भीड़ को सम्बोधन करते हुए बोला− ईश्वर है नहीं−उसकी हम और आप लोगों ने मिलकर हत्या कर दी है। देखो उसकी कब्र खुद रही है। मृतक की लाश उसी में दफनाई जायेगी। पर इससे किसी को क्या मिला? इतना बड़ा कृत्य कर तो गुजरे, पर क्या उसकी प्रतिक्रिया सहन हो सकेगी? अब इस अभाव की पूर्ति का एक ही रास्ता है कि हम इस लायक बनें कि मृत ईश्वर का कारोबार संभाल सकें।

सृष्टि की गहराई में उतरने पर स्पष्ट हो जाता है कि उसके कण−कण में नियम और नियन्त्रण संव्याप्त है। यहां सब कुछ यों ही अन्धाधुन्ध नहीं चल रहा है वरन् एक ‘सुव्यवस्थित आर्डर’ के आधार पर सारा सूत्र संचालन इस प्रकार हो रहा है मानो किसी बाजीगर की उँगलियों, में बँधे धागे सारी कठपुतलियों को तरह−तरह के नाच नचा रहे हों। छोटे जीवाणु, परमाणुओं से लेकर आकाश में परिभ्रमण करने वाले तारा मण्डलों और नीहारिका समूहों के बीच एक अत्यन्त सजग सुव्यवस्था काम कर रही है। वे सभी अपने−अपने लिए निर्धारित सुनिश्चित नियमों से बँधे हुए है। इन नियमों की जानकारी में ही विज्ञान के प्रयास नियोजित है। विज्ञान अपने को सत्यान्वेषी कहता है। सृष्टि के नियम ही उसके लिए बोध विषय है। इस नियामक सत्ता को −विज्ञान का ईश्वर कह सकते हैं। यह भी प्रतिपादित ईश्वरीय गुणानुवाद का एक पक्ष हो सकता है। इसमें ईश्वर की जानकारी नहीं, वरन् उसकी आंशिक स्वीकृति है। आज इतना मान लेने से भी कल अधिक गहरी जानकारी की अपेक्षा की जा सकती है। आस्तिकता के अगले अध्यायों का अध्ययन पीछे होता रहेगा, आज भी उसकी प्रामाणिकता तो स्पष्ट है ही भले ही उसका नाम “आर्डर” ही क्यों न दिया जाय?

प्रकृति के अन्तराल पर्यवेक्षण के प्रयास में एक नया तत्व सामने आया है−विश्व−चेतना। समझा जा रहा है कि व्यक्ति चेतना उसी का एक घटक है। विज्ञान के क्षेत्र में इन दिनों यह चर्चा जोरों पर है कि यह संसार मात्र पदार्थ नहीं है उसके पीछे एक दूरदर्शी मस्तिष्क भी काम करता है। पदार्थ के पीछे झांकती एक विवेकवान् मस्तिष्क की झांकी अब अधिकाधिक स्पष्ट होती जा रही है। उस चेतना में मात्र बुद्धि ही नहीं आकांक्षा का अस्तित्व झलकता है। उद्देश्य तो ठीक से नहीं समझा जा सका पर इस सृष्टि व्यवस्था में मात्र आणविक हलचलों तक सीमित रहने से समाधान नहीं होता। दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखने जैसी एक चेतना को सृष्टि संचालन की क्रम शृंखला मानने में अब वैज्ञानिक मतभेद बहुत ही कम रह गया है। मैटर के पीछे ‘माइण्ड’ काम करता हुआ प्रतीत होता है और कोई युनिवर्सल विल इस सारे प्रसार−विस्तार को किसी इच्छित दिशा में घसीटे ले जा रही प्रतीत होती है। युनिवर्सल माइण्ड−युनिवर्सल विल का अस्तित्व ‘आर्डर’ के साथ जोड़कर विज्ञान में ईश्वर के अस्तित्व के सम्बन्ध में अर्ध स्वीकृति प्रदान कर दी है, अब वह पिछली शताब्दी की तरह इस सम्बन्ध में कट्टर नहीं रह गया है उसने अर्ध आस्तिकता स्वीकार कर ली है।

इस संसार में दो परस्पर विरोधी शक्तियाँ काम करती है। जीवन और मरण, अन्धकार और प्रकाश, पाप और पुण्य, उत्थान और पतन आदि । यह अपनी−अपनी ओर खींचती है। इनके मध्य सन्तुलन बनाने वाली एक तीसरी शक्ति होनी चाहिए। मुकदमे में वादी और प्रतिवादी पक्ष अपनी−अपनी ओर खींच−तान करते हैं। न्यायाधीश औचित्य और समाधान का उपाय निकालता है। यदि न्यायाधीश न हो तो उस संघर्ष का उचित अन्त कभी होगा ही नहीं और विनाश ही हाथ लगेगा।

पदार्थ का एक ही गुण और एक ही प्रवाह हो सकता है। उसमें पक्ष प्रतिपक्ष की−एक सीमा तक संघर्ष और फिर सहयोग की प्रवृत्ति होने का कोई कारण किसी नियामक शक्ति के बिना सम्भव नहीं। क्रिया और प्रतिक्रिया का क्रम भी इस संसार में अन्धाधुन्ध नहीं सुव्यवस्थित और सन्तुलित रीति से चल रहा है। उसी से स्थिरता, शान्ति और प्रगति का आधार बनता है। विश्व का सौन्दर्य और आनन्द उसी पर निर्भर है। पदार्थ में भिन्नता है− उनकी आकृति और प्रकृति में भारी अन्तर है फिर भी दूरगामी पर्यवेक्षण से सिद्ध होता है कि वे सभी एक दूसरे के पूरक−सहयोगी बनकर रह रहे हैं। इकॉलाजी सिद्धान्त पर जितना विचार किया जाता है उतना ही यह स्पष्ट होता है कि संसार के सभी प्राणी और पदार्थ एक ही किसी विराट् शरीर के अंग−प्रत्यंग, जीवाणु−परमाणु बनकर रह रहे हैं और परस्पर पूर्णतया सुसम्बद्ध ही नहीं एक दूसरे पर निर्भर भी हैं। ऐसी विश्व व्यवस्था बिना नियामक शक्ति के हो नहीं सकती, उस नियामक को ईश्वर कहा जा सकता है।

हम देखते हैं कि वस्तुएँ कितनी ही मूल्यवान क्यों न हों वे अपने आप किसी प्रयोजन की पूर्ति नहीं करती। सोना खदानों में अनादि काल से पड़ा है। उसे मानवी प्रयत्नों से ढूँढ़ा और खोद निकाला जाता है। आभूषण बनाने का प्रयत्न होता है अथवा उसे बाजार में बेच कर सुख साधन खरीदे जाते हैं। यह सब किसी के करने से ही सम्भव हुआ। सोने का अस्तित्व और मूल्य रहते हुए भी उसका उपयोग किसी जीवित प्राणी के बिना सम्भव नहीं। अन्न में भूख बुझाने का गुण है, पर उसे उगाने से लेकर पकाने, खाने तक के सारे प्रयोजन मनुष्यों को ही करने पड़ते हैं। अनेकानेक सुविधा−साधन और उपकरण इस संसार में मौजूद हैं और प्रयोग होते हैं किन्तु उन्हें उपयोगी बनाने तथा उपयोग करने का कार्य चैतन्य मनुष्य ही करते हैं। कर्त्ता के बिना कर्म होते रहे, संसार में अगणित हलचलें हो रही हैं। उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन के कौतूहलवर्धक क्रम चल रहे हैं। इस सब सुनियोजित क्रिया-कलाप की कोई चेतनात्मा न हो सब अपने आप ही चलता रहता हो ऐसा हो नहीं सकता। अपने आप जड़ पदार्थ कुछ गति करें भी तो वे सभी अव्यवस्थित होंगी। बाढ़, भूकम्प, महामारी, आँधी−तूफान जैसे प्रकृति प्रवाहों में कहीं व्यवस्था नहीं होती। किन्तु हम देखते हैं प्राणि जगत ओर पदार्थ परिकर में कोई नियम मर्यादाएँ गतिशील रहती हैं और सब कुछ व्यवस्थित बनाये रहती हैं। यह कैसे होता है−इसमें किसी कर्त्ता के अस्तित्व से इनकार करने पर कोई समाधान हो ही नहीं सकता।

मोटी बुद्धि इन्द्रिय ज्ञान पर निर्भर रहती है। जब देखा, सुना, चखा, छुआ जाता है उस पर विश्वास करती है। इसे यह समझने में बड़ी कठिनाई होती है कि इन्द्रिय शक्ति ही किसी तथ्य को प्रमाणित करने का एक मात्र माध्यम नहीं है। ऐसे तथ्यों का भी इस संसार में अस्तित्व है जिन्हें इन्द्रियों से नहीं वरन् बुद्धि से ही जाना जा सकता है। कई बार तो इन्द्रियाँ भ्रान्त अनुभूतियाँ भी करती है और उनके द्वारा प्राप्त ज्ञान संदिग्ध होता है। सिनेमा के पर्दे पर तस्वीरें चलती−फिरती दिखाई पड़ती है, पर वे वस्तुतः स्थिर होती हैं। तेजी से घूमने के कारण आँखें उनकी वास्तविक स्थिति समझने में भ्रमित हो जाती हैं और स्थिर तस्वीरें चलती−फिरती दिखाई पड़ती है। मृग मरीचिका−उड़न तश्तरियां जैसी कितनी ही भ्रान्तियां आँखों के आगे से गुजरती हैं। पानी में रहने वाले जीवाणु तक मात्र इन्द्रियों से नहीं देखे जाते उनके लिए भी सूक्ष्मदर्शी उपकरण ही काम आते हैं। अन्तरिक्ष के ग्रह−नक्षत्रों की गतिविधियाँ समझने के लिए यन्त्र ही काम करते हैं। इन्द्रिय शक्ति अपर्याप्त पड़ती है। प्रकाश तरंगें, ध्वनि तरंगें इन्द्रियों की पकड़ में कहाँ आती है।

फिर भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, द्वेष, प्रेम, सुख−दुःख जैसी अनुभूतियों का अस्तित्व होते हुए भी वे आँखों से नहीं देखी जाती हैं। मनुष्य का अपना अस्तित्व− आत्मा ही इन्द्रियों से कहाँ दिखाई पड़ता है। इस विश्व में बहुत कुछ ऐसा है जो बुद्धि से ही जाना जा सकता है। ईश्वर इन्द्रियों से तो प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता, पर उसकी क्रिया−प्रक्रिया को देखते हुए अस्तित्व पर विश्वास किया जा सकता है। पदार्थ की सूक्ष्मतम स्थिति भी बुद्धिगम्य है। यन्त्रों से भी उसकी मूल सत्ता नहीं देखी जा सकती। उसके क्रिया−कलापों को देखते हुए ही यह अनुमान लगाया जाता है कि उसका अस्तित्व किस प्रकार का होना चाहिए। ईश्वर का परिचय एवं प्रमाण भी इसी आधार पर उपलब्ध हो सकता है।

न्याय दर्शन (तर्क शास्त्र) में प्रमाण के पाठ आधार बताये गये हैं। (1) प्रत्यक्ष, (2) अनुमान, (3) उपमान, (4) शब्द, (5) अर्थोत्पत्ति, (6) ऐतिह्य, (7) सम्भव, (8) अभाव। इनमें से एक प्रत्यक्ष ही इन्द्रियगम्य है। शेष सात के लिए बुद्धि पर निर्भर रहना पड़ता है। जब भौतिक जगत की जानकारियाँ प्रत्यक्ष के आधार पर नहीं मिल पातीं। तो ईश्वर जैसे अति सूक्ष्म तत्व को आँख से देखने पर ही विश्वास करने का आग्रह करना बालहठ जैसा ही कुछ कहा जा सकता है।

मीमांसाकार ने अपने प्रबल तर्कों के आधार पर ईश्वर का खण्डन किया है साथ ही उस प्रतिपादन को समाप्त करते हुए ‘ॐ नमो पुण्डरीकाक्षाय’ लिखकर उस निषेध पाप का प्रायश्चित भी कर लिया है।

परमाणु को बहुत पहले पदार्थ का सबसे छोटा कण कहा जाता था। पीछे उसके कितने ही घटकों का एक समूह समन्वय माना गया। अब वह ठोस, तरल या वाष्प की उन तीनों स्थितियों से भिन्न हैं जो पदार्थ के स्वरूप एवं आस्तित्व की जानकारी देते हैं। अब परमाणु मात्र शक्ति एवं गति भर है− उसकी विवेचना एनर्जी और प्रोसैस के रूप में की जाती है। यहां एक आगे का प्रश्न खड़ा होता है कि शक्ति या गति किसकी? उसकी दिशा और प्रकृति का निर्धारण कैसे होता है? वह बिना टकराये सहयोग के सिद्धान्त को किस प्रकार क्रियाशील रखती है। उसके भण्डार का अक्षय रहना किस प्रकार सम्भव होता है? उसका उद्गम स्रोत और उपयोग प्रयोजन पूरा होने की व्यवस्था किस प्रकार बनती है। अपने आप यहां नहीं कुछ हो रहा है ऐसा कहा जा सकता है, पर इतने भर से कदाचित ही किसी के अन्तःकरण का समाधान होता हो। इतना सुनकर जिज्ञासा की तृप्ति हो सकेगी ऐसा लगता नहीं है।

विज्ञान ने मात्र इतना कहा है कि उसके वर्तमान साधनों से ईश्वर के अस्तित्व का परिचय नहीं मिल पाया। यह कभी नहीं कहा कि जो उसका वर्तमान ज्ञान है वही अन्तिम है और आगे जानने या खोज करने के लिये और कुछ नहीं है। विज्ञान की दृष्टि खुली है वह स्वभावतः दुराग्रही नहीं है। भविष्य में आगे की खोजों के लिए उसमें पूरी−पूरी आशा और आस्था रखी गई है। विज्ञान का बचपन जैसे−जैसे किशोरावस्था में विकसित होता जा रहा है वैसे−वैसे उसे अपनी प्राथमिक जानकारियों की तुलना में इतना अधिक विवरण मिला है जिसकी तुलना करने पर लगता है कि आरम्भिक प्रतिपादन अधूरे ही नहीं भ्रमपूर्ण भी थे। समयानुसार उनका परिशोधन होता चला गया है। इसमें न प्राचीन खोजों को लाँछित होना पड़ा है और न आधुनिक उपलब्धियों को अपनी पूर्णता का अहंकार है। जिस प्रकार आरम्भिक शोधें आज झुठला दी गईं, ठीक इसी प्रकार यह भी गुंजाइश है कि भविष्य में आज के प्रतिपादनों में भी भारी हेर−फेर करने पड़े। विज्ञान की दृष्टि विशुद्ध अन्वेषक की है। सत्य की शोध उसका लक्ष्य है। उसमें साम्प्रदायिक दुराग्रह या परम्परा मोह नहीं है। विज्ञान के क्षेत्रों से मात्र इतना ही कहा गया है वर्तमान साधनों से ईश्वर पकड़ में नहीं आता। ऐसे−ऐसे असंख्यों प्रसंग है जो अभी पकड़ में नहीं आये, पर उनके अस्तित्व की पूरी पूरी सम्भावना है। इस अपने विश्व का प्रतिद्वन्दी एक प्रति विश्व सम्भावना के क्षेत्र में स्वीकार कर लिया गया है, पर उसका स्वरूप निर्धारण शेष है जिसकी खोज चल रही है। खोज के ऐसे असंख्य विषय हैं जिनके भविष्य में ढूँढ़ लिए जाने की पूरी आशा की जाती है। इन्हीं प्रसंगों में एक ईश्वर का अस्तित्व भी है।

आल गुडनेस−आल नालिज एण्ड आल ब्यूटी के रूप में सत्यं शिवं सुन्दरम् के रूप में जिस समग्र चेतना शक्ति का मानवी अन्तरात्मा के साथ स्पर्श होता है−उसे ब्रह्म कहा जाता है। इसका आस्थाओं के रूप में अनुभव करना हो तो ईमानदारी, सज्जनता, कर्त्तव्य−निष्ठा और उदारता के रूप में उसकी सम्वेदनाओं को कभी भी कोई भी अपने भीतर ढूंढ़ सकता है। यह तत्व जिसमें जितने हों समझना चाहिए कि उसके भीतर उतना ही हल्का या भारी ईश्वर काम कर रहा है। सदाशयता अपनाने और उसे व्यापक बनाने के रूप में−मलीनता और दुष्टता को हटाने के रूप में −जितना उत्साह, जितना आवेश उभर रहा हो उसी अनुपात से अपने में ईश्वर तत्व के अवतरण झाँकी देखी जा सकती है।

एथीस्ट−नास्तिक अब उतना कट्टर नहीं रहा जितना पिछली शताब्दी में था−अब वह क्रमशः एग्नोटिस्क−प्रत्यक्षवादी बनता जा रहा है। दुराग्रह यदि शोध निष्कर्ष को स्वीकार करने के लिए सहमत हैं तो समझना चाहिये कि सत्य तक पहुँचने की अभी पूरी आशा है। यदि ईश्वर है− जैसा कि वह है ही− तो हमें धैर्य रखना चाहिए और प्रतीक्षा करनी चाहिए कि बचकाने विज्ञान से न सही प्रौढ़ विज्ञान से वह अवश्य ही सिद्ध हो जायगा। पदार्थ की हलचलों के पीछे कोई शक्ति प्रवाह काम करने की बात अब प्रत्यक्ष हो गई। पदार्थ का अस्तित्व शक्ति तरंगों के रूप में जाना गया है। अब इस सम्भावना को प्रत्यक्ष भर करना शेष है कि विश्व के अन्तराल में काम करने वाला शक्ति प्रवाह ज्ञान युक्त ही नहीं−न्याय और औचित्य के तथ्यों से भी ओत−प्रोत है।


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