मानसिक तनाव से बचा जा सकता है।

February 1978

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महंगाई, जीवन यापन का स्तर बढ़ जाना, उपार्जन के स्त्रोत पतले रहना जैसे अनेक कारणों से अधिकांश लोगों को आर्थिक तंगी बनी रहती है। परिवार में कमाऊ लोगों का कम होना और सदस्यों की संख्या बढ़ जाना भी एक बड़ा कारण पैसे की तंगी का है। इससे कई उपयोगी काम रुकते हैं और कर्ज लेने की नौबत आ जाती है। चुकना कठिन पड़ने और ब्याज चढ़ने से वह बोझ और भी बढ़ता है। ब्याह शादियों जैसे कई सामाजिक खर्चे अप्रत्याशित रूप से सामने आ खड़े होते हैं। उलझनों से पार होते नहीं बनता तो चिन्ता बढ़ती है और मन भारी रहने लगता है। किन्तु चिन्तित रहना कोई समाधान नहीं है। इससे तो सही सोचने और उपाय खोजने तक की सामर्थ्य चली जाती है। उपयुक्त यही है कि रास्ता निकाला जाय। घर के दो सदस्य कमा सकते हैं उनके लिए उस तरह का साधन प्रस्तुतः कराया जाय। खर्चो में कड़ाई से कटौती की जाय और भावी रीति−नीति ऐसी बनाई जाय जिसमें आय के स्रोत बढ़ने के साथ−साथ खर्चे में कमी करके पिछले असन्तुलन को पूरा किया जाय।

अर्थ व्यवस्था की ही मानसिक दबाव का एक अन्य बड़ा कारण है परिवार के बीच स्नेह सद्भाव की कमी−मनो−मालिन्य एवं असहयोग। यह छोटा करण दीखते हुए भी मानसिक विक्षोभ की दृष्टि से अर्थ चिन्ता से भी अधिक भारी पड़ता है। शरीर के बाद घर परिवार ही ऐसा स्थान है जहाँ मनुष्य आश्रय पाता है। जिस समाज से निरन्तर सम्पर्क रहता है वह परिवार ही है। इस उद्यान के फलते−फूलते रहने में ही पौधों का लाभ और माली का गौरव है। मनोमालिन्य से घर के हर सदस्य को हानि पहुँचती है। एक की प्रतिक्रिया दूसरे को प्रभावित करती है। सद्भावों के द्वारा सींचे जाने पर यह बगीचा हरा−भरा रहता है किन्तु मनोमालिन्य से उस पर तुषारपात होता है और अच्छे भविष्य की सम्भावनाएँ नष्ट होती चली जाती है।

आमतौर से पारिवारिक असामंजस्य में कोई बड़े कारण नहीं होते। प्रायः गलतफहमी ही उसका कारण होती है−एक दूसरे से जी खोलकर बात कर नहीं पाते और बात का बतंगड़ बन जाता है। सम्मान की भूख हर छोटे बड़े की आवश्यकता है। हर किसी को स्नेह भी चाहिए और सम्मान भी। इसमें कमी पाने पर हर व्यक्ति अपने को उपेक्षित या तिरस्कृत अनुभव करता है और तिलमिलाता है। छोटे−मोटे काम ही घर में होते हैं उनमें एक दूसरे के साथ मिल−जुलकर सहयोग करने की आदत बनालें और जी खोलकर बातें करने लगें तो मनो मालिन्य के तीन चौथाई कारण ऐसे ही हँसते−हँसते दूर हो सकते हैं। कोई सदस्य उद्दण्डता बरतता हो तो उसे इस निष्कर्ष पर पहुँचने देना चाहिए कि यह रवैया दूसरों के लिए कम और स्वयं उसी के लिए अधिक हानिकारक है। यह स्नेह सिक्त शब्दों में− शान्तचित्त से एकान्त में अधिक अच्छी तरह समझाया जा सकता है। अपमानित करने से तो प्रतिष्ठा का प्रश्न बनता है और पक्ष विपक्ष जैसी प्रतिद्वन्दिता उत्पन्न हो जाती है। ऐसे प्रसंगों पर व्यवहार कुशलता की आवश्यकता होती है और यदि दूरदर्शिता अपनाकर कारण और निवारण की संगति बिठाई जाय तो घरेलू विग्रह आसानी से दूर हो जाते हैं। जहाँ सुधारने के सभी प्रयत्न निष्फल हो जायं और बात बदनीयती तक बढ़ चले तो फिर यही उचित है कि संयुक्त परिवार को छोटा कर लिया जाय और जो जिसके साथ शान्तिपूर्वक रह सकते हों, वे उनके साथ पृथक रहने लगें। संयुक्त परिवार को हर कीमत पर बनायें ही रहना बुद्धिमानी नहीं है।

मानसिक तनाव में एक कारण खाली दिमाग रखना अथवा अत्यधिक व्यस्त रहना भी है। खाली दिमाग शैतान की दुकान वाली उक्ति सोलहों आने सच है जो फालतू बैठे रहते हैं उन्हीं के दिमाग में बेसिलसिले की बातें अधिक उठती हैं। तनाव उत्पन्न करने वाले कारणों में अधिकतर बेसिर पैर का ऊल−जलूल चिन्तन ही होता है। मनुष्य यदि शरीर और मन को उपयोगी कामों में व्यस्त रखे तो बेकार की बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता ही न पड़ेगी। भारी कामों के साथ−साथ कुछ हलके काम और हलके चिन्तन भी दिनचर्या में जुड़े रहने चाहिए। उपयोगी शौकों में फूल या शाक उगाना, वस्तुओं की सफाई सज्जा, टूट−फूट की मरम्मत, गीत वाद्य, सामूहिक प्रार्थना, खेलकूद जैसे कई कार्य सम्मिलित रखे जा सकते हैं। इनसे व्यस्तता और मनोरंजन का दुहरा उद्देश्य पूरा होता है और मस्तिष्क पर भारीपन नहीं जमने पाता।

प्रकृति के सीधे सम्पर्क से कतरा कर कृत्रिम वातावरण में फँसे रहने से भी मानसिक तनाव बढ़ता है। बन्द मकानों में बिजली की बत्तियों और पंखों के बीच गुजारा करने वाले खुली हवा धूप और प्रकृति सौन्दर्य निहारने से वंचित रह जाते हैं। यह अभाव जीवन में ऐसी रिक्तता लाता है जिससे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य गड़बड़ाने लगता है। ऐसे लोगों को थोड़ी असुविधा उठाकर भी प्रकृति की समीपता वाले स्थानों में रहने का या खुले वातावरण में रहने का मार्ग निकालना चाहिए। अधिक कपड़े पहनने, गन्दी गलियों, घुटन भरे मकानों अथवा शोर-गुल के बीच रहने से मस्तिष्क पर उत्तेजनात्मक दबाव बढ़ते हैं और बेचैनी अनुभव होती है। प्रातःकाल खुली हवा और प्राकृतिक वातावरण में टहलने का नियमित अभ्यास बनाकर मस्तिष्क को तनाव से मुक्त रखने में सहायता मिलती है।

भारी, महत्वपूर्ण उपयोगी और कमाऊ काम करने में मनुष्य को अभिरुचि होनी स्वाभाविक है, उससे लाभ भी मिलता है और श्रेय भी। किन्तु यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि निरन्तर भारी काम करने से जो दबाव पड़ता है उससे उत्साह और उल्लास की कमी होने लगती है। इससे थकान बढ़ती है और मनोयोग शिथिल पड़ने से काम का स्तर गिर जाता है। इस जोखिम से बचने के लिए यह आवश्यक है कि विनोद की तरह कुछ काम करने के लिए दिनचर्या में स्थान रखा जाय। संगीत, गृह−वाटिका, खेल विनोद, घरेलू उद्योग, सज्जा, मरम्मत, जैसे कितने ही कार्य ऐसे ढूँढ़े जा सकते हैं जिससे मन बहलने और हलके−फुलकेपन की ताजगी लाने का कुछ उपक्रम बनता रहे।

स्वार्थपरता, एकाकीपन, दूसरों के कामों में दिलचस्पी न लेना अपनी ही समस्याओं में उलझे रहना ऐसी प्रवृत्ति है जो जिन्दगी का आनन्द नष्ट करती और उसे बोझिल बनाती है। स्वभाव को मिलन सार और पारस्परिक सहयोग में रस लेने वाला बनाना चाहिए। संकोची, अहंकारी और अशिष्ट बकवासी प्रकृति के लोग सरस सामाजिकता का आनन्द नहीं ले पाते और अपने आप में खोये उलझे रहते हैं। ऐसे लोगों को मानसिक सीमा बंधन में पिंजड़े में बन्द पक्षी की तरह घुटन अनुभव होती है और व मानसिक तनाव से ग्रसित रहने लगते हैं। दूसरों के दुःख सुख में सम्मिलित रहने और सहयोगपूर्वक मिलजुल कर काम करने एवं सोचने का रास्ता निकाला जा सके, तो उससे औषधि उपचार की अपेक्षा अधिक सरलतापूर्वक मानसिक तनाव से छुटकारा मिल सकता है।

भविष्य के सम्बन्ध में निराश रहने लगना− विपत्ति की आशंका से भयभीत और प्रस्तुत समस्याओं के सम्बन्ध में अत्यधिक चिन्ता करना मस्तिष्क पर इतना भार डालता है जिससे उसकी स्वाभाविक शान्ति नष्ट होती है। कठिनाइयों, प्रतिकूलताओं, हानियों, आक्रमणों, असफलताओं से हर किसी को वास्ता पड़ता है। सदा सफलताएँ ही मिलती रहें, सदा अनुकूलता और सुविधा ही बनी रहें ऐसा कठिन है। रात दिन की तरह, ताने बाने की तरह ज्वार−भाटे की तरह मनुष्य जीवन में प्रिय−अप्रिय के उतार−चढ़ाव आते ही रहते हैं। उनसे पूर्ण सुरक्षित रह सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं रहा। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अपनी मानसिक तैयारी ऐसी रखनी चाहिए कि प्रतिकूलता आने पर निराश एवं खिन्न होने की आवश्यकता न पड़े। अच्छे भविष्य की आशा को किसी भी स्थिति में न गँवाया जाय। अवरोधों से जूझने में खिलाड़ी जैसा आनन्द लेने का स्वभाव बनाया जाय तो मन को भारी बनाने की आवश्यकता न पड़ेगी।

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