व्यक्तित्व की प्रौढ़ता और प्रखरता

February 1978

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शरीर से प्रौढ़ हो जाना एक बात है और व्यक्तित्व की दृष्टि से प्रौढ़ होना दूसरी। बहुत से वयोवृद्ध ऐसे हो सकते हैं, जिनके दृष्टिकोण, अनुभव एवं रुझान को देखते हुए उन्हें बिलकुल बचकाना बाल−बुद्धि कहा जा सके । कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी आयु तो अधिक नहीं है−बाल भी सफेद नहीं हुए किन्तु उस मनःस्थिति में जा पहुंचे जहाँ उन्हें प्रौढ़ एवं परिपक्व समझा जा सके। यह प्रौढ़ता ही मनुष्य की गरिमा है। उसी के आधार पर उसका मूल्यांकन होता है। श्रेयस्कर सफलतायें इस आन्तरिक प्रौढ़ता के बिना प्रायः मिल ही नहीं पाती।

प्रौढ़ता का प्रथम चिन्ह यह है कि मनुष्य भावुकता को सुरक्षित रखते हुए उसे अति की सीमा में न जाने दे और मस्तिष्क पर उफानों के इतने बादल न जमने दे जिनसे वस्तुस्थिति बताने वाली विवेकशीलडडडडड की गायब हो चले। प्रिय और अप्रिय परिस्थितियाँ प्रायः हर किसी के जीवन में आती है। सज्जनों की तरह दुर्जनों से भी पाला पड़ता है। सफलताओं की तरह असफलताएँ भी मिलती हैं। धूप छाँव को ध्यान में रखा जाना चाहिए। कठिनाइयों का हल निकालने और क्षति की पूर्ति करने के लिए भरसक प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु ऐसी स्थिति नहीं ही आने देनी चाहिए कि किन्हीं अप्रिय प्रसंगों के कारण अपना मानसिक सन्तुलन ही गड़बड़ा जाय। प्रस्तुत कठिनाई अपना हल पूछती है। आशंकाएँ रोकथाम का उपाय जानना चाहती हैं। जो क्षति हो चुकी अब उसकी क्षति पूर्ति का उपाय ही अभीष्ट है। जो बीत चुका वह वापिस नहीं लौट सकता इसलिए शोक−संताप में डूबे रहने से क्या लाभ? भविष्य में कठिनाई आने वाली है इसकी चिन्ता करते रहने से बनेगा क्या? आक्रमण की सम्भावना है, तो उस आतंक से बचने को भयभीत होने से क्या प्रयोजन सधेगा? अवरोधों को तो अपना समाधान चाहिए और वह तभी निकल सकेगा जब मनःस्थिति सन्तुलित बनी रहे। असन्तुलित आवेश ग्रस्त मस्तिष्क के लिए सही समाधान ढूँढ़ सकना कठिन है। जब मानसिक स्थिरता रखने जैसा सरल काम नहीं बन पड़ा तो समाधान के साधन जुटाने का कार्य कौन करेगा? हर हालत में मानसिक स्तर ऐसा रहना चाहिए जिसके सहारे प्रगति के उपाय और अवरोधों के समाधान ठीक तरह खोजे जा सकें। इसके लिए आवेश रहित मस्तिष्क ही कारगर हो सकते हैं। आवेश तो स्वयं ही एक विपत्ति है जो अकारण नई−नई कठिनाइयाँ उत्पन्न करते हैं। उनके कारण ऐसे अवांछनीय कदम उठते हैं, जो नई विपत्तियाँ गढ़ देते हैं। समाधान के स्थान पर नई समस्याएँ उत्पन्न करने वाला यह असन्तुलन अपरिपक्वता का चिन्ह है। इसे नियन्त्रित करने के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति ही प्रौढ़ता से गौरवान्वित होते हैं।

हर मनुष्य को प्यार और उपकार की आवश्यकता होती है। दूसरों से हर किसी को इसी की अपेक्षा रहती है। भले ही वह स्वयं वैसा न कर पाता हो, पर अन्यों से ऐसी ही अपेक्षा रखता है। इस प्रकार की अपेक्षा करने वालों में मनुष्य स्वयं भी सम्मिलित है। हर वस्तु मूल्य देकर ही खरीदी जाती है। हम दूसरों को प्यार और उपकार की मधुरता प्रदान करेंगे तो बदले में उसकी प्रतिक्रिया का लाभ भी उठा सकेंगे। स्वयं नीरस रहेंगे, अनुदार बनेंगे तो दूसरों से सरसता की सद्भावना की अपेक्षा नहीं कर सकते। इस अभाव से अपने को निराशा रहेगी। साथ ही हम अपने साथियों को उतनी स्वल्प सहायता न कर सकेंगे जो प्यार भरी उदार मनोभूमि रखने पर सहज ही बन पड़ती। अनुदारता, बच्चों के लिए क्षम्य हो सकती है−प्रौढ़ों से उतना भी न बन पड़े तो यह खेदजनक है। अपने मतलब से मतलब रखने−दूसरों की उपेक्षा करने से मनुष्य असामाजिक बनता चला जाता है। भले ही किसी से अनुचित स्वार्थ सिद्धि की इच्छा न हो तो आत्म केन्द्रित रहना, दूसरों के सुख−दुःख में निस्पृह बने रहना भी भावनात्मक शून्यता का लक्षण है। प्रौढ़ता की यह विशेषता होनी चाहिए कि उसमें अधिक सामाजिकता जुड़ी हुई हो। व्यवहार में उदारता, मृदुलता और आत्मीयता का समावेश हो। ऐसे व्यक्ति दूसरों को सद्भाव देते हैं और बदले में अपने लिए और भी बढ़ी−चढ़ी मात्रा में सद्भाव प्राप्त करते हैं।

प्रौढ़ता आत्म−ज्ञान के सहारे उभरता और बढ़ती है। आत्म समीक्षा इसका प्रथम आधार है। अपने कामों की भूल ढूँढ़ने और सुधारने का कार्य तो साथियों की सहायता से भी किया जा सकता है। वे भूलों को बताने और सुधारने का उपाय बता सकते हैं, पर काम इतने से भी नहीं चलता। भूलें उतनी घातक नहीं होती जितनी कि बुरे इरादों के दुष्परिणाम उत्पन्न होते हैं। वस्तुतः हमारी औसत में भ्रष्टता के तत्व घुस पड़ते हैं और वे ही जाने और अनजाने ऐसे कृत्य कराते हैं जिन्हें भूलें कहने भर से काम नहीं चलता, उनसे दुष्ट इरादे प्रत्यक्ष झलकते हैं। यह ‘दूसरे’ ही मनुष्य के वास्तविक व्यक्तित्व का सृजन करते हैं। चिन्तन उसी आधार पर दिशा पकड़ता है और गतिविधियों का निर्माण इसी प्रेरणा से बन पड़ता है। इन दूसरों को ही अध्यात्म की भाषा में−श्रद्धा, आस्था मान्यता, आकांक्षा आदि के नामों से पुकारा गया है। मनोविज्ञान की भाषा में इन्हें संचित संस्कार, दृष्टिकोण एवं अभ्यस्त आदतें कहते हैं। ईमान या नीयत इसी का नाम है। हम क्या चाहते हैं इसी आधार पर क्या सोचते और क्या करते हैं−इसकी पृष्ठभूमि बनती है। अपने इरादों का नंगा रूप मनुष्य स्वयं ही समझ सकता है। यदि वे घटिया हैं−अनैतिक एवं असामाजिक हैं तो उनका निराकरण स्वयं ही करना चाहिए। प्रौढ़ता इसी आत्म−शोधन का कार्य साहसपूर्वक सम्पन्न करती है। आत्म−निरीक्षण के लिए निष्पक्षता की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार दूसरों का पर्यवेक्षण तीखी दृष्टि से किया जाता है उसी से अपना भी किया जा सके तो वे त्रुटियाँ समझ में आती हैं जो सामान्यता पकड़ में ही नहीं आती। स्वभाव का अंग बन जाने से और अभ्यास में आते रहने से वे इतनी आत्मसात हो जाती हैं कि यह पता लगाना ही कठिन पड़ता है कि अपने में भी कुछ कमियाँ हैं। आत्म−ज्ञान का पूर्वार्ध यह है कि अपनी नीयत में मानवी स्तर से नीचे के जो भी तत्व घुसे पड़े हों उन्हें समझा जाय और उन्हें निरस्त करके रहने का ही निश्चय किया जाय। आन्तरिक प्रौढ़ता में मानवी आदर्शवादिता और उत्कृष्टता के तत्वों का समुचित समावेश होना आवश्यक है। निकृष्टता अन्तःकरणों में घुसी रहेगी तो कभी कोई मनुष्य व्यक्तित्व की दृष्टि से प्रौढ़ परिपक्व न बन सकेगा।

आत्म ज्ञान का उत्तरार्ध यह है कि जिन सद्गुणों के आधार पर मनुष्य ऊँचे उठते और आगे बढ़ते रहे हैं उनकी आवश्यकता अनुभव की जाय और उन्हें स्वभाव का अंग बनाने के लिए जुट जाया जाय। यह प्रयास तब तक जारी रहने चाहिए जब तक वे पूरी तरह स्वभाव के सहज अंग न बन जायें।

बहुधा अपने सम्बन्ध में लोग बहुत ही हीन विचारों से भरे रहते हैं। जिस तरह दुस्साहस भरे काम करने के लिए सोचते हुए डर लगता है उसी प्रकार खरा व्यक्तित्व बनाने के लिए जिस प्रखरता की जरूरत पड़ती है, उसका विकसित होना भी कठिन लगता है। छोटे−छोटे सत्संकल्प करने पर भी वे निभा नहीं पाते बड़े किस प्रकार पूरे हो सकेंगे। यह आशंका मन पर छाई रहती है और डरते काँपते जो किया जाता है वह पूरा हो भी नहीं पाता। यहाँ संकल्प शक्ति की आवश्यकता है। दृढ़ निश्चय और आत्मविश्वास के साथ सद्गुणों की सम्पदा उपार्जित करने के लिए कदम बढ़ाये जायं तो उनके पूरे होने में फिर कोई कठिनाई शेष न रह जायगी। बहुत से लोग ऐसे हुए हैं जिनमें पहले कुछ भी विशेषता नहीं थी। अयोग्य समझे जाते थे और उनकी संरचना ही घटिया मान ली गई थी, पर जब वे कुछ करने और बनने के लिए कटिबद्ध हो गये तो असफलताओं और अवरोधों के होते हुए भी रास्ता रुका नहीं। झगड़ते−जूझते, गिरते−पड़ते जिनने प्रगति के प्रयास जारी रखे वे सफलता की ऊँची मंजिल तक पहुँच कर रहे हैं। उत्साह पानी के बबूले जैसा क्षणिक हो तो बात दूसरी है। प्रौढ़ता के साथ जुड़ा हुआ आत्म−ज्ञान ऐसे ही मस्तिष्क की कोठरी में संचित होकर बैठ नहीं जाता वरन् दो मोर्चों पर लड़ाई लड़ता है। दोनों हाथों से तलवार चलाना है। एक ओर अपने घटियापन का उन्मूलन और दूसरी ओर श्रेष्ठताओं का सम्वर्धन। इन प्रबल प्रयासों में निरत व्यक्ति को आत्मोत्कर्ष को साधना में निरत प्रौढ़ता सम्पन्न मनस्वी या तपस्वी कहा जा सकता है।

वाल्टर लिपमन कहते थे− प्रौढ़ व्यक्ति आशावादी तो होते हैं, पर आतुर नहीं। दूसरे लोग तुर्त−फुर्त हमारे आदेशों का पालन करने लगेंगे। हमारी इच्छानुरूप परिस्थितियाँ चुटकी बजाते बन जायेंगी, ऐसा सोचने वाले आशावादी नहीं आतुर होते हैं। वस्तुओं को तोड़−फोड़कर दूसरे रूप में बदलना जल्दी भी हो सकता है, पर मनुष्यों या परिस्थितियों को हमारी इच्छानुरूप तुरन्त ढल जाने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। प्रयत्न जारी रखे जाने चाहिए। जितना सत्परिणाम निकले उस पर सन्तोष व्यक्त करते हुए आगे की चेष्टा और भी अधिक उत्साह के साथ करनी चाहिए। समय के बारे में आतुर नहीं होना चाहिए। परिवर्तन दूसरों के सहयोग, साधन एवं परिस्थितियों पर निर्भर है जो बात अपने हाथ की नहीं, उसके लिए आतुरता क्यों बरती जाय। ऐसे उतावले लोग ही निराश होते देखे जाते हैं और अपने सत्प्रयत्नों को तनिक−सा विलम्ब लगते देखकर प्रायः छोड़ ही बैठते हैं। प्रौढ़ता की मनःस्थिति में ऐसा नहीं होता। बीज बोने के दिन से लेकर छायादार वटवृक्ष बनने में उगाने वाले को सतर्क श्रम ही नहीं करना पड़ता उपयुक्त अवसर आने की प्रतीक्षा भी धैर्यपूर्वक करनी पड़ती है। यह प्रौढ़ता का चिन्ह है। ऐसे ही लोगों पर निराशा के अंधेर का आक्रमण नहीं होता बल्कि वह उनकी आशाओं का दीपक जलाते रहकर उज्ज्वल भविष्य का आश्वासन देने वाला प्रकाश बनाये रहता है।

प्रौढ़तावान दूसरों के मुँह से अपनी प्रशंसा सुनने के लिए व्याकुल नहीं रहते। न निन्दा सुनकर विक्षुब्ध होते हैं। संसार में असंख्य मनुष्य रहते हैं और उनकी आकृति ही नहीं प्रकृति भी एक दूसरे से भिन्न होती है। वस्तुस्थिति को ठीक तरह समझकर योग्य समीक्षा करने का अवसर भी उनके पास नहीं होता। ऐसी दशा में लोगों के मुँह से सुनी जाने वाली निष्ठा या प्रशंसा प्रायः एकांगी उथली एवं अवास्तविक होती है। अबोध उच्चारण से प्रसन्न या अप्रसन्न होने से कोई बुद्धिमानी नहीं है। बहुत से लोग कारणवश ठकुर सुहाती कहने की कला में निष्णात होते हैं और अवास्तविक प्रशंसा करके मैत्री जोड़ते और उसका लाभ उठाते देखे जाते हैं। प्रशंसा उनका स्वाभाविक गुण नहीं होता उसे वे कला की तरह प्रयुक्त करते हैं और सामने वाली की मानसिक दुर्बलता का लाभ उठाते हैं। ऐसी प्रशंसा के लिए लालायित रहना और उसके आधार पर अपने बड़प्पन का गर्व करना व्यर्थ है इसी प्रकार निन्दा के कारण शत्रुता, ईर्ष्या या गलतफहमी, सुनी बातों पर विश्वास कर बैठना जैसे अनेक कारण हो सकते हैं जिनके कारण अवास्तविकता को वास्तविकता मान लिया गया हो अथवा वस्तुस्थिति को समझते हुए भी बदनाम करने का इरादा किया गया हो।

निन्दा और स्तुति को इतना ही महत्व दिया जाना चाहिए कि जो कहा जा रहा है उसे ध्यानपूर्वक सुना जाय और यह देखा जाय कि उन प्रिय−अप्रिय कथनों में क्या सचाई का कुछ अंश है। जितनी यथार्थता हो उससे प्रकाश ग्रहण किया जाय। प्रशंसा से अपने बढ़े हुए गुणों को अधिक बढ़ाने की और निन्दा से अनुपयुक्त को सुधारने की प्रेरणा ली जाय। अत्युक्ति करने वालों को शान्तिपूर्वक वस्तुस्थिति बताई जा सकती है। फिर भी दूसरे लोग अपनी स्थिति के अनुरूप कुछ कहते ही रहे तो उन पर ध्यान न देते हुए अपने काम में लगे रहा जाय। बचकानी बुद्धि निन्दा, स्तुति को बहुत महत्व देती है और उतने मात्र से अपना सन्तुलन गँवाती रहती है। प्रौढ़ता का तकाजा है कि लोगों की निन्दा स्तुति को वस्तुस्थिति समझने और भावी सुधार परिवर्तन के लिए कुछ प्रेरणाप्रद तत्व हों तो उन्हें शिरोधार्य करके शेष को कूड़े−कचरे की तरह बुहार फेंकना ही उचित है। इसमें व्यर्थ ही विभाग उलझता है और अपनी सामान्य गतिविधियाँ शान्त चित्त से जारी रख सकने में भारी कठिनाई उत्पन्न होती है।

प्रौढ़ता की दृष्टि में साधन संग्रह की सफलता का मुख्य स्वरूप होता है। इसलिए वह बड़प्पन के लिए लालायित नहीं रहती। सफलताएँ और सम्पदाएँ अवांछनीय तरीकों से भी पाई जा सकती हैं। यश के लिए चाटुकारी का उपयोग हो सकता है। पैसा खर्च करके अथवा उस्तादी के आधार पर वाहवाही लूटी जा सकती है यह उपार्जन ओछा है। बाल बुद्धि ही इससे बहकाई जा सकती है। आत्म सन्तोष, आत्म गौरव और आत्म कल्याण की सम्भावनाएँ तो उत्कृष्ट दृष्टिकोण और आदर्श क्रिया−कलाप के आधार पर विकसित होने वाली महानता के सहारे ही बनती है। व्यक्तित्व में महानता का समावेश ही वस्तुतः जीवन की सच्ची सफलता और वास्तविक सार्थकता है जिससे इस स्तर की मान्यताएँ बन सकें, जिसकी प्रखरता से मनुष्य अनुकरणीय व्यक्तित्व का निर्माण कर सके, समझना चाहिए उसी का आन्तरिक प्रौढ़ता प्राप्त हो रही है जिससे मनुष्य का गौरव उसके बचपन से नहीं उस प्रौढ़ता से है जो अपने को ऊँचा उठाने दूसरों को आगे बढ़ाने में समर्थ हो सके।

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