आत्म-निरीक्षण और आत्म−नियंत्रण की आवश्यकता

August 1978

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संसार में क्या प्रिय है, क्या अप्रिय, इसका निर्णय बाह्य विवेचन के आधार पर नहीं अपनी मान्यताओं के आधार पर ही किया जा सकता है। जिस वस्तु या व्यक्ति के प्रति अपनापन जोड़ लिया जाय वही प्राण प्रिय प्रतीत होगा। जब वह आत्मीयता घट या मिट जाती है तो वही पदार्थ या व्यक्ति उपेक्षित अप्रिय बन जाते हैं। अपना मकान, अपने वाहन, अपने उपकरण कितने प्रिय लगते हैं और सदा साज−सँभाल रखने को जी करता है, पर जब उन्हें किसी के हाथ बेच दिया तो अपनापन घट जाने पर उनके टूटने, नष्ट होने का समाचार मिलने पर फिर कोई चिन्ता नहीं होती। इससे स्पष्ट है कि कोई पदार्थ स्वयं में प्रिय-अप्रिय नहीं होता। जड़ वस्तुओं में किसी प्रकार की अनुभूति देने की क्षमता नहीं होती। अपनी आत्मीयता का प्रकाश पड़ने पर ही वह चमकने एवं प्रकाश देने लगती है। यह प्रकाश बुझते ही वह फिर अन्धेरी जड़ नीरस बन जाती है।

यही बात व्यक्तियों के सम्बन्ध में है। जामाता बहुत प्रिय लगता है वह घर आता है तो सम्मान−सहयोग करने का पूरा ध्यान रहता है, पर यदि अपनी लड़की से उसकी पटरी न बैठे और तलाक हो जाय तो फिर वही जामाता अपरिचित जैसा लगता है। उसके मिलने पर तनिक भी प्रसन्नता नहीं होती और मुँह फेर लिया जाता है। व्यक्ति वही है। उसके गुण, दोष ज्यों के त्यों हैं। अन्तर इतना ही आया है कि पहले वह अपना सम्बन्धी था तब प्रिय लगता था। अब वह अपनापन समेट लिया गया तो वह उपेक्षणीय लगने लगा। अपना कुरूप बेटा भी प्रिय लगता है और पड़ोसी का सुन्दर बच्चा भी उपेक्षणीय दीखता है। व्यक्ति के गुण, दोषों का महत्व कम है। अपनापन ही प्रिय लगता है। अपनापन जिस पर हम आरोपित कर दें वही प्रिय लगने लगेगा। इस संसार के जितने अधिक पदार्थों को, प्राणियों को अपना मानेंगे उतना ही प्रियता का क्षेत्र बढ़ता जायगा। यदि पूरे विश्व के साथ अपनी आत्मीयता की परिधि बढ़ा दी जाय तो सर्वत्र आनन्द और उल्लास ही बिखरा पड़ा दिखाई देगा। आनन्द को ईश्वर का स्वरूप माना गया है। ईश्वर दर्शन का अर्थ है आनन्द का दर्शन। आनन्द और कुछ नहीं अपनेपन का प्रत्यारोपण करने की प्रतिक्रिया मात्र है। अपनापन जितना संकीर्ण होगा उतना ही स्वल्प आनन्द मिल सकेगा। शरीर भर को अपना समझें और उसी की तुष्टि−पुष्टि में लगे रहें तो तनिक से आनन्द की अनुभूति सम्भव होगी। यदि उस अपनेपन को पूरे परिवार में फैला दिया जाय तो वह परिकर भी अपनी ही उपार्जित सम्पत्ति लगेगा। एक कदम और आगे बढ़ा कर यदि देश, धर्म, समाज, संस्कृति तक उसे फैला दिया जाय, विश्वव्यापी बना दिया जाय तो धन कुबेर जितना चक्रवर्ती सम्राट्, जितना अपना बढ़ा−चढ़ा वैभव दिखाई पड़ेगा। अपने को सबमें और सबमें अपने को देखना ही तो आत्म−ज्ञान, आत्म−साक्षात्कार, आत्मोत्कर्ष आदि के नाम से वर्णन किया जाता है और उसे ही जीवन−लक्ष्य माना जाता है।

कुकल्पनाएँ हमें इतना अधिक कष्ट देती हैं जितना कि वास्तविक विपत्तियाँ भी नहीं दे सकतीं। चिन्ता, भय, निराशा, आशंका जैसी शरीर को और मन को अर्ध−मूर्छित बना देने वाली कितनी ही कुकल्पनाएँ हमारी प्रसन्नता और प्रगति को बेतरह नष्ट करती रहती हैं। इसी प्रकार अहंकार, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिशोध, कामुकता, लालच जैसी आक्रामक दुर्भावनाएँ हमें आतुर, उद्विग्न और अन्धा आवेशग्रस्त बनाकर ऐसे कृत्य कर डालने पर विवश कर देती हैं जिनके लिए चिरकाल तक पश्चात्ताप करना पड़ता है। आवेश को ज्वार और अवसाद को भाटा कह सकते हैं। यह दोनों ही अवांछनीय मनःस्थितियाँ हमारे मानस समुद्र को अशान्त उद्विग्न बनाये रहती हैं। उनके कारण नाव और जहाज डूबते रहते हैं। जब समुद्र शान्त होता है तभी उसमें रहने वाले जल जीव चैन पाते हैं और नाविकों की सुखद यात्रा चलती है। आवेश रहित मस्तिष्क ही कुछ महत्वपूर्ण सोचने और प्रगति की सुव्यवस्थित योजना बनाने एवं उन्हें सफल बनाने के साधन जुटा सकता है। अवसाद की तुलना ‘लो ब्लड प्रेशर’ से और आवेगों की ‘हाई ब्लड प्रेशर’ से की जाती है। एक से आदमी ठण्डा पड़ जाता है और दूसरे से तनावग्रस्त होकर सिर धुनता, पैर पीटता है। इन दोनों मानसिक अतिक्रमणों के दुष्परिणाम अलग−अलग ढंग के होते हुए भी हानि की दृष्टि से दोनों ही एक दूसरे से बढ़ कर हैं। अति ठण्ड में भी आदमी का खून जम जाता है और अति गर्मी भी झुलसा कर प्राण हरण कर लेती हैं।

कहते हैं कि एक बार यमराज ने मृत्यु को बुलाकर एक हजार आदमी मृतात्माएँ साथ थीं। इस पर यमराज ने नाराज होकर कहा−आज्ञा का अतिक्रमण क्यों किया गया? मृत्यु ने हाथ जोड़कर कहा−देव, मैंने तो उतने ही मारे हैं। शेष तो डर के मारे स्वयं मर कर साथ हो लिए हैं। वस्तुतः होता यही है। वास्तविक विपत्ति से जितनी हानि हो सकती है उसकी तुलना में कई गुना नुकसान लोग भय, आशंका, चिन्ता, निराशा आदि की उद्विग्नता से दुःखी होकर अपना सन्तुलन गँवा बैठते हैं और हड़बड़ी में न केवल शरीर सुखाते, दिमाग जलाते वरन् हाथ के नीचे के कामों को भी अस्त−व्यस्त कर देते हैं। धैर्य, साहस और सन्तुलन कायम रखा जा सके तो इन अनावश्यक हानियों से बचा जा सकता है और वास्तविक विपत्ति से निपटने के लिए विवेकयुक्त उपाय सोचा जा सकता है।

भविष्य के सम्बन्ध में कितने ही लोग अशुभ कल्पनाएँ करते रहते हैं। शनि, राहु, मंगल आदि की ग्रह दशा कोई अनिष्ट करेगी। अमुक व्यक्ति पर अमुक विपत्ति आई है, उसी तरह की अपने ऊपर भी आवेगी। अल्प आयु में अमुक मर गया तो हमें भी मरना पड़ेगा। अमुक संकट में अमुक का सम्बन्धी घिर गया तो हमारे घर में भी वैसा ही झंझट खड़ा हो सकता है आदि कुकल्पनाएँ मस्तिष्क में डरावनी आशंकाओं के चित्र खड़े करती रहती हैं और उन्हें अधिक वास्तविक समझते−समझते मनुष्य निरन्तर भयभीत रहने लगता है और अब मरा तब मरा समझ कर अधमरी आशंकित, आतंकित स्थिति में रहने लगता है। यद्यपि कल्पित कठिनाइयों में कभी कोई एकाध ही आधे−अधूरे रूप में सामने आती है, पर मनुष्य अकारण उनसे अपना रक्त सुखाता रहता है और उपयोगी मानसिक शक्तियों में इन निरर्थक उलझनों में नष्ट करता रहता है। यदि चिन्तन को उज्ज्वल भविष्य की कल्पना में लगाया गया होगा। सुखद कल्पनाओं की−प्रगति और सफलताओं के मानसिक चित्र बनाये गये होते तो उनके कारण उत्साह रहता, आशा बँधती और अधिक सक्रिय रहने की प्रेरणा मिलती, भविष्य में क्या होने वाला है इसकी यथार्थता किसी को भी विदित नहीं है। उसकी मात्र कल्पनाएँ और अटकलें ही लगाई जाती हैं। यदि ऐसा ही है तो कुकल्पनाओं में उलझा कर अपनी मानसिक शक्ति नष्ट करने की अपेक्षा उसे सुखद कल्पनाओं के द्वारा उत्साहवर्धक चिन्तन में लगा कर प्रसन्न रहने का तरीका क्या बुरा है? वस्तुतः बुद्धिमानी का यही मार्ग है।

दूसरों को दुश्चरित्र, विद्वेषी, दुष्ट, दुर्गुणी मान बैठने और उनसे अकारण घृणा, द्वेष करने लगने का कोई कारण नहीं। सतर्कता बरतना बिलकुल अलग बात है, पर किसी पर पूरा विश्वास रखते हुए और ईमानदार मानते हुए भी व्यवस्था की दृष्टि से स्वस्थ परम्परा स्थापित करने की दृष्टि से बरती जा सकती है। पर सन्देह तो एक अन्धविश्वास है जिसके कारण भले को ही बुरा मान लिया जा सकता है। कई पुरुष अपनी स्त्रियों को, कई स्त्रियाँ अपने पुरुषों को तनिक सी आशंका को तिल का ताड़ बनाकर दुश्चरित्र मानते हैं और अविश्वास की खाई पैदा करते हैं। यदि गहराई से पता लगाया गया होता तो प्रतीत होता कि वह मात्र आशंका ही थी। इसी प्रकार की आशंका, भोजन के विषैला होने, ठोकर लगने पर टिटनिस बन जाने, किसी बीमार की छूत लग जाने आदि की। जाती रहती है और हर घड़ी अपने को विपत्ति से घिरा समझा जाता है, यह मानसिक दुर्बलता बहुत ही बुरी हैं। निषेधात्मक चिन्तन मनुष्य का निरन्तर रक्त सुखाता है और उसकी शक्तियों को अकारण ही अनावश्यक रूप से नष्ट करता है हमें इन मानसिक दुर्बलताओं से बचने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। अपने स्वभाव को शौर्य, साहस से भरा पूरा बनाना चाहिए, निर्भयता अपनानी चाहिए और हिम्मत रखनी चाहिए कि यदि कभी कोई विपत्ति आवेगी तो अपने पराक्रम से उसका सामना करेंगे। सज्जनों की सद्भावना तथा ईश्वर की सहायता मिलेगी और बेड़ा पार हो जायगा। इतने पर भी कुछ भुगतना पड़ा तो बहादुरों की तरह उसका हँसते−हँसाते सामना करेंगे। दूसरों से लड़ने मरने वाली बहादुरी की तो कभी−कभी ही आवश्यकता पड़ती है, पर अपने को भीरुता से बचाने और साहसी बनाये रहने वाली वीरता की अपेक्षा तो हर मनुष्य को हर घड़ी रहती है। उसका संचय करना ही चाहिए।

निर्भय मनुष्य स्वयं बहादुरी के साथ शानदार जिन्दगी जीता है और अपने साथियों की भी हिम्मत बढ़ाता रहता है इसके विपरीत डरपोक अपनी कुकल्पनाओं से अपने को भयभीत रखता है और साथियों में भी ऐसी ही भीरुता, आशंका भरी कुकल्पना उत्पन्न करता है। आलस्य, प्रमाद, भय, सन्देह, आशंका, निराशा, चिन्ता जैसी कितनी ही बुरी आदतें मनुष्य को स्वाभाविक शक्ति का बहुत बड़ा अंश नष्ट करके उसे दीन दुर्बल बनाती चली जाती हैं। उन्हें अपने स्वभाव का अंश नहीं ही बनने देना चाहिए और यदि वे आदत में सम्मिलित हो गई हों तो प्रयत्नपूर्वक उन्हें हटा कर साहसिकता, स्फूर्ति, आशा की सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने का अभ्यास करना चाहिए।

उपरोक्त अवसाद संज्ञा की रक्त को ठण्डा करने वाली बुरी आदतों की तरह की उत्तेजित स्वभाव भी भयंकर है। उसके कारण और भी अधिक हानि उठानी पड़ती है। बर्फ जैसी ठण्डक में रहना तो हानिकारक है ही, आग से झुलसना भी कम कष्टकारक नहीं हैं। तनिक−तनिक सी बात पर आपे से बाहर हो जाना, आग बबूला हो जाना दूसरों की दृष्टि में अपना हलकापन सिद्ध करना है। हलकी टीन के बर्तन जरा-सी गर्मी पाकर तप जाते हैं, किन्तु जो भारी भरकम हैं वे बहुत कुछ सहने पर भी अमर्यादित नहीं होते। उथले नाले तनिक−सा पानी बढ़ने पर उफनने लगते हैं, पर समुद्र में इतनी नदियाँ मिलते रहने पर भी बाढ़ नहीं आती। विचारवान मनुष्य को इतना गम्भीर होना चाहिए कि प्रतिकूलताएँ सामने आने पर अधीर न हो उठे और आवेशग्रस्त होकर अपनी स्थिति उन्मत्त विक्षिप्तों जैसी उपहासास्पद न बना ले।

क्रोध एक तरह का मानसिक बुखार है। बुखार आने पर सारा शरीर तपने लगता है, मुँह भी सूखता है, आँखें लाल हो जाती हैं, सिर घूमने लगता है। जी ठिकाने न रहने पर कुछ का कुछ मुँह से निकलता है। लगभग ऐसी ही स्थिति क्रोध या आवेश आने पर बन जाती है। मस्तिष्क शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग है उसे जल्दी−जल्दी बुखार आना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को नष्ट करने वाला भयंकर रोग है। जिस प्रकार बुखार आदि अन्य रोगों से बचने की, उसे दूर करने की चेष्टा की जाती है उससे भी अधिक प्रयत्न आवेशग्रस्त मनःस्थिति को सुधारने की करनी चाहिए।

आपत्ति की आशंका कई बार मानसिक स्थिति को अस्त−व्यस्त कर देती है, ठीक उसी प्रकार कुछ लाभों के लिए भी आदमी इतना अधीर, आतुर हो जाता है कि नीति, मर्यादा, लोक−लज्जा, समाज व्यवस्था, कर्त्तव्य आदि औचित्य के सभी बन्धन तोड़ कर किसी भी प्रकार इच्छा पूर्ति पर उतारू हो जाता है। निर्लज्ज कामुकता के आचरण ऐसी ही स्थिति में बन पड़ते हैं। चोरी, बेईमानी ऐसी ही स्थिति में बनती है। प्रियजनों के साथ पक्षपात करने का, उन्हें अवांछनीय समर्थन देने का स्वभाव ऐसे ही स्वभाव के लोगों का बन जाता हैं। उन्हीं आवेशों को काम, क्रोध, लोभ, मोह कहा जाता है। बड़प्पन पाने का उद्धत आचरण अहंकार कहलाता है। ठाट−बाठ, सज−धज, ऐंठ−अकड़, शेखीखोरी, अशिष्टता, उद्दण्डता जैसे उद्धत आचरण ऐसी ही, अहंकारग्रस्त मनोभूमि के लोगों से बन पड़ते हैं। वे ऐसा करके दूसरों पर अपने बड़प्पन की छाप छोड़ना चाहते हैं, पर होता ठीक उलटा है। वे हर किसी की नजर में गिर जाते हैं ओर उस ऐंठ−अकड़ के कारण हर प्रकार घाटे में रहते हैं। मद और मत्सर को भी काम, क्रोध, लोभ, मोह की तरह की निन्दनीय माना गया है और उन्हें षड्-रिपुओं में गिना गया है। हमें गम्भीरता पूर्वक आत्म निरीक्षण करना चाहिए और जिनमें इस प्रकार के आवेश जन्य उत्तेजनात्मक दुर्गुण हों, उन्हें हटाने, सुधारने के लिए पूरी तत्परता के साथ प्रयत्न करने चाहिए।

इन्द्रियों का चटोरापन देखने में सामान्य−सा दुर्गुण दीखता है, पर उससे भी धीरे−धीरे सर्वनाश का आधार बनता रहता है। सर्वविदित है कि जीभ का चटोरापन पेट पर अवांछनीय वस्तुओं का अनावश्यक भार लादता है और उसके कारण अपच उत्पन्न होता है। भोजन ठीक तरह न पचने पर पेट में सड़ता है और उस सड़न से ही अनेकानेक रोक उत्पन्न होते हैं। जीभ का चटोरापन शारीरिक स्वास्थ्य को नष्ट करने वाला सबसे बड़ा कारण है। मानसिक स्वास्थ्य नष्ट करने में काम-वासना की अमर्यादित आग अत्यन्त भयावह परिणाम उत्पन्न करती है। आरम्भ में जीभ के स्वाद की तरह कामुकता का स्वाद भी बहुत प्रिय लगता है, पर अविवेक-पूर्वक इनका उपभोग करने पर टूट पड़ना मनुष्य को खोखला ही बनाता चला जाता है। अत्यन्त इन्द्रियों के व्यसन भी अपने−अपने तरीके से ऐसी ही हानियां करते हैं। इसलिए तत्वदर्शी लोग सदा से यही शिक्षा देते रहे हैं कि इन्द्रियों की अनियन्त्रित वासनाओं पर कुशल घुड़सवार की तरह काबू रखा जाय। उन्हें उच्छृंखल अमर्यादित न होने दिया जाय। वासना, तृष्णा की निन्दा इसी अर्थ में की जाती है कि वे शरीर एवं मस्तिष्क का असन्तुलित स्थिति में पटक देती है। जबकि समुन्नत, सुसंस्कृत एवं हँसता−हँसाता जीवन जीने के लिए व्यक्तित्व सुसंतुलित बनाये रहने की नितान्त आवश्यकता रहती है।

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