महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था, पितामह भीष्म शरशैय्या पर पड़े−पड़े पाण्डवों को उपदेश दे रहे थे इसी बीच द्रौपदी को हठात् हँसी आ गई।
“अपनी हँसी का क्या कारण है बेटी?” पितामह ने पूछा। द्रौपदी ने पहले तो “कुछ नहीं वैसे ही हँसी आ गई थी। कहकर टालने का प्रयास किया,” परन्तु जब भीष्म कारण जानने को अड़ ही गये तो द्रौपदी ने नम्रतापूर्वक कहा−“पूज्यवर आप हमारे पितामह हैं अपनी धृष्टता के लिए क्षमा चाहती हूँ, आपके उपदेश सुन−सुनकर मुझे बार−बार यह ख्याल आता है कि इतना ज्ञानी व विद्वान व्यक्ति उस समय ‘मौन’ क्यों बैठा रहा जब भरी सभा में कौरवों ने मेरी लाज हरने का दुस्साहस किया था। क्या ज्ञान सिर्फ देने के लिए है? करने कराने के लिए नहीं−यह सोचकर ही आपके उपदेशों की निस्सारता पर मुझे हँसी आ गई थी।” भीष्म बोले−“बेटी तू सच कहती है ज्ञान चर्चा का ही विषय नहीं व्यवहार का भी विषय है।” मुझे धर्म ज्ञान तो उस समय भी था, परन्तु उस समय दुर्योधन का अन्यायपूर्ण अन्न खा−खाकर मेरी बुद्धि इतनी मलीन हो गई थी कि मैं अपने ज्ञान को व्यवहार्य न बना सका। अब अर्जुन के बाण लगने से शरीर से उस दूषित अन्न से बना सारा रक्त निकल गया है अब मैं निर्विकार हूँ इसी से बुद्धि शुद्ध और शान्त है।
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