धर्म हमें अन्तिम सत्य तक ले पहुँचता है।

August 1978

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

धर्म किन्हीं विशेष अभिरुचि के या फालतू समय वालों के मन बहलाव का माध्यम हैं अथवा उसका कोई सार्वजनिक उपयोग भी है। इस प्रश्न के उत्तर में हमें धर्म का स्वरूप और उद्देश्य समझने का प्रयत्न करना होगा और यह जानना होगा कि क्या तथाकथित धर्माध्यक्षों द्वारा अपने−अपने ढंग से किया गया बहुमुखी प्रतिपादन ही धर्म है अथवा उसके पीछे व्यक्ति और समाज की उपयोगी मार्गदर्शन की तथ्यपूर्ण क्षमता भी है।

सर जूलियन हेस्कले ने अपने ग्रन्थ ‘रिलीजन विदाउट रिविलेशन’ में धर्म सम्प्रदायों के सम्मिलित सत्य और असत्य की समीक्षा करते हुए लिखा है सत्य, ज्ञान और सौन्दर्य के अभिव्यक्तित्वों से जो धर्म जितना पिछड़ा हुआ है उसे उतना ही झूठा और नीचा समझा जाना चाहिए। सालोमन रीनाइक की यह उक्ति एक खीज भर है, जिसमें उन्होंने धर्म पर “मानवी क्षमताओं पर रोक लगाने” का आक्षेप किया है। वस्तुतः वैसा है नहीं। धर्म की मूल आत्मा न्याय, कर्त्तव्य एवं औचित्य का समर्थन करती है। प्रथा परम्पराएँ तो धर्म के आवरण मात्र हैं। जिन्हें समय−समय पर बदले जाने की आवश्यकता पड़ती है।

देशभक्ति ही सब कुछ नहीं है। विश्व भक्ति उससे भी ऊपर है। समाज का कितना ही महत्व क्यों न हो, बहुमत की मान्यताओं के समर्थन में कुछ भी क्यों न कहा जाता रहे। अन्ततः विवेक ही सबसे ऊपर है। उसे देश भक्ति से भी ऊँचा स्थान मिलना चाहिए। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के आधार पर विधान कुछ भी क्यों न बनते रहें, उच्च आदर्शों का स्थान सबसे ऊँचा है, भले ही उनके समर्थन में नीति निष्ठ व्यक्तियों की थोड़ी−सी ही संख्या क्यों न हो?

धर्म दुधारी तलवार है। यदि वह अपरिपक्व दर्शन और संकीर्ण साम्प्रदायिकता का समर्थन भर करता है, तो वह हानिकारक है। किन्तु यदि उससे नीति निष्ठा का समुचित समावेश है तो उसके द्वारा मनुष्य और समाज का हित साधन ही होगा।

विज्ञान और धर्म के शोध विषय पृथक हैं। एक पदार्थ की गहराई को खोजता है, दूसरा चेतना के मर्मस्थल को। इतने पर भी दोनों का मूल प्रयोजन एक है−सत्य की शोध। इसके लिए आवश्यक है कि मस्तिष्क को किन्हीं पूर्वाग्रहों से जकड़ कर न रखा जाय। पिछले लोग क्या सोचते, क्या कहते और क्या करते रहे हैं इसकी जानकारी उत्तम है, उसके सहारे तथ्यों तक पहुँचना सरल पड़ता है, पर यह मानकर नहीं चला जा सकता कि जो जाना या माना गया है उसमें संशोधन या सुधार की गुंजाइश नहीं हैं। तथ्यों को स्वीकार करने की शोध दृष्टि में यह साहस रहता है कि यदि प्रचलित स्वीकृतियों से भिन्न प्रकार के तथ्य सामने आते हैं तो उनके स्वीकार करने में इसलिए असमंजस न करना पड़ेगा कि अब तक के चिन्तन को झुठलाना पड़ेगा।

तर्कहीन मनःस्थिति का नाम धार्मिकता नहीं हैं। आँखें बन्द करके किसी के भी वचन को गले नहीं उतारना चाहिए। अपने लोग कहते हैं या पराये− बात संस्कृत या अरबी भाषा में कही गई है अथवा बोलचाल की भाषा में, इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। स्वीकार करने योग्य वही है, जिनमें तथ्य जुड़े हुए हों और जिसे विवेक की कसौटी पर खरा सिद्ध किया जा सके। बिना खोज परख के जो धर्म के नाम पर किसी भी मान्यता या प्रथा को स्वीकार कर ले वह स्वस्थ दृष्टि नहीं है। धार्मिक मन सत्य का उपासक होता है उसे औचित्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिए। भले ही इसके लिए उन्हें पूर्वजों की अथवा उपदेशकों, ग्रन्थों अथवा साथियों की ही अवहेलना क्यों न करनी पड़े।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118