हम ब्रह्माण्ड में अकेले हैं क्या?

February 1978

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रात आती है तो आकाश में अरबों जगमगाते तारागणों, आकाश गंगाओं और नीहारिकाओं से ऐसे जगमगा उठता है मानो किसी बहुत बड़े राजकुमार की बारात निकल रही हो। टिमटिमाते हुए तारागण चिरकाल से मानव मन में यह जिज्ञासा जगाते रहे कि क्या इस ब्रह्माण्ड में हम अकेले ही है या फिर पृथ्वी की तरह अन्यत्र भी जीवन और विकसित सभ्यता की सम्भावना है

इस प्रश्न के सुलझ जाने से और कोई लाभ हो या नहीं पर एक बात निश्चित है, तब मानवीय दृष्टिकोण और चिन्तन स्वार्थ−संकीर्णता की अँधेरी गुफा में ही कैद नहीं रह सकेगा। संसार के यथार्थ को समझने में कोई बहुत बड़ी बाधायें नहीं है। विराट् के साथ तादात्म्य की अनुभूति की सारी सम्भावनायें मानव−मन में विद्यमान है, पर जब उसे अन्तः प्रक्रिया पर दृष्टिपात का अवसर मिले तब न? उसने तो माया−मोह के भ्रम जाल में, मेरे तेरे की संकीर्णता, काम क्रोध की कुत्सा और इन्द्रिय सुखों की ललक इस चार दीवारी में ही अपने को उस तरह बन्दी बना लिया है जिस तरह पिंजड़े में कैद शुक पिंजड़े के द्वार खोल देने पर भी उन्मुक्ति को कपोल कल्पना मान लेता है ओर फिर−फिर पिंजड़े में कैद हो जाता है। दृष्टिकोण विशाल बने तो ही सम्भव है कि जीवन के उच्च रहस्य हमारे सामने अभिव्यक्त हो और हम उच्च−आदर्शों और कर्तृत्व में आरूढ़ हों।

इन दूरबीनों के माध्यम से देखे गये सुदूर नक्षत्रों पर अपने विचार व्यक्त करते हुए सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो॰ डॉ॰ बिल्ली ने स्पष्ट किया है कि ब्रह्माण्ड में 180000000 ग्रह ऐसे हैं जहाँ किसी न किसी रूप में जीवन अवश्यम्भावी है। 18 हजार ऐसे है जिनमें मनुष्य की तरह के विचारशील प्राणी तथा न्यूनतम 180 तो ऐसे है जो पंचभौतिक तत्वों की अत्यन्त सूक्ष्मतम जानकारियों से ओत−प्रोत है। हमारे उपनिषद् और पुराण इन तथ्यों का विधिवत समर्थन करते हैं।

इस कल्पना को हवाई उड़ान नहीं कह सकते। एक समय के वैज्ञानिक पूर्वानुमान (यूरोपिया) आज सच हो रहे हैं तो यह आधार नितान्त कल्पनायें हों ऐसा नहीं कहा जा सकता। पृथ्वी का आविर्भाव 4000000000 वर्ष पूर्व का माना जाता है और आदमी की तरह के जीव का जन्म 10 लाख वर्ष पूर्व माना जाता है। देखने में यह अवधि बहुत लम्बी लगती है किन्तु यदि ब्रह्माण्ड के साथ उसकी तुलना करें तो यह मात्र कल की घटना लगेगी।

बायोकेमिस्ट डॉ॰ एस मिलर ने प्रकाश स्रोतों की रासायनिक संरचना के विश्लेषण के बाद यह बताया है कि ऐसे समुन्नत और जीवधारी ग्रहों की संख्या 1 लाख से किसी भी स्थिति में कम नहीं होनी चाहिए। अन्य वैज्ञानिक गवेषणाओं से 1.2 मिलियन अर्थात् 12 लाख तारों में जीवधारियों की उपस्थिति के पुष्ट प्रमाण मिले हैं। उनकी शारीरिक बनावट, अंग सज्जा, शारीरिक रसायन, स्वभाव, खान−पान, रहन−सहन भिन्न प्रकार के हो सकते हैं किन्तु जीवधारी होने का अर्थ उनमें विचार, ज्ञान, अनुभूति, भावनाओं, सम्वेदनाओं वाला अंश वही होगा जो जीवन के लक्षण के रूप में अपनी धरती में विद्यमान है। यह तथ्य जीवन की सार्वभौमिकता के सिद्धान्त की भी पुष्टि करते हैं और विस्फोटक से ब्रह्माण्ड विकास की तरह वे एक तत्व से सब जग ‘निर्मया’ सिद्धान्त से भी इनकार नहीं करते।

ऑक्सीजन के बिना जीवन नहीं रहता । अब तक लोगों की यह मान्यता थी पानी न मिले तो अधिक से अधिक 2−4−10 दिन काटे जा सकते हैं किन्तु हवा न मिलने पर तो एक क्षण भी जीवित रहना असम्भव है−यह बात अब गये जमाने की बात हो गई। अभी एक ऐसे एनोरोबिक जीवाणु का पता चला है जिसे ऑक्सीजन जहर की तरह लगती है। ऑक्सीजन जहाँ न हो वह ऐसे ही मनुष्य के लिये विषाक्त वातावरण में जन्म लेता और परिपुष्ट होता रहता है। उसने अपनी एक न्यारी दुनिया बनाई हुई है जहाँ न कोई और जा सकता है और न वह स्वयं भी दूसरी जगह जाता है। “खग जाने जग ही की भाषा, ताते उमा गुप्त करि राखा” वाली कहावत है एक दूसरे के भेद का पता न लगे इसीलिये विधाता ने संसार को एक दूसरे से छिपाकर बनाया है अन्यत्र जीवन न होने की कल्पना सम्भवतः इसी कारण उठती है कि लोग अपनी भाषा से अतिरिक्त किसी और की पूर्णता पर विश्वास ही न रखते हों। इस संकीर्ण दृष्टिकोण के बिना तो हम अपने पड़ोसी से भी अनभिज्ञ बने रहते हैं विराट् सृष्टि के बारे में तो कहना ही क्या?

अभी−अभी संसार के उच्च श्रेणी के वैज्ञानिकों के दो प्रयोगों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी से भिन्नतर परिस्थितियों, वातावरण, जलवायु, भू-गुरुत्वाकर्षण, विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र और अणु विकरण वाले क्षेत्रों में भी जीवन रह सकता है। बिस्टल यूनिवर्सिटी के नक्षत्रविद डॉ॰ हिटेन व डॉ॰ ब्लम ने कुछ गिनी पैग को 100 से॰ ग्रे॰ पर सुखाया (स्वाभाविक है कि उनकी मृत्यु हो गई) फिर उन्हें हीलियम द्रव में डाला गया जिसका शून्य डिग्री से भी नीचे, तापमान होता है। फिर उस पर तेज विकिरण डाला गया। वह स्वयं भी यह देखकर आश्चर्य चकित रह गये कि उन गिनीपिगों में फिर से जीवन आ गया। उनका शरीर ठीक काम करने लगा उन्होंने बच्चे भी दिये जो पूर्ण स्वस्थ थे। यह तथ्य इस बात के प्रमाण हैं कि जीवन कठोर ग्रीष्म और भयंकर शीत में भी रह सकता है। ज्वालामुखी क्षेत्रों में तो ऐसे जीवाणु (बैक्टीरिया) पाये जाते हैं जो पत्थर खाते और मल के रूप में लोहा बनाते हैं।

डॉ॰ सीगेन ने तो अपनी प्रयोगशाला में वृहस्पति का वातावरण तैयार कर उसमें बैक्टीरिया और माइट्स को उत्पन्न भी कर दिखाया (वृहस्पति अमोनिया मीथेन और हाइड्रोजन का क्षेत्र है) इस वातावरण में यह जीव नष्ट नहीं हुये, तब फिर यह नहीं कहा जा सकता कि चन्द्रमा के अति शीतल और बुध के उस भाग में जो आजीवन सूर्य की ओर उन्मुख है उस महा ग्रीष्म में जीवन नहीं हो सकता, यह तथ्य उस मान्यता को ध्वस्त कर डालते हैं।

कुछ भी हो ब्रह्माण्ड में जीवन की दृष्टि से पृथ्वी का एकाधिकार नहीं हो सकता है। इसकी तरह के अरबों नक्षत्र हवा में तैर रहे हैं उनमें लाखों जीवधारियों की विकसित और समुन्नत बस्तियां होगी न जाने कब मनुष्य उन्हें देख पायेगा, वहाँ तक जा भी पायेगा?

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