सागर मंथन किया बहुत अब मानस मंथन करो। सखे! अब मानस मंथन करो॥
रई आत्म-चिन्तन वाली हो। रज्जु विवेकमयी डाली हो॥
चले मनन का क्रम अन्तर में। लहरें उठें हृदय-सागर में॥
प्रिय! अपने ही मनोविकारों से संघर्षण करो। सखे! नितप्रति संघर्षण करो॥
असद अशिव को बाहर करके। भव्य विचार जगाकर उर के॥
रत्न निकालो सद्गुण वाले। जिनकी द्युति में विश्व नहाले॥
कल्मष त्यागो! जीवन-पद्धति में परिवर्तन करो। सखे! अभिनव परिवर्तन करो॥
शशि-सी शीतलता अपनाओ। श्रम की लक्ष्मी को ले आओ॥
दया, क्षमा, ममता और सेवा। वितरित करो प्यार की मेवा॥
दिव्य गुणों से मानवता का शुभ अभिनन्दन करो। सखे! हार्दिक अभिनन्दन करो॥
सम्वेदन की सुधा बहाओ।सबको ही यह अमृत पिलाओ॥
मानव रहे देवता बनकर। स्वर्ग उतर आये पृथ्वी पर॥
इन तपते मैदानों को हिमगिरि का नन्दन करो। सखे! इस जग को नन्दन करो॥
-माया वर्मा
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*समाप्त*