अपनी उपयोगिता बढ़ाने में संलग्न रहें!

February 1978

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उपयोगिता की अभिवृद्धि ही प्रगति है। जो अपनी अपने साधनों की उपयोगिता बढ़ाने में संलग्न है वह प्रगतिशील है। अस्तित्व तो सभी का सामान्य है। उसका सामान्य पक्ष ही सहज सम्पर्क में आता है। जो महान है वह छिपा रहता है। उसे प्रयत्नपूर्वक ढूँढ़ना पड़ता है। धातु खदानें ढूँढ़नी पड़ती हैं, फिर उपलब्ध पदार्थ का परिशोधन करना होता है तब उपयोगी वस्तु हाथ लगती है। ढूँढ़ खोज न की जाय तो पैरों तले की जमीन में ही सोने की खदान का अस्तित्व रहने पर भी कुछ पता न चलेगा और उस भूमि पर पीढ़ियों से रहने वाला व्यक्ति दरिद्र ही बना रहेगा। ढूँढ़ने के बाद खुदाई के लिए गहरे उतरने, साधन जुटाने और कठोर श्रम करने की आवश्यकता होती है। कच्चे माल की भट्टियों में डालकर धातु से मिट्टी छुड़ानी पड़ती है। तब कही शुद्ध धातु के उपकरण, औजार बनते हैं। अपने व्यक्तित्व को उपयोगी बनाने के लिए लगभग इसी स्तर के प्रयास करने पड़ते हैं। इन्हें ही जीवन साधन कहते हैं।

अपना व्यक्तित्व सामान्यतया उतना ही दीख पड़ता है जितना कि खाने कमाने के काम आता है। यह उसका बहुत छोटा अंश है। इसकी क्षमता इतनी ही है कि उससे जीवन यात्रा की गाड़ी घिसटती चले। धान की तरह उगने और कटने में ही जिन्दगी समाप्त हो जाती है। पेट और प्रजनन की पूर्ति ही मानव−जीवन का लक्ष्य नहीं है। इतना तो कृमि−कीटक भी कुशलतापूर्वक कर लेते हैं। अन्तराल की गहराई में घुसा जाय− परिष्कृत दृष्टिकोण के वरमे से उसे खोदा जाय−तो पता चलेगा कि इसी भूमि में यह सब कुछ विद्यमान है जिसे जीवन सम्पदा का सार तत्व कहा जा सकता है और विश्व वसुधा का सारभूत वैभव।

हम अपनी उपयोगिता बढ़ाये। अपने लिए उपयोगी बनें−साथ ही परमात्मा एवं विश्व की समष्टि आत्मा के लिए भी। अनुपयोगी किसी के लिए भी न रहे। जो अपने लिए उपयोगी होता है। वह दूसरों के लिए भी उपयोगी हो सकता है। दूसरों की सेवा सहायता करने के लिए आवश्यक है कि हम अपने लिए अपने आपको उपयोगी बनायें।

उपयोगिता को घटाने में सबसे बड़ी बाधा अपनी ही बुरी आदतों की है जो सोचने और करने के दोनों ही यन्त्रों पर अपना आधिपत्य जमाये बैठी हैं। इन मलीनताओं को धो डालें तो अन्तर की पवित्रता स्वतः निखर पड़ेगी। दूसरों का तिरस्कार करके अपना मान बढ़ाना दूसरों का शोषण करके अपना वैभव बढ़ाना−उस मृगतृष्णा की तरह है जो देखने में सच मालूम पड़ते हुए वस्तुतः नितान्त मिथ्या होती है। भलाई और बुराई का ऐसा वर्गीकरण नहीं हो सकता जो अपने लिए एक तरह का और दूसरों के लिए दूसरी तरह का परिणाम उत्पन्न करे। आग औरों के लिए गरम और अपने लिए ठण्डी सिद्ध, हो ऐसा हो ही नहीं सकता। दूसरों के लिए अनुपयोगी सिद्ध होने वाला व्यक्ति अपने लिए भी घाटे का ही निमित्त बनता है। अपने लिए लाभदायक केवल वे ही व्यक्ति सिद्ध होते हैं जिन्हें दूसरों के लिए लाभदायक अनुभव किया जा सके। औरों को सुखी बनाये बिना कोई सुखी नहीं हो सकता। पेड़ लगाने पर औरों की तरह अपने को भी उसकी छाया में बैठने का अवसर मिलता है। औरों के लिए कुआँ जलाशय बनाने वाले उससे अपनी भी प्यास बुझाते हैं। इसी प्रकार स्वयं को मद्यपान का अभ्यासी बनाकर अपने शरीर, मन और धन की ही बर्बादी नहीं होती, पर सम्पर्क में आने वाले दूसरे लोग भी प्रकारान्तर से उसी बुरी आदत से हानि उठाते हैं। निन्दा का भाजन तो उन्हें भी होना पड़ता है । बुराई और भलाई की गतिविधियाँ अपने को और दूसरों को समान रूप से प्रभावित करती हैं।

बुराई छोड़ने वालों में से प्रत्येक को यह संकल्प करना पड़ता है कि जो की जा चुकी उन्हें फिर नहीं दुहरायेंगे और जिनके खतरे जानते हैं उन्हें करेंगे नहीं। इस प्रकार अभ्यस्त और अनभ्यस्त दोनों ही प्रकार के पातकों से छुटकारा मिल सकता है। स्वभावतः आत्मा पातकी नहीं है। पशु प्रवृत्तियाँ तो विजातीय है। उनसे छुटकारा कठिन लगता भर है, वस्तुतः उनका निराकरण अति सरल है। सच्चे मन से उन्हें अस्वीकृत कर देने, रिश्ता तोड़ देने, प्रश्रय न देने भर का निश्चय कर लेने से वे अनायास ही पल्ला छोड़कर चली जाती है। अन्धकार अवास्तविक है और प्रकाश शाश्वत। एक माचिस भर जलाने से पूरे कमरे में प्रकाश भर जाता है। सत्संकल्प का उदय होने पर छाये हुए कल्मषों की जड़ कट जाती है और वे सूखे ठूँठ भर रह जाते हैं।

विवेक बुद्धि का अनादर करने से अनेक प्रकार के विग्रह उत्पन्न होते हैं। यदि दूरदर्शिता अपनाई जा सके और औचित्य को ही मान्यता देने का निश्चय किया जा सके तो इतने भर से व्यक्तित्व पर छाई हुई अनेक मलीनताएँ घटना और मिटना आरम्भ कर देती हैं। पवित्रता, शान्ति स्वच्छता और उदार आत्मीयता का दृष्टिकोण यदि बना रहे तो उन अवांछनीयताओं में से एक भी टिक नहीं सकेंगी, जिनके कारण जीवन बोझिल मलीन और अनुपयोगी बना रहता है।

अपनी मूल पवित्रता की रक्षा करते हुए ही हम अपने और दूसरों के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं आत्मीयता का विस्तार करने से सहज ही सद्व्यवहार और सहयोग की प्रतिक्रिया वापिस लौट आती है। दूसरों को हानि पहुँचाकर अपना लाभ लेने की कुटिलता अपनाते ही मनुष्य सबके लिए अनुपयोगी बन जाता है भले ही वह प्रत्यक्षतः किसी का कोई बड़ा अहित न कर सके।

दूसरे लोग ही पीछे धकेलते हैं−चिढ़ते ईर्ष्या करते या गिरते हैं ऐसा सोचना व्यर्थ है। वस्तुतः हर व्यक्ति स्वयं आगे बढ़ने में प्रयत्नशील है। किसी समझदार को इतनी फुरसत नहीं होती कि वह दूसरों को गिराने में अपने समय या श्रम की बर्बादी करे। ऐसे कुछ ही लोग होते हैं जो अपनी उन्नति का राजमार्ग छोड़कर दूसरों को गिराने का ताना−बाना बुनते हैं। ऐसे ओछे लोग वस्तुतः इस योग्य ही नहीं हो पाते कि किसी की कुछ हानि कर सके, वे मात्र करते रहते हैं। भोले व्यक्ति न अपना न किसी अन्य का कुछ हित साधन कर सकते और न किसी को कोई बड़ी हानि पहुँचाने की ही उनमें क्षमता होती है। ऐसी दशा में उनकी सूची तैयार करना व्यर्थ है, जिनके बारे में पीछे धकेलने का आरोप लगाया जाता है। सतर्कता बुरी बात नहीं है। आशंकाओं की छान−बीन करनी चाहिए और उनसे निपटने की तैयारी रखनी चाहिए, पर यह गौण प्रश्न है। मूल बात यह है कि हम अपनी प्रगति की तैयारी करें और उसी तेजी को अपनाएँ जिसे प्रगतिशील लोग अपनाते रहे हैं।

दो मोटरें साथ−साथ छोड़ें एक आगे निकल जाय तो अपने पीछे रहने के सम्बन्ध में यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि आगे निकलने वाली ने हमें पीछे धकेल दिया वरन् यह समझना चाहिए कि हमारी अपेक्षा दूसरी ने अधिक तेजी अपनाई और आगे निकल गई। अपने पीछे रह जाने में साथियों का असहयोग या अवरोध भी एक कारण किसी सीमा तक हो सकता है, पर मूल बात दूसरी ही होती है। अपनी प्रगतिशीलता धीमी पड़ने पर ही प्रायः पिछड़ जाने की स्थिति बनती है। उपयोगिता बनाये रहने के लिए चौकस रहा जाय तो कहीं से भी उपेक्षा अवज्ञा न होगी। यदि होती है तो एक स्थान की अपेक्षा दूसरे स्थान पर और भी बड़ा और महत्वपूर्ण काम सामने आ सकता है। दूसरों से धकेले जाने की शिकायत आमतौर से वे लोग करते हैं जो अपनी क्षमता एवं उपयोगिता घटा लेते हैं। पीछे धकेले जाने वालों में यही कमजोरी सर्व प्रमुख है। यदि हम अपनी सतर्कता सक्षमता , तत्परता, अक्षुण्ण रख सकें तो किसी को पीछे धकेलने का साहस ही न होगा, यदि होगा तो उससे किसी प्रकार की क्षति पहुँचने की आशंका न रहेगी।

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