नियामक सत्ता से सम्बद्ध न रहें तो?

February 1978

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“इलेक्ट्रिकल रिव्यू” नामक पत्रिका के अंक में चिकित्सा शोध−समूह द्वारा दी गई इस खोज का विवरण प्रकाशित हुआ है कि मानव शरीर की विद्युत क्षमता का पर्यावरण के विद्युतीय दबाव से घनिष्ठ अन्तःसम्बन्ध है। हमारे अयन मंडल में जब भी कोई गम्भीर उथल−पुथल होती है उसका प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे शरीर की सामान्य जैव विद्युत चुम्बकीय शक्ति पर पड़ता है, उससे सामान्य क्रियाशीलता गड़बड़ा जाती है। उस उथल−पुथल को सन्तुलित करने के लिए शरीर में कई तरह की मानसिक व शारीरिक व्याधियां उठती दिखाई देती हैं, जिन्हें हम रोग व शोक की संज्ञा देते हैं। विचार पदार्थ को किस प्रकार प्रभावित करते हैं उसका यह स्पष्ट उदाहरण है कि मनोसंस्थान में उतरा यह प्रभाव अविलम्ब शरीर के नाड़ी संस्थान में फैल जाता है और शरीर का जो अंग कमजोर हुआ वही वह किसी रोग या बीमारी के रूप में उसी तरह फूट पड़ता है जैसे भयग्रस्त व्यक्ति को चोर, बदमाश अस्थिर और दुर्बल चित्त लोगों को भूत प्रेत हैरान करते रहते हैं।

यह एक विलक्षण सत्य है कि प्राणि−जगत की मनोदैहिक अवस्था को प्रभावित करने वाला वातावरण का चुम्बकीय परिवर्तन स्वायंभु नहीं अपितु वह उथल−पुथल का परिणाम होती है। प्राकृतिक परमाणु से इस दबाव को चलते−फिरते झेल जाते हैं, किन्तु अपनी जीवनचर्या में कृत्रिमता का लबादा ओढ़े इन्सान तनिक से परिवर्तन से ही लड़खड़ा जाता है। महामारियाँ आती हैं तो एक साथ हजारों लोगों को मार जाती हैं, सामान्य से ऋतु परिवर्तन से कितने ही लोगों को सर्दी, जुकाम और टाइफ़ाइड तक हो जाता है, किन्तु जिन व्यक्तियों के आहार−बिहार, रहन−सहन, खान−पान में प्राकृतिक साहचर्य घुला हुआ रहता है वे उसे हलके से बोझ की तरह हँसते-खेलते झेल जाते हैं। उन्हें किसी संकट या बेचैनी का सामना करना नहीं पड़ता है। तालाब का पानी स्वच्छ और स्थिर हो तो सूर्य का प्रतिबिम्ब उतना ही स्वच्छ और चमत्कार दिख जायेगा, किन्तु यदि उसे किसी ने घेर रखा हो और पानी अस्थिर हो तो वह बिंब इस तरह बिखर जायेगा कि उसका स्वरूप ही समझ में नहीं आयेगा।

विश्व व्यवस्था की दृष्टि से हर व्यक्ति परिवर्तनों का सामना करने के लिए विवश है। जीव−रसायन, जीवन−शास्त्रों की तरह इन दिनों विज्ञान की एक नई विद्या का विकास हो रहा है जिसे जीव−चुम्बकीय विज्ञान कहते हैं। वैज्ञानिक माइकेल गाक्वेलिन ने अपने अनुसंधानों द्वारा यह सिद्ध किया है। आकाशीय पिण्डों की चुम्बकीय शक्ति हमारे आनुवांशिक जीवन या कोशिका जगत को प्रभावित करती है। जन्म के समय चन्द्रमा के प्रभाव क्षेत्र में होने पर बालक के स्वभाव में साहित्यिक गुण पाये गये यदि प्रभाव शनि का रहा तो वह अच्छे डॉक्टर या वैद्य बनते देखे जाते और उसी तरह वह बालक जो बृहस्पतिवार की राशि में से जन्म लेकर बढ़ते हैं वे बौद्धिक सूझबूझ वाले, अभिनेता किस्म के होते हैं यह तथ्य वास्तव में इस बात के प्रतीक है कि हमारा जीवन ग्रहों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।

विभिन्न चुम्बकीय बल प्राणियों पर क्या प्रभाव डालते हैं? इसके अनुसन्धान के परिणामस्वरूप “बायो मैग्नेटिक्स” नामक चिकित्सा विधि का विकास किया गया है शिकागो की “बायो मैग्नेटिव रिसर्च फाउंडेशन” 15 वर्षों तक चूहों पर किये गये परीक्षणों से विदित हुआ कि इससे “कैन्सर सेल्स” की वृद्धि रोकी जा सकती है। इस प्रभाव में कैन्सर के कोशाणु बढ़ नहीं पाते। न्यूयार्क के डॉ॰ केई मैक्लीन ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है, लेनिन ग्राड चिकित्सालय में न्यूरोलॉजिकल वार्ड के रोगियों के लिए एक निश्चित चुम्बकीय क्षेत्र के प्रति सक्रिय रहने वाली आहार व्यवस्था की गई परिणामतः उनके गुर्दे की पथरी टूटकर घुलने लगी और रोगी को अपेक्षा से अधिक सुधार हुआ। इस दिशा में आगे के अनुसन्धान एक नई सम्भावना की ओर संकेत करते हैं जब मनुष्य केवल ग्रहों से मन को जोड़कर दैवी तत्वों से सीधे सम्पर्क का लाभ ले सकेगा। यह स्पष्टतः लोगों को देववाद और उपासना की ओर ले जायेगा। उपासना और कुछ नहीं दो चुम्बकीय शक्तियों के योग का ही नाम है। गायत्री उपासना से यह तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है।

गायत्री का देवता सविता−सूर्य है उससे उपासक में वहाँ को सद्यः स्फूर्त प्राण चेतना भरती और सूर्य की आन्तरिक स्थिति में जब भी परिवर्तन होता है हमारा पार्थिव जगत उसी अनुपात में प्रभावित होता है मनोमय−जगत में भी व्यापक हलचल उत्पन्न होती है। सूर्य बिम्ब में दिखाई देने वाले काले धब्बे जब−जब बढ़ते हैं पृथ्वी में व्यापक प्राकृतिक परिवर्तन होते हैं। इसी प्रकार सौर वायु सौर ज्वालाएँ तथा विकिरण भी भूकम्प, हृदय वे मानसिक रोगों तथा मानवीय विपत्तियों को बढ़ाते हैं। मंगल और वृहस्पति 90 अंश की कोणीय दूरी पर आते हैं उस समय अयन मण्डल में बड़ी तीव्र हलचल पैदा होती है। सौर विकिरण का मनुष्य की कोशिकाओं (जीन्स) में तीव्र असर होता है अर्थात् हमारे स्वभाव का भी सीधा सम्बन्ध सूर्य से जुड़ गया है। इन परिवर्तनों का केन्द्र बिन्दु कहाँ है यह कहना कठिन है, किन्तु सापेक्षवाद के जनक आइन्स्टीन के सापेक्षवाद सिद्धान्त के अनुसार उसका एक केन्द्र बिन्दु अवश्य होना चाहिए। हम चाहें तो उसे प्रकृति की व्यवस्था या परमात्मा का नियम कुछ भी कह सकते हैं। शरीर और मन की तरह ब्रह्माण्ड और उसका जैव चुम्बकीय तत्व भी एक अनिवार्य सत्य है अतएव जहाँ हमारी शरीर चर्या प्राकृतिक रहन−सहन से स्वास्थ्य अनुभव करती है। उसी प्रकार हमारा मनोमय कोश मन भी उसी के अनुरूप जीवन की मूल नैतिक आकांक्षा के अनुरूप रहना आवश्यक है, अन्यथा कोई भी छोटी−सी कठिनाई हमें निराशा के गर्त में धकेल सकती है।

सूर्य−मण्डल ही नहीं, विचार तन्त्र समस्त ब्रह्माण्ड में शरीर की नाड़ियों की तरह फैला हुआ है। चन्द्रमा की घटती−बढ़ती तड़ित झंझावात, परमाणु परीक्षणों का वायुमण्डल में चुम्बकीय परिवेश में पड़ा प्रभाव न केवल समुद्र, बादल, तापमान को प्रभावित करते हैं अपितु शरीर स्थिति विद्युतीय प्रक्रिया को अस्त−व्यस्त कर देते हैं, “दि लिव्हिंग ब्रेन” के लेखक डॉ॰ ग्रे वाल्टर ने इस तथ्य को उल्टे ढंग से यों प्रतिपादित किया है कि जब किसी को शारीरिक चोट लगती है, आहत स्थल की जीव विद्युतीय गतिविधि में प्रबल परिवर्तन होता है। उसी से मन पीड़ा अनुभव करता है। इसी तरह सृष्टि के किसी भी भाग में उत्पन्न दुर्दशा से मूल सत्ता का प्रभावित होना आवश्यक है, उन व्यवस्थाओं को सम्भालने के लिए परमात्मा आपात व्यवस्था की तरह तीव्र परिवर्तन करती है, उसमें हर प्राणी को भागीदार होना पड़ता है अतएव यदि इस तरह का कभी कोई दबाव पड़ता है तो कमाण्डर के इंगित पर सक्रिय हो उठने वाले प्रत्येक सिपाही की तरह ही हमें उन व्यवस्थाओं को मानने के लिए तैयार हो जाना चाहिए और आसुरी प्रवृत्तियों के निराकरण में, जुट जाना चाहिए। यह आदेश हमारी भावनाओं में विचारों में आते अवश्य हैं यदि हम उनकी उपेक्षा करते रहें और अपनी जीवन−शक्ति निरर्थक नष्ट करते रहें तो यही व्यवस्थाएँ हमारे लिए घातक हो जाती हैं। ऐसे व्यक्ति देर सवेर आपत्ति, असफलता, मानसिक उद्वेग में फंसकर अपनी शान्ति व प्रसन्नता ही गँवाते हैं।


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