मानवी आस्था आस्तिकता पर ही निर्भर है।

February 1978

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बौद्धिक उतार−चढ़ाव, तर्क−वितर्क हमारे क्रिया−कलापों को अधिक लाभदायक और सुरक्षा युक्त बनाने में सहायता करते हैं, पर वे जीवन को कोई दिशा या प्रेरणा नहीं देते। किसी विचार से सहमत होने पर भी आवश्यक नहीं है कि उसे कार्यान्वित करने का उत्साह उभरे ही। जो करते हैं उसका आनन्द सामान्यतया तब मिलता है जब सफलता मिलती है। असफलता मिले तो दुःख होगा। यह बौद्धिक अनुभूति हुई। आन्तरिक आस्थाओं का प्रभाव इससे कहीं गहरा है। उच्च आदर्शों के प्रति निष्ठावान रहने भर की मान्यता दृढ़ रहे तो इतने भर से कोई व्यक्ति अपनी उत्कृष्टता पर गर्व कर सकता है। यह आस्थाओं का चमत्कार है जो बिना सफलताओं के भी मात्र अपनी आन्तरिक उपस्थिति भर से अन्तःकरण को उल्लास से भरे रहती है।

आस्थाएँ प्रेरणा भरती है, गति देती है, बढ़ने के लिए गति और सोचने के लिए प्रकाश प्रस्तुत करती है। उत्कृष्टता की दिशा में बढ़ सकना आस्थाओं की उपस्थिति के बिना, हो ही नहीं सकता। निष्ठा से संकल्प उठता है और संकल्प से साहस और पराक्रम उभर कर आता है। तन्मयता और तत्परता इसी अन्तःस्थिति में किसी प्रयास से नियोजित होती है और मन एवं कर्म का ऐसा स्तर बन पड़ने पर ही महत्वपूर्ण प्रगति सम्भव होती है। सोचने से पता चलता है कि बुद्धि की अपनी उपयोगिता होते हुए भी श्रद्धा की शक्ति असीम है। इसलिए श्रद्धा को ही जीवन कहा गया है। व्यक्तित्व और कुछ नहीं−श्रद्धा का प्रतिबिम्ब परिचय भर है। गीताकार की यह उक्ति दर्शन के मर्म को स्पर्श करती है−

“श्रद्धामयो यं पुरुष यो यच्छ्रद्धः स एव स।”

यह व्यक्ति श्रद्धामय है। जिसकी जैसी श्रद्धा है वह वैसा ही है। यथार्थता यही है। शरीर की बनावट और मस्तिष्कीय कुशलता का महत्व होते हुए भी उनका व्यक्तित्व के स्तर का निर्माण करने में कोई विशेष योगदान नहीं है। मनुष्य के व्यक्तित्व की ढलाई श्रद्धा की भट्टी के सान्निध्य में होती है। इस श्रद्धा तत्व की गरिमा को यदि स्वीकार किया जा सके तो यह भी मानना पड़ेगा कि उसे विकसित, परिष्कृत एवं परिपक्व करने के लिए आस्तिकता की मान्यता का अवलम्बन लेना आवश्यक है। ईश्वर के अस्तित्व की आस्था और उसके साथ तादात्म्य बिठाने के प्रयास में इतना लाभ प्रत्यक्ष मिलता है कि मनुष्य की आदर्शवादी निष्ठाएँ परिपक्व होती है और उसके सहारे व्यक्ति ऐसा बनता है जिसमें आत्मा के अस्तित्व का परिचय भीतरी और बाहरी दोनों क्षेत्रों से प्राप्त किया जा सके।

ईश्वर के विकृत स्वरूप का ही इन दिनों प्रचलन है। भक्त लोग उसे तरह−तरह से फुसलाने की विडम्बनाएँ रचते और उन दाव−पेचों से अपने स्वार्थ पूरा करने के मनसूबे बाँधते रहते हैं। कम से कम मूल्य से अधिक से अधिक लाभ पाने का मनोरथ उन्हें ईश्वर की पूजा−पत्री से मिलने की आशा जब तक रहती है तब तक उसमें आधा−अधूरा उत्साह भी रहता है और जैसे ही उस प्रकार का लाभ संदिग्ध दीखता है वैसे ही तथाकथित भक्ति भावना भाप बनकर आसमान में उड़ जाती है। बात इस प्रकार की भ्रम विकृति की नहीं−यथार्थवादी आस्तिकता की चल रही है। उसका असली लाभ उस उच्चस्तरीय आस्था का निर्माण करना है जिसे श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा को महानता का बीज कह सकते हैं वही उगता, बढ़ता और परिपुष्ट होता है तो जीवन वृक्ष को स्वर्गस्थ कल्प−वृक्ष के समतुल्य बना देता है। चेतना का वर्चस्व उसी से निखरता है। नर−वानर का मानव, महामानव, अतिमानव की दिशा में बढ़ चलने का साहस एवं बल श्रद्धा के सहारे ही सम्भव होता है। श्रद्धा और आस्तिकता का एक दूसरे के साथ अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। ईश्वर का प्रत्यक्ष अनुग्रह श्रद्धा के रूप में ही मिलता है और जैसे इस तत्व की जितनी उपलब्धि हो जाती है उसके जीवन को वन्दनीय बनने की सम्भावना उसी अनुपात से परिपुष्ट होती चली जाती है। इस स्थिति को ऋषियों और सिद्धियों की जननी कहा जा सकता है। आस्तिकता का यह परोक्ष प्रतिफल है जिसमें सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं है। पूजा का प्रत्यक्ष प्रतिफल मिलने में सन्देह होने पर भी इस श्रद्धा के वरदान को असाधारण वरदान की ही संज्ञा दी जा सकती है।

जीवन में प्रिय और अप्रिय प्रसंगों की कमी नहीं। सफलताएँ न मिलती हों ऐसी बात नहीं, पर असफलताओं, हानियों, विछोहों और दुर्घटनाओं की भी कमी नहीं। प्रतिकूलताओं से आदमी टूटता है और कई बार किंकर्त्तव्य-विमूढ़ होकर ऐसा सोचने और ऐसा करने लगता है जिससे प्रस्तुत हानि से भी बढ़ी−चढ़ी दुर्घटना खड़ी हो जाती है। टूटा व्यक्ति अपने ऊपर से आस्था खो बैठता है और प्रकाश की ज्योति खो बैठने से अन्धकार में भटकता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य जीवित तो रह भी सकता है, पर उज्ज्वल भविष्य की आशाएँ एक प्रकार से गुम हो जाती है। इस स्थिति को प्रत्यक्ष दुर्घटनाओं से भी अधिक भयानक कह सकते हैं, यद्यपि वह दीखती नहीं, पर दुष्परिणामों की दृष्टि से उसकी विभीषिका कम नहीं होती। ईश्वर विश्वास यदि वास्तविक हो तो इस प्रकार के दुहरे प्रहार से बच सकना सम्भव हो सकता है। बाहरी कठिनाइयाँ कितनी ही बढ़ी−चढ़ी क्यों न हों आन्तरिक साहस और सन्तुलन के रहते सहज ही सरल हो सकती। यह आत्म−ज्योति श्रद्धा का तेल पाकर ही जलती है। ईश्वर विश्वासी अनुभव करता है कोई दिव्य शक्ति उसके साथ है। लोगों का सहयोग छूट जाने पर भी वह सहारा देगी। दूसरे साथ छोड़ सकते हैं, पर माता का दुलार कुपुत्र के प्रति भी बना रहता है। ईश्वर की करुणा पतित पर, पथभ्रष्ट पर भी बरसती है और डरावनी विभीषिकाओं के बीच भी अपने आँचल में आश्रय देती है। जो उस आश्रय पर विश्वास करते हैं उन्हें उज्ज्वल भविष्य की ज्योति घोर अन्धकार की घड़ियों में भी दीख पड़ती है और उतना भर आसरा मिलने से मनुष्य डूबने से बच जाता है। फिर से उठ खड़ा होने का अवलम्बन प्राप्त कर लेता है।

जागृत और भावना युक्त आत्माएँ ही ईश्वर का सान्निध्य और अनुग्रह प्राप्त कर पाती है। इस सन्दर्भ में सूफी कवि हफीज ने अपने एक संस्मरण में लिखा है । एक रात उसके गुरु ने आवाज देकर किसी शिष्य को बुलाया। सब सो रहे थे अकेला हफीज ही जाग रहा था सो वह उठ कर आया। गुरु ने उसे बहुत-सी महत्वपूर्ण बातें बताई। इसके बाद फिर गुरु ने आवाज देकर किसी शिष्य को आने के लिए कहा और सब तो सो रहे थे अकेला हफीज ही जब रहा था सो वह फिर जा पहुँचा और इस बार भी वह लाभदायक ज्ञान नोट करके लाया। उस रात इसी प्रकार पाँच बार पुकार हुई और हर बार हफीज ही पहुँचता और ज्ञान पाता रहा। कवि ने लिखा है−गुरु के इस विशेष अनुग्रह और शिष्य के लाभान्वित होने के सौभाग्य के पीछे जगना ही कारण था। अन्य छात्रों की तरह यदि वह भी सो रहा होता तो उस लाभ से वंचित ही रहना पड़ता जो केवल उसे ही मिल सका।

अरविन्द कहते थे−ईश्वर दर्शन के लिए आत्मा की ज्योति का आलोक रहना आवश्यक है। अन्यथा अन्धकार में समीप रहते हुए भी अन्य पदार्थों की तरह ईश्वर को भी नहीं देखा जा सकेगा। आत्मा की ज्योति तीन धाराओं में बहती है−जागरुकता, सतर्कता और चैतन्यता। जिसका अन्तःकरण जागृत है−जिसका विवेक सतर्क है और जिसकी क्रियाशीलता में चैतन्यता का समावेश है वह हर क्षेत्र में सफल होता है। इन्हीं सफलताओं में से एक ईश्वर का साक्षात्कार भी है।

जी. एल. गोल्डस्मिथ कहते थे−“भगवान् मनुष्य की अन्तरात्मा है और वह सदा सत्य की ओर उन्मुख रहती है। कोई अपनी उस अन्तरात्मा से विमुख नहीं हो सकता, जो विश्वात्मा का ही एक अंग है। ऐसी दशा में किसी का भी सच्चे अर्थों में नास्तिक बन सकना सम्भव नहीं। यह बात दूसरी है कि ईश्वर सम्बन्धी किन्हीं मान्यताओं से चिढ़ कर कोई उस समूची सत्ता से ही इनकार करने का आक्रोश व्यक्त करने लगे।” मनुष्य एक ऐसी चेतना से सम्पन्न है जो ऊँचा उठना, श्रेष्ठ बनना और शान्ति पाना चाहता है। यही है आत्मा जो हर किसी के भीतर विद्यमान है। चलने की दिशा का निर्णय करने में ही लोग भटकते हैं। आकांक्षा सर्वत्र एक ही रहती है। असफलता एवं विपन्नता से जब मन उद्विग्न हो रहा हो, तो उसे केवल आत्मा के अंचल में ही शान्ति मिल सकती है । वैभव और वर्चस्व आत्मा में सन्निहित है। कष्टग्रस्त तो शरीर होता है। आत्मा को पहचाने पर अपनी सुसम्पन्नता और सुखद भवितव्यता पर विश्वास बना रहता है। जहाँ इस प्रकार की आस्था रहेगी वहाँ विपन्नताओं से न तो असह्य उद्विग्नता होगी और न निराशा का भार ही वहन करना पड़ेगा।

कोई ईश्वर से विमुख होने की बात कह सकता है, पर सत्य से विमुख होने का साहस नहीं कर सकता। मिथ्याचारी भी सच्चाई का प्रतिपादन करता है और अपने प्रति दूसरों से सत्य व्यवहार की ही अपेक्षा करता है। दुष्टता में खिन्नता और सज्जनता में प्रसन्नता आत्मा की प्रकृति है। उसे अपने व्यवहार में कोई भले ही उपेक्षित करता रहे फिर भी दूसरों के व्यवहार दर्पण में उसे देखने के लिए आकांक्षा बनी ही रहती है। स्वयं को भी सन्तोष तब मिलता है जब कुछ उदार सद्व्यवहार बन पड़ता है। यही है आत्मा का आस्तित्व जिससे इनकार कर सकना न नास्तिक के लिए सम्भव है और न आस्तिक के लिए । हम आत्मा को झुठलाने का प्रयत्न कर सकते हैं, पर इसमें सफलता किसी को भी मिल नहीं सकती। अपने अस्तित्व से अपनी मूल प्रकृति में समाये हुए सत्य, श्रेष्ठ और सन्तोष के प्रति आस्था रखे बिना किसी का भी काम नहीं चल सकता इसलिए आत्मा के अस्तित्व से इनकार करने वाला भी आत्म−विश्वास का परित्याग कर सकने में समर्थ और सफल नहीं हो सकता।”

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