गुरु मच्छिन्द्रनाथ (kahani)

February 1978

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गुरु मच्छिन्द्रनाथ को एक बार सोने की ईंट दान में मिली तो उन्होंने उसे स्वीकार कर अपनी झोली में डाल लिया अपनी झोली को अब वे अधिक संभालकर रखने लगे। एक बार वे अपने शिष्य गोरखनाथ के साथ बीहड़ वन में होकर जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने अपनी झोली शिष्य को दे दी व उसे संभालकर चलने को कहा− जैसे−जैसे जंगल गहन होता जाता था व संध्या होती जाती, मच्छिन्द्रनाथ चिन्तातुर होने लगे। शिष्य ने पूछा− “गुरुदेव आप किसी अज्ञात भय से व्याप्त दिख रहे हैं, कृपया अपने भय व चिन्ता का कोई कारण हो तो बतावें। मच्छिन्द्रनाथ ने कहा− बेटा अपने साथ सोने की ईंट है मुझे डर है कहीं कोई चोर डाकू उसे हमसे छीन न ले।

शिष्य गोरखनाथ ने गुरु को निश्चिन्त हो बताया “गुरुदेव मुझे भी झोली भारी लग रही थी, मैंने देखा सोने की उस ईंट के कारण ही व इतनी बोझिल थी सो मैंने उसे रास्ते में फेंक दिया है, मैं तो इस तरह हल्का हो ही गया हूँ अब कृपया आप भी भय मुक्त हो जायं।”

अपने शिष्य की यह उक्ति सुन मच्छिन्द्रनाथ मन ही मन लज्जित हुए व सोचने लगे− सच है अनावश्यक सम्पत्ति के बोझ से ही मनुष्य में भय व आसक्ति होती है।

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